राहुल की कांग्रेस के लिए जनादेश के मायने
किरण राय
याद करें, ठीक एक साल पहले 11 दिसंबर 2017 को राहुल गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभाली थी। तब किसी ने ऐसी अपेक्षा ऩहीं की थी कि एक साल के छोटे से कार्यकाल में विरोधियों के तंज का शिकार होने वाले इस शख्स को लोग बांहें फैलाकर इस तरह से स्वीकार करेंगे। निश्चित रूप से ठीक एक साल बाद राहुल गांधी विपक्ष के सबसे कद्दावर नेता बनकर उभरे हैं। साथ ही भाजपा नेतृत्व के लिए बड़ी चुनौती बनकर भी उभरे हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ भाजपा के तीन ऐसे किले थे जिसको लेकर कहा तो जा रहा था कि एंटी इकम्बैंसी अपना रंग दिखाएगा लेकिन इस तरह! इसका अंदाजा कई राजनीतिक दलों को भी नहीं था। वजह अनगिनत थी। सबके सामने गुजरात का उदाहरण था जहां कांग्रेस चारों खाने चित्त हो गई थी। लेकिन हिन्दी पट्टी में लोगों का मोह साफतौर पर भंग होता दिख रहा था। महागठंबधन में रहते हुए भी कांग्रेस को खास तवज्जो नहीं मिल रही थी जिसका उदाहरण मध्य प्रदेश में सीटों को लेकर बसपा का अड़ियल रवैया के रूप में सामने आया था। उस वक्त बसपा ने साफ तौर पर संदेश दिया था कि सीटों का बंटवारा अगर उसके हिसाब से नहीं होगा तो वो साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ेगी। कांग्रेस ने बसपा की शर्तें नहीं मानीं और गठबंधन नहीं हुआ। लोग सशंकित थे। लेकिन 3-0 से किला फतह करने के साथ यकीनी तौर पर कांग्रेस में नई ऊर्जा का संचार होता दिख रहा है।
2014 के आम चुनावों में कांग्रेस 44 पर सिमट गई थी। कांग्रेस मुक्त भारत का नारा बुलंद होता दिख रहा था। राहुल गांधी को गंभीर नेता नहीं माना जा रहा था। बड़े राष्ट्रीय दल को क्षेत्रीय दल भी आंखें दिखाने लग गए थे। ऐसी विकट परिस्थिति में कांग्रेस की कमान पिछले साल जब राहुल के हाथों में सौंपी गई थी तब भी भाजपा के तीरंदाज नेताओं ने इशारों-इशारों में खूब मजाक उड़ाया था। लेकिन उसके बाद राहुल गांधी ने पार्टी के थिंक टैंक के साथ बैठकर पार्टी की हर गतिविधि पर नजर रखनी शुरू की। पार्टी में नए और पुराने चेहरों को एक साथ लेकर चलने का मंत्र फूंका, जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं तक अपनी पहुंच बनाई और नतीजा देश के सामने है। यूं कहा जाए कि ये जनादेश, राहुल की कांग्रेस के लिए है तो गलत नहीं होगा। राहुल की चाहें जितनी भी आलोचना उनके विरोधी करें, लेकिन एक बात माननी पड़ेगी कि उन्होंने हमेशा जन सरोकार की ही बातें की। राज्य विशेष की नीतियों पर प्रहार किया और लोगों के सामने समस्या का विकल्प भी रखा। चुनाव व्यक्ति विशेष पर ना लड़कर मुद्दों के आधार पर लड़ा। जनादेश 2018 यह दिखा रहा है कि राजनैतिक कौशल का संचार राहुल में अब हो चला है।
पांच राज्यों के चुनावी नतीजों से यकीनन भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी दोनों का वजूद बढ़ा है। पार्टी की जिम्मेदारियों में भी इजाफा हुआ है। 2019 की बिसात बिछ चुकी है और राहुल गांधी को सामने खड़े मोदी, शाह और भाजपा के साथ-साथ महागठबंधन की राजनीति और उसमें शामिल दलों व नेताओं की हर चाल को समझ-बूझकर चलने के लिए तैयार रहना होगा। सबसे पहले उन्हें बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से साफ हो चुकी कांग्रेस को पुनर्जीवित करना होगा और भाजपा विरोधी दलों को एक मंच पर खड़ा करना होगा। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में ऐसा करने में राहुल अगर कामयाब रहे तो यकीनन उनका कद और बढ़ेगा और नरेन्द्र मोदी के समकक्ष उनकी हैसियत को लोग गंभीरता से देखेंगे।