नहीं चला लिंगायत दांव
किरण राय
कांग्रेस एक और राज्य में हार गई। भारतीय जनता पार्टी ने फिर साबित कर दिया कि आज की तारीख में वो राजनीतिक कौशल में कांग्रेस से काफी आगे है। कर्नाटक में सत्ताधारी पार्टी ने हर वो पैंतरा आजमाया जो उसे बीस साबित करे लेकिन आखिरकार नतीजा भाजपा के पक्ष में गया। सवाल उठ रहें हैं कि आखिर कांग्रेस से चूक कहां हो गई? जवाब कई हैं। सिद्धारमैया ने ऐन मौके पर लिंगायत नाम का दांव चला। विश्लेषक भी मानते रहे कि ये अचूक अस्त्र है जिससे कांग्रेस को फायदा दिलाएगा। लेकिन नतीजों ने उस सोच को भोथरा कर दिया। दरअसल, लिंगायत के चक्कर में कांग्रेस ने अपना पारम्परिक वोटर भी खो दिया। वो जो वोकालिंगा समाज से आता था, जो दलित था और जो मुस्लमान था।
कांग्रेस को लगा कि 17 फीसदी लिंगायत उसके साथ जाएगा। यहीं पर कांग्रेस गलती कर बैठी। भाजपा बॉम्बे कर्नाटक और मध्य कर्नाटक में लिंगायतों का भरोसा जीतने में कामयाब रही। बॉम्बे कर्नाटक में भगवा पार्टी ने 50 में से 30 पर कब्जा जमाया। यहां कांग्रेस को ये 31 से 17 पर ले आई। मध्य कर्नाटक में भी ऐसा ही दिखा। यहां भाजपा 36 में से 15 सीटें जीतने में कामयाब रही, तो कांग्रेस जहां 2013 में 19 सीटें जीती थी उससे 13 पर आ गई। हैदाराबाद कर्नाटक में भी भाजपा के खाते में 15 सीट गई। हालांकि यहां कांग्रेस 40 में से 21 लिंगायत सीटें जीतने में कामयाब रही, लेकिन नुकसान पहले के मुकाबले ज्यादा हुआ। ये आंकड़े ही कांग्रेस की चूक के गवाह हैं। इन नतीजों ने कांग्रेस के लिंगायत कार्ड को और कुंद किया, जब सिद्धारमैया मंत्रिमण्डल के 4 अहम मंत्रियों (जिन्होंने लिंगायत आंदोलन को धार देने में अहम भूमिका निभाई थी) में से 3 को मुंह की खानी पड़ी। विनय कुलकर्णी, बासवराज रायराड्डी और शरण प्रकाश पाटिल बुरी तरह से हार गए। इस चौकड़ी से महज एक सदस्य यानी एमबी पाटिल अपनी सीट बचाने में सफल रहे। वैसे ऐसा नहीं है कि कांग्रेस इन सीटों पर अपना परचम लहराने को लेकर आशवस्त थी। भीतरखाने लोग मान रहे थे कि करीब 5 फीसदी वोट इनकी तरफ स्विंग होगा, लेकिन परिणाम सोच से परे ही आया।
अब बात वोकालिंग्गा समुदाय की। जिसने शायद सिद्धारमैया के उस वकतव्य को गंभीरता से लिया जिसमें उन्होंने इस समाज के दिग्गज नेता और देश के पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा को लेकर कहा था कि उनका मुख्यमंत्री बनने का सपना कभी पूरा नहीं होगा। इससे आगे बढ़ सिद्धारमैया ने कहा था कि देवेगौड़ा के नाम के आगे लगा B उन्हें भाजपा की बी टीम बनाता है तो S उन्हें संघ परिवार से वाबस्ता करता है। जानकार मान रहें हैं कि वोकलिंगा समाज सिद्धारमैया द्वारा देवेगौड़ा की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर पाया और जनता ने अपनी नाराजगी जता दी। यही वजह है कि वो अपनी चामुंडेश्वरी सीट से 26,042 वोटों से हार गए। दूसरी ओर जनता को ये भी लगा कि लिंगायत के चक्कर में कांग्रेस दलित और मुस्लिम समाज को भी खास तवज्जो नहीं दे रही है।
इसके साथ ही कांग्रेस की चुनावी मशीनरी की विफलता एक बार फिर सामने आई है। वो समझ नहीं पाए कि उनका प्रतिरोधी किस तरह शतरंज की बिसात पर गोटियां अपने हिसाब से बैठा रहा है। नहीं समझ पाए कि गुंजाइश के आधार पर- कांग्रेस और जेडीएस के प्रभाव वाले क्षेत्र में वो जेडीएस की खातिर कमजोर उम्मीदवार खड़े कर रहा है। नहीं जान पाए कि भाजपा परदे के पीछे से जेडीएस की मदद सिर्फ कांग्रेस के वोट काटने के लिए ही कर रही है। राज्य में कांग्रेस की सत्ता थी फिर भी देश के अन्य राज्यों से सीख नहीं ली गई और कैडर को मजबूत करने की ओर शायद ध्यान ही नहीं दिया गया। एक बार फिर प्रबंधन के मामले में वो फिसड्डी साबित हुआ। पार्टी में एकजुटता तभी दिखी जब-जब राहुल गांधी कर्नाटक में दिखे। यानी अब महज तीन राज्यों तक सिमटी कांग्रेस पार्टी के लिए समय आ गया है कि वो खुद को संभाले और अति आत्मविश्वास की अपेक्षा समझदारी से चुनावी रण में उतरे, नहीं तो कांग्रेस मुक्त भारत की कल्पना सच साबित होने में वक्त नहीं लगेगा।