आर्थिक नहीं बल्कि मामला 90 फीसदी राजनीतिक है
किरण राय
देश पर फिर एक चुनाव के बाद तेल की बढ़ी कीमतों की गाज गिर गई है। हाल के दिनों में ऐसा होना कोई अनोखी घटना नहीं है। पिछले एकाध साल से सूरते हाल कुछ ऐसे ही बने हैं। तेल का खेल हर सरकार के दौर में होता है। अंतर्राष्ट्रीय पॉलिटिक्स भी पेट्रोलियम उत्पादों के इर्द गिर्द ही घूमती है। शायद तभी तेल बाजार में कहा जाता है कि ऑयल इज़ 90 फ़ीसदी पॉलिटिक्स एंड 10 फ़ीसदी इकोनॉमी। यानी राजनीति इकोनॉमी पर हावी है। भले ही सरकारें कुछ भी कहें, दलील कोई भी दें।
क्या इसे संयोग माना जाए कि कर्नाटक चुनावों के लिए पड़े मतदान के 48 घण्टे भी नहीं बीते कि तेल कम्पनियों ने तेल के दामों में बड़ा इजाफा कर दिया। विपक्ष कितने दिनों से इस मसले को उठा रहा है लेकिन सरकार हमेशा अपना पल्ला झाड़ती रही है ये कह कर कि वो स्वायत्त तेल कंपनियों के मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। जो पॉलिटिक्स और इकोनॉमिक्स की बारिकियों को समझते बूझते हैं वो जानते हैं कि इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन, हिंदुस्तान पेट्रोलियम, भारत पेट्रोलियम जैसी कंपनियां कितनी स्वतंत्र हैं। ये बात इससे ज़ाहिर होती है कि जो चीज 19 दिनों से पहले लगातार बदल रही थी वो अचानक थम गई और 20वां दिन आते-आते 56 महीनों के रिकॉर्ड को तोड़ गई।
इस बढ़ोत्तरी ने जता दिया कि जो विपक्ष और जानकार लगातार कह रहे थे वो सही था। यकीनन कर्नाटक चुनाव को देखते हुए केंद्र सरकार के निर्देश पर तेल कंपनियों ने पेट्रोलियम की क़ीमतों को स्थिर रखा था और तीर कमान से निकलते ही अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की बढ़ी क़ीमतों का हवाला दे अपना काम कर दिया। संशय इसलिए भी पैदा होता है क्योंकि ये छुपी बात नहीं है कि जून, 2017 से तेल कंपनियों ने पेट्रोलियम की क़ीमतों को डायनमिक डेली रिवीज़न के तौर पर स्केल करना शुरू कर दिया है। इस नीति के तहत अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के मुताबिक पेट्रोल, डीज़ल के दाम रोज़ाना बदल जाते हैं, लेकिन हैरानी कि गुजरात-हिमाचल चुनावों के वक्त भी ऐसी स्थिरता और बाद में तेजी दिखी जो अब देखने को मिली है।
पहले डीजल का रेट स्थिर था लेकिन इस बार उसमें भी वृद्धि हुई है इसका सीधा मतलब है कि महंगाई बढ़ेगी। फल, सब्जी, डेरी जैसे रोजमर्रा के उपयोग में आने वाले सामानों के दाम बढ़ेंगे और एक बार फिर आम आदमी अच्छे दिन की उम्मीद में इकोनॉमिक्स और पॉलिटिक्स के जंजाल में उलझ कर रह जाएगा। कहने वाले इसे दुनिया भर का ट्रेंड मानते हैं। बताते हैं कि कैसे अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के दौरान भी वहां पेट्रोल सस्ता हो गया था और भारत में तो ऐसा हर सरकार के दौर में दिखा है, लेकिन इसे एक और संयोग कहेंगे कि जब 2002 में चुनावों से पहले का ये ट्रेंड शुरू हुआ तब भी भाजपा नीत अटल बिहारी वाजपेई की ही सरकार थी। अच्छा हो कि सरकार आम जनता की मजबूरी को समझे और इकोनॉमी और पॉलिटिक्स के मकड़जाल में उसे फंसाने की कोशिश ना करें।