दवा तो है पर दर्द और मर्ज का इलाज जरूरी
किरण राय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को लेकर जो उद्गार व्यक्त किए वो काबिल-ए-तारिफ है। खासकर जेनेरिक दवाओं के इस्तेमाल संबंधी नियम और कायदों को लेकर। उन्होंने स्पष्ट किया कि सरकार ऐसा कानून बनाने पर विचार कर रही है जिसके आधार पर चिकित्सक मरीजों को जेनेरिक दवाएं परचे पर लिखने के लिए बाध्य होंगे। प्रधानमंत्री ने कहा कि इसके तहत चिकित्सक मरीज को लिखेगा कि वो जेनेरिक दवाओं का प्रयोग करे और उसे इसके अलावा कोई और दवाई लेने की जरूरत नहीं है।
पीएम का तर्क गौर करने लायक है। उनकी मंशा साफ है कि इस तरह से चिकित्सक महंगी और कमीशन आधारित दवायें नहीं लिख पायेगा जो अमूमन गरीब मरीज के लिए काफी कष्टकारी है। देश की स्वास्थ्य नीति के लिए ये विचार प्रशंसनीय और स्वागत योग्य है लेकिन अच्छा होता कि मोदी ये दायरा केवल मरीजों और चिकित्सकों तक ही ना सीमित रखते बल्कि दवायें बेचने वाली बड़ी कम्पनियों को भी इस जद में लाने का खाका कम से कम अपनी बात के जरिए ही करते। यानी दवा का मर्ज क्या है इसे ढूंढना, परखना जरूरी है।
देश में विभिन्न दवाओं के एक ही संरचना या कम्पोजिशन वाली सस्ती से लेकर महंगी दवाएं उपलब्ध हैं। ऐसे में चिकित्सक और फार्मासिस्टों की दया पर ही मरीज को निर्भर होना पड़ेगा। मान लें डॉक्टर दवाओं के द्रव्य के बारे में तो लिख दे लेकिन जब वो दुकान पर पहुंचे तो फार्मासिस्ट उसे फलां कम्पनी की महंगी दवा उपलब्ध करा दे...ये कहते हुए कि यही उसके लिए मुफीद है। ये सोचे बगैर की दवा उसकी सेहत के लिए सही हो ना हो लेकिन उसकी जेब के लिए सजा का सबब बन सकती है।
सो लबोलुआब ये है कि देश में जब प्रधानमंत्री जी का कैबिनेट नेक नियती से कानून गढ़े तो इन बारिकियों पर भी नजर रखे। ताकि बड़े डॉक्टर की मुनाफाखोरी से बचा बेचारा मरीज मुनाफाखोर बड़ी नामी गिरामी कम्पनी के फेर में ना पड़ जाए। इसके साथ ही जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता पर भी तवज्जो दी जाए। पिछले साल ही करीब 25 जेनेरिक दवायें गुणवत्ता की कसौटी पर नहीं खरी उतर पाईं। किसी का लेबल गलत था तो किसी की सामग्री में ही गड़बड़ी थी। किसी ठोस कानून को जब तक अमल में नहीं लाया जायेगा तब तक प्रधानमंत्री के शब्द महज भाषण बन कर रह जायेंगे।