'गोली, गाली नहीं' तो फिर 'काफिल' कैसे?
किरण राय
प्रधानमंत्री ने लालकिले की प्राचीर से आस्था की बात की। आस्था के नाम पर किसी के साथ अत्याचार ना करने की सीख साफ थी। तो फिर महज दो दिन पहले गोरखपुर में बच्चों की मौत पर प्रदेश की भाजपा सरकार द्वारा एक शख्स काफिल को लेकर चर्चा क्यों है? फिर क्यों धर्म के नाम पर राजनीति हो रही है और पीएम सीधे-सीधे बच्चों के सामूहिक कत्ल पर सांप्रदायिक रंग दिए जा रहे प्रयासों पर बोलने से बच गए। क्यों उनके अपने लोग पीएम की कही की धज्जियां उड़ा रहें हैं और वो विषयों को छूकर निकल जा रहें हैं।
काफिल अहमद खान दरअसल वो शख्स है जो बीआरडी मेडिकल कॉलेज में हो रही मौतों के दौरान अपनी कोशिशों को लेकर मीडिया में हीरो की तरह पेश किया जाने लगा। इस दौरान प्रदेश सरकार के मंत्रियों की तरफ से भी ऐसे बयान आने लगे जो संवेदनशीलता के लिहाज से बचकाने थे। इसी सबके बीच अचानक एक संप्रदाय विशेष से संबंध रखने वाले शख्स को नायक की तरह से प्रोजेक्ट किया जाना कुछ हिंदू चरमपंथियों को शायद अखर गया और फिर कट्टर सोच ने नायक को खलनायक बनाने की मुहिम तेज कर दी। दुष्प्रचार के दम पर मुद्दे को भटकाने का खेल चालू हो गया और कुछ हद तक कामयाबी भी मिल गई।
सूबे की योगी सरकार भी यही चाहती होगी। तभी वो अपनी ओर से हुई खामियों की लीपा-पोती के लिए खान नाम पर खामोश है। मौका और समय दोनों हाथ लग गया है। सोशल मीडिया पर खबरें धड़ाधड़ काफिल के चरित्र को दागदार बताने में जुटी हैं। सवाल उठता है कि अगर चारित्रिक दोष भी है तो क्या हमारे कई राजनेता दागदार नहीं हैं? खान पर ऑक्सीजन सिलेंडरों की चोरी का आरोप है। तो कहां है साक्ष्य? कहां है शिकायत पत्र? फिर क्या उन्हें मीडिया द्वारा हीरो बनाने के बाद अस्पताल की नींद टूटी? कट्टरता के वाहक तो ये भी कह रहें हैं कि योगी सरकार को फंसाने के लिए काफिल ने ही सारा खेल रचा। इसे हास्यास्पद ना कहें तो और क्या कहें?