भरोसा नहीं खुशफहमी वाला बजट
किरण राय
बजट देश के लिए होता है और उससे जुड़ी होती हैं आम आदमी की ढेर सारी उम्मीदें। और ऐसे वक्त में उम्मीदें कुछ ज्यादा ही होती हैं जब सरकार के चौथे साल का बजट जिसे चुनावी बजट कहते हैं हो। 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार का यह आखिरी पूर्ण बजट था। उम्मीद तो यही थी कि जब वित्त मंत्री अरुण जेटली संसद में बजट पेश करने के लिए खड़े होंगे और उनकी पोटली से जो बजट निकलेगा, लोग कहेंगे- वाह! क्या बजट है। चार साल के सारे गिले-शिकवे खत्म। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं।
बजट का सबसे लोकलुभावन पक्ष है देश के 45 से 50 करोड़ लोगों यानी 10 करोड़ परिवार को हर वर्ष 5 लाख रुपये तक का स्वास्थ्य बीमा देने का ऐलान। वह भी 2,000 करोड़ के फंड के साथ। सरकार की यह बात कितना भरोसा देता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, 50 करोड़ लोगों को बीमा योजना का लाभ देने के लिए सरकार को 60 हजार करोड़ से एक लाख करोड़ तक खर्चने होंगे। 2000 करोड़ से इस योजना की घोषणा देश के लोगों को गलत जानकारी देने जैसा है। दूसरी बात, देश के अधिकांश राज्यों में गरीब परिवारों के लिए इस तरह की बीमा योजना चलाई जा रही हैं और कई करोड़ लोग इसके दायरे में पहले से हैं। तो सरकार को यह बताना चाहिए था कि उन योजनाओं का क्या होगा। कहने का मतलब यह कि दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना की बजट भाषण में घोषणा नाम बड़े और दर्शन छोटे जैसा महसूस होता है।
मोदी सरकार जो बजट सामने आया उसमें कई लोक-लुभावन तत्व भले ही हों, लेकिन उसे पूरी तरह से चुनावी बजट भी नहीं कहा जा सकता। हालांकि बजट को आंकने और परखने का अपना-अपना नजरिया होता हैं लेकिन आम आदमी और मध्यम वर्ग के हिसाब से देखें तो उसके लिए बजट में कुछ खास नहीं है। खासकर नौकरी-पेशा वर्ग के लिए जो आयकर में राहत की आस लगाए बैठा था। वित्त मंत्री ने गरीब को राहत देने की तमाम योजनाएं गिनाई, लेकिन गरीब की मूल समस्या रोजगार अथवा धंधे की है, जिसे मेक इन इंडिया का ग्रहण लग गया है। उज्ज्वला योजना के अंतर्गत गरीबों को मुफ्त गैस सिलेंडर दिया गया, लेकिन साथ में गैस का दाम बढ़ा दिया गया। स्वयं सहायता समूहों को ऋण उपलब्ध कराया गया है, पर इस ऋण का उपयोग उत्पादन के कार्यों में कम ही हो रहा है। वजह उत्पादन मेक इन इंडिया की भेंट चढ़ गया है। जन-धन योजना से जितनी रकम बैंकों में जमा हुई उसकी लगभग तिहाई रकम ही ऋण के रूप में गरीबों को दी गई है। खाद्य सब्सिडी की कृपा से गरीब को सस्ता अनाज मिल रहा है पर इससे भी आमद की जो मूल समस्या है उसका हल नहीं होता दिख रहा है। कहने का मतलब यह कि वित्त मंत्री उस डॉक्टर की तरह दिखे जो मरीज की किडनी निकाल लेता है और उसे बादाम-काजू खाने को कहता है। गरीब का धंधा उन्होंने चौपट कर दिया है। अब सस्ता अनाज और मुफ्त शौचालय देने से वह दर्द समाप्त तो नहीं हो जाएगा।
वित्त मंत्री ने घोषणा की है कि प्रमुख फसलों का समर्थन मूल्य इस प्रकार निर्धारित किया जाएगा कि लागत से डेढ़ गुना कीमत किसान को मिले। यहां पेच लागत की गणना करने में है। लागत में लाभ जोड़कर समर्थन मूल्य पहले से निर्धारित किए जा रहे थे। आंकड़ों में किसान को लाभ हो ही रहा था। तब किसान आत्महत्या और उनके बच्चे पलायन क्यों कर रहे हैं। सच बात तो यह है कि सरकार द्वारा लागत की सही गणना नहीं की जा रही थी। इस गलत गणना पर लाभ की दर बढ़ाने से बात नहीं बनने वाली। वैश्विक स्तर पर खेती अब घाटे का सौदा हो गई है। वित्त मंत्री को इस सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए था। इसको लेकर नई सोच की जरूरत थी। नई नीति बनाने की जरूरत थी जिसका बजट में अभाव दिखा।
बजट में वित्त मंत्री को स्वीकार करना चाहिए था कि छोटे उद्योगों की उत्पादन लागत ज्यादा आती है। उनको जीवित रखना है तो बड़े उद्योगों पर टैक्स बढ़ाना होगा। वित्त मंत्री ने यह कदम नहीं उठाया है इसलिए छोटे उद्योग लगातार डूबते जाएंगे। छोटे बिल्डर, बिस्कुट निर्माता, पुस्तक प्रकाशक खत्म होते जा रहे हैं। इसके अलावा बैंक पुनर्पूंजीकरण पर होने वाले खर्च का बजट में कोई जिक्र नहीं है। पिछले साल 13.4 फीसदी रहने वाली सकल कर राजस्व वृद्धि के 16.7 फीसदी हो जाने का अनुमान है जो परेशान करने वाली बात है। निजीकरण की राह में उठाए जाने वाले कदमों की हालत तो और भी बुरी है। बहरहाल, ऊपर जिन-जिन बातों का उल्लेख किया गया वह तथ्यपरक हैं लेकिन आमतौर पर हाल के वर्षों तक जब हम बजट देखने टीवी खोलते थे या अगले दिन अखबार पलटते थे तो तीन बातों को लेकर उत्सुकता सबसे ज्यादा होती थी- पहला क्या सस्ता हुआ और क्या महंगा क्योंकि इसी से घर का बजट तय होता था। दूसरा बजट में टैक्स स्लैब में क्या बदलाव हुआ क्योंकि इससे नौकरीपेशा लोग यह तय करते थे कि हम टैक्स के दायरे में तो नहीं आ रहे और अगर आ रहे हैं तो इसे कैसे बचाया जाए। और तीसरा रेलवे बजट के तहत यात्री किराया, नई ट्रेनें और पहले से चल रहीं ट्रेनों के फेरे से संबंधित जानकारियां। इस बार के बजट में यह सब टीवी के परदे पर ना के बराबर दिखा। हां, अखबारों वालों ने जरूर थोड़ी मेहनत कर सस्ता-सस्ता जैसी चीजें प्रकाशित की गईं।