राजनीति से प्रेरित है निजी स्कूलों की मनमानी
किरण राय
रेयान इंटरनेशनल स्कूल में 7 साल के प्रद्युम्न ठाकुर की नृशंस हत्या हमारे बिगड़ते सामाजिक व्यवहार का उदाहरण तो है ही साथ ही हमारे लिए एक संकेत भी है। इशारा कि केवल सामाजिक तानेबाने को कोसने या फिर किसी संस्थागत कमी की लकीर को पीटने भर से कुछ नहीं होगा बल्कि बात तो तब बनेगी जब हम पोलिटिकल रिफॉर्म पर बहस करेंगे। आज जरूरत इस बात की है कि शिक्षा व्यवस्था को लेकर जो सवालात खड़े किए जा रहे हैं उसकी डोर हम किसके हाथों में सौंप रहे हैं इसको लेकर सवाल पूछे जाएं। विधायिका देश का कानून बनाती है, तो कहीं ना कहीं हमें लोकतंत्र के उस मंदिर तक पहुंचने वाले प्रतिनिधियों के चुनाव में सावधानी बरतनी होगी, जब तक नई विचारधारा, नई सोच और नए लोगों के हाथों में बागडोर नहीं सौंपेंगे तब तक किसी सिस्टम पर सवाल करते रहने का कोई औचित्य नहीं होगा...क्योंकि अंतत: आम आदमी सिस्टम के हाथों मारा जाता है जिसे गढ़ने का जिम्मा भी हम जनप्रतिनिधियों को ही थमाते हैं।
जितना बड़ा स्कूल उतनी बड़ी मनमानी गुरुग्राम के स्कूल में मारे गए प्रद्युम्न की कहानी तो एक बानगी है। क्या हम नहीं जानते कि हाल ही में जीडी गोयनका स्कूल में ही एक बच्चे अरमान की मौत भी संदेहास्पद रही, क्या हमें नहीं याद कि इसी रेयान इंटरनेशनल स्कूल के वसंतकुंज ब्रांच में एक बच्चे की दर्दनाक मौत सेप्टिक टैंक में गिरने से हुई थी? प्रद्युम्न के गुजरे 24 घंटे भी नहीं हुए थे कि गाजियाबाद में ही एक 6 साल की बच्ची स्कूल बस चालक की लापरवाही के चलते पहिये के नीचे आ गई। ये सभी दुर्घटनाएं बताती हैं कि हम अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर तो चिंतित हैं, लेकिन सिस्टम पर उंगली तभी उठाते हैं जब कोई हादसा हमारे सामने पेश आता है। ये भी छिपी बात नहीं कि ऐसे निजी और महंगे स्कूल इसलिए फल-फूल रहे हैं क्योंकि उन्हें वरदहस्त प्राप्त है उन्हीं का जिन्हें हम जनप्रतिनिधि कहते हैं। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था पर दरअसल उन्हीं शिक्षा माफिया का राज है जो नीतियों को धत्ता बनाता है। ये जानते हैं कि ये विधवा विलाप कुछ दिनों के लिए है फिर सब मैनेज हो जाएगा।
राजनीति का मतलब ही है जनकल्याण के लिए बनाई जाने वाली नीति, कानून या नियम। आजादी के कई साल बीत गए हैं। देश में उठापटक का दौर भी खूब चला है। कई नए विचार आये और कई गए। कुछ पर काम हुआ और कुछ समय की धूल फांक रहे हैं। बातें बहुत हुईं...काम भी हुए। लेकिन देश की शिक्षा व्यवस्था की बात करें तो वो ऐसी नहीं रही कि उस पर सवाल ना खड़े किए जाएं। वो भी उस देश के लिए जहां दुनिया तक्षशिला और नालंदा के शैक्षिक स्तर की मिसाल देता है। हमारी सरकारों ने, हमारे सिस्टम ने ऐसा बहुत कुछ नहीं किया जो प्राथमिक स्तर पर देश के 29 फीसदी बच्चों को निजी स्कूल जाने से रोके। हमारे सिस्टम ने ऐसा कुछ भी नहीं किया कि सरकारी स्कूलों के स्तर को बेहतर बनाया जा सके... हां एक काम जरूर हुआ कि हर पार्टी के नेता अपना-अपना स्कूल और कॉलेज खोलकर सरकारी स्कूलों को खत्म कर रहे हैं और जिस पार्टी की सरकार आई उसने अपने हिसाब से इतिहास किताबों में परोस कर बच्चों को दे रही है। बहरहाल, अन्य क्षेत्रों की तरह शिक्षा में भी खूब राजनीति हो रही और मासूम बच्चे उसकी जद में फंसकर जान गंवा रहे हैं।