कैश फॉर वोट : अंदाज पर सवाल
हमारी संसद और संसदीय प्रणाली को ठेंगा दिखाने वाले कैश फॉर वोट कांड का ये हश्र शायद तय था। कोर्ट के समक्ष दिल्ली पुलिस अपने सुबूत और दलील वैसे नहीं रख पाई जैसे रखे जाने चाहिए थे। नतीजतन दिल्ली की अदालत ने एक को छोड़कर बाकी सबको बरी कर दिया। ये मामला 2008 का है जब भारतीय लोकतंत्र की पवित्र संस्था यानी संसद में कुछ सांसदों ने आकर नोट लहराये थे। सांसदों का तर्क था कि उन्हें ये कैश, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार को बचाने के लिए दिया गया है। आरोप था कि कथित तौर पर कांग्रेसी खेमे ने सांसदों की खरीद फरोख्त की थी। इसी मामले को लेकर संसद कई दिनों तक ठप रही थी और 2011 में एक अमेरिकी राजनयिक के हवाले से विकीलिक्स के खुलासे ने सरकार की और किरकिरी कर दी थी।
यह वो मामला है जिसकी तह तक जाने का भरोसा न केवल तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष ने, बल्कि खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी दिलाया था। दिल्ली पुलिस का अंजाम तक पहुंचने के इस अंदाज से लगता नहीं कि सच्चाई से कभी देश रूबरू हो पायेगा। ये दुखद ही है कि कानून को अमली जामा पहनाने वाली शीर्ष संस्था में सांसदों की बोली लगी और इतनी हायतौबा मचने के बाद भी नतीजा सिफर ही रहा। सवाल ये है कि इस फैसले के बाद क्या उम्मीद की जानी चाहिए की भ्रष्टाचार के दूसरे मामलों की जांच में कोई ढुलमुल रवैया नहीं अपनाया जायेगा और उन्हें सही तरीके से निपटाया जायेगा?
दिल्ली पुलिस की पड़ताल से साफ होता है कि उसकी दिलचस्पी सच्चाई की तह तक जाने में नहीं थी। इसके संकेत तभी मिलने लगे थे जब पुलिस ने उन सांसदों के खिलाफ ही शिकंजा कसना शुरू कर दिया था जिन्होंने संसद में नोटों के बंडल लहराये थे। यहां सवाल उठता है कि केन्द्र सरकार के अधीन आने वाली दिल्ली पुलिस इस मामले की जांच के नाम पर क्या करती रही? अदालत ने इस मामले में पूर्व सपा नेता अमर सिंह के एक सहायक के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत आरोप तय करने के आदेश दिए हैं, लेकिन केवल इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि इस पूरे मामले की साजिश का सूत्रधार यही शख्स है। कुलमिलाकर ये पूरा मामला संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाला है। वो संसद जिसे हम लोकतंत्र का मंदिर के नाम से पूजते हैं।