हां, मैं आजाद नहीं!
किरण राय
गौरी लंकेश निर्भीक, साहसी और मुखर शख्सियत का नाम था। जिसने वही किया जो उसके दिलोदिमाग ने कहा, वही कहा जो पत्रकारिता के लिहाज से सही था और वहीं जिआ जिसमें खुद यकीन किया। फिलहाल यही बेबाकी, कट्टर हिंदूवादी सोच की मुखालफत उनकी हत्या की वजह बताई जा रही है। बेंगलुरू कि इस कन्नड़ टेबलॉयड की संपादक की मौत से हैरानी कम और कष्ट और गुस्सा ज्यादा आ रहा है। सवाल कौंध रहा है कि आखिर हम किस समाज में रह रहें हैं? क्या इस आजाद देश में हमें अपनी बात, अपने हिसाब से रखने की भी इजाजत नहीं! क्या हम अगर परम्पराओं से इतर बोलेंगे तो हमें गोलियों का सामना करना पड़ेगा? और क्या कलबुर्गी, पंसारे और लंकेश की हत्या कुछ दिनों की खबर बन कर रह जाएगी? क्या ये हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या नहीं है? सवाल जितना छोटा और सीधा है शायद जवाब उतना ही गंभीर।
रिपोर्टर्स विद्आउट बॉर्डर्स ने 2017 में ही एक रिपोर्ट वल्र्ड प्रेस फ्रीडम पर छापी है। 192 देशों की सूची में भारत का नम्बर 136 वां है। ये सूची देश में अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर जारी की गई है। तो क्या हमारे देश में सहिष्णुता खत्म होती जा रही है? क्या हम तुर्की, मेक्सिको या फिर यूक्रेन जैसे देशों की तरह बनते जा रहें है। जहां ना कानून का राज है, ना सरकार का वकत है और ना लोकतंत्र की कोई सुनने वाला है। जब देश के पूर्व उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी कहते हैं कि देश असहिष्णु हो रहा है...अल्पसंख्यक खुद को महफूज नहीं मान रहा है तो सड़क से लेकर संसद तक आलोचनाओं का दौर शुरू हो जाता है। गौरी ने भी वो किया जो लोकतांत्रिक था। देश के कानून को कभी हाथ में नहीं लिया बल्कि कलम से बड़े बड़ों की चूलें हिला दी। रोहिंग्या मुस्लमानों पर ज्यादती, नक्सवाद, फेक न्यूज, हिंदूत्ववादी कट्टरपंथ के खिलाफ बेलौस बोलती और लिखती रही। उनकी यही ढिठई शायद तथाकथित बड़े और हिंदूत्ववादियों को रास नहीं आई और उसकी कीमत ऐसे वसूली गई।
गौरी एक सच्ची पत्रकार रहीं। उनमें पत्रकारिता के सारे गुण थे जो अमूमन आज लुप्त होते जा रहें हैं। उन्हें पता था कि खबरों को कैसे सूंघा जाता है और उससे कैसे सत्तासीनों को जगाया जाता है। बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय भी गौरी ने साम्प्रदायिकता के खिलाफ बिगुल फूंका। समाज सुधारने का बिड़ा भी उठाया और बेंगलुरू में सर्वधर्म संभाव के लिए काम भी किया। उनके विरोधियों को ये तो याद रहा कि उन्होंने नक्सलवादियों के लिए काम किया लेकिन यह नहीं याद किया कि उनकी वजह से कईयों ने हथियार छोड़े और मुख्यधारा से भी जुड़े।
लंकेश की मौत दरअसल, इस देश में लोगों के सच को आत्मसात ना कर पाने का एक और उदाहरण है। लोग पत्रकारों की सच्चाई को सहन नहीं कर पा रहें हैं। इस फेहरिस्त में शाहजहांपुर के जगेन्द्र सिंह, खनन माफियाओं पर स्टोरी कर रहे युवा संदीप कोठारी, बिहार के सिवान के राजदेव रंजन जैसे कुछ नाम ऐसे हैं जो राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और उठापटक का निशाना बन गए। सच ये भी है कि हत्यारे भी जानते हैं कि पत्रकार को मारने के बाद उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर पाएगा। वो निडरता से काम करते हैं, जानते हैं कि बड़ों का शय उन्हें किसी भी दण्ड का अधिकारी नहीं बनाएगा और कानूनी पचड़ों से वो बेदाग निकल आयेंगे। इस और इशारा कई अंतर्राष्ट्रीय संगठन पहले भी कर चुके हैं। लंकेश की मौत से स्पष्ट है कि पत्रकारों और परम्पराओं को धत्ता बताने वालों के लिए अब हमारा देश असुरक्षित होता जा रहा है। सच्चाई कड़वी है और हर पत्रकार चाहें वो जिस माध्यम से जुड़ा हो वो आज शायद यही कह रहा है कि हां मैं आजाद नहीं।