परिपक्वता और स्पष्टता की कमी से जूझती संसद
किरण राय
संसद में पिछले एक दशक से बहस का अंदाज देखकर लगता है मानो लोकतंत्र का ये मंदिर sense of maturity और sense of Clarity से दूर होता जा रहा है। पंडित नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, अंबेडकर, अटल जैसे ज्ञानी, परिपक्व और संवेदनशील शख्सियतों की कमी साफ खल रही है। छोटे परदे पर हम वो बहस देखते हैं जिसका ना तो कोई नतीजा होता है और ना देश की किस्मत बदलने का जज्बा दिखता है। दिखता है कि कैसे संसद की कार्यवाही हंगामें की भेंट चढ़ रही है, कैसे एक नेता दूसरे पर तंज कस कर नम्बर बढ़ाने की होड़ में लगा है और कैसे फब्तियों से बढ़ते-बढ़ते नौबत कागज-तख्तियां फेंकने तक बढ़ जाती हैं।
सवाल ये है कि हम आगे वाली नस्ल को क्या देकर जा रहें हैं? क्या हम उन्हें सीखाना चाह रहें हैं कि झूठ बोलकर...सच से कोसों दूर रहकर, अपनी बात को बिना किसी प्रमाण के सच साबित करने की जबरन कोशिश ही उन्हें लाइमलाइट या चर्चा के केन्द्र में ला सकती है। चाहें सत्ता पक्ष हो या विपक्ष कोई किसी के बयान को नीचे गिरने नहीं देता। बस एक दूसरे पर तंजों का वार और बेबुनियाद मु्द्दे इन्हीं के दम पर द ग्रेट इंडिया पोलिटिकल ड्रामा पेश किया जा रहा है। हद तो तब होती है जब संसद से बाहर दिए गए बयान का जवाब देने का अनूठा तरीका इख्तियार कर लिया जाता है। जाते-जाते हामिद अंसारी ने एक चैनल से अपने मान की बात कही...बात अच्छी और बुरी लग सकती है, लेकिन क्या अंसारी को हमारे प्रधानमंत्री का उस अंदाज में जवाब देना जरूरी था जैसे दिया गया। क्या अपरोक्ष तौर पर उन्हें निशाना नहीं बनाया गया? क्या ये तरीका ही पूर्व उप राष्ट्रपति के सवालों को जायज नहीं ठहराता है? अच्छा होता इस पर सार्थक बहस होती।
एक दिन भी नहीं गुजरा नए उप राष्ट्रपति पद पर आसीन हुए। उनके स्वागत में हमारे प्रधानमंत्री ने फिर आम और खास की बात छेड़ दी। इसे छेड़ने की जरूरत क्या और क्यों थी इसे वो बेहतर बता सकते हैं। लेकिन फिर जवाब के लिए तैयार रहने की बारी भी आई और कांग्रेस के गुलाम नबी ने छूटते ही अमीरों की कुर्बानी याद दिला दी। मौका था संवैधानिक पद पर शोभायमान व्यक्ति की प्रशंसा का लेकिन फिर इसे तंजबाजी का अखाड़ा बना दिया गया। हमारी संसद में सिर्फ ये ही नहीं होता बल्कि कई बार ऐसे झूठे आंकड़े पेश किए जाते हैं जो हैरान करने वाले होते हैं। वेमुला केस में ऐसा देखने को मिला है। तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री का सिंहनाद और ललकार भला कौन भूल सकता है।
भाषाई स्तर की सीमायें बार-बार और कई बार लांघी जा रहीं हैं। लेकिन किसी को इसकी चिंता नहीं कि आजादी के 70वें साल में हम इस तरह अपने वीर सपूतों का बार-बार अपमान कर रहें हैं। सार्थक बहस के लिए चिंतनशील होना जरूरी है महज उपहास उड़ा कर कुछ हासिल नहीं किया जा सकता है।