मुलायम vs अखिलेश, आखिर कब तक?
किरण राय
समाजवादी पार्टी में पारिवारिक कलह की आग से जब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी झुलसने लगे तो हमेशा से पिता मुलायम के हर फैसले को मानने वाले सुल्तान (अखिलेश) ने अपनी ताकत का अहसास कराकर जता दिया कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनकी स्वतंत्र सत्ता है और इसमें जनता, समाजवादी पार्टी और सरकार तीनों का समर्थन हासिल है। बड़ा सवाल यह है कि एक ही पार्टी के तले पिता-पुत्र के बीच इस तरह का शक्ति परीक्षण कब तक चलता रहेगा?
अखिलेश ने शनिवार को विधायकों की बैठक बुलाकर शक्ति परीक्षण में यह साबित कर दिया कि सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की हैसियत से मुलायम सिंह यादव भले ही अखिलेश को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दें, लेकिन पार्टी उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं है। जाहिर है यह तभी संभव है जब किसी नेता का कद पार्टी से बड़ा हो जाए। फिलहाल, समाजवादी पार्टी के दो-फाड़ होने का संकट टल गया है और मुलायम तथा उनके भाई शिवपाल ने भी यह मानकर अखिलेश और रामगोपाल यादव का पार्टी से निष्कासन वापस ले लिया कि बहुमत और जनमत दोनों अखिलेश के ही साथ है।
दरअसल, मुलायम सिंह यादव 21वीं सदी के समाजवाद और बदलते वक्त में राजनीतिक के गुणा-भाग को अभी भी लाठी के बल पर ही चलाना चाहते हैं। भाई-प्रेम और अमर-प्रेम मुलायम के जीवन में इतना गहरे तक समाया हुआ है कि पुत्र अखिलेश को भी बलि चढ़ाने से नहीं चूकते। रामगोपाल तो चचेरे भाई ठहरे। उन्हें तो इससे पहले भी पार्टी से निकाल चुके हैं और फिर अखिलेश के वीटो पावर से निष्कासन रद्द हुआ। करीब 77 साल के मुलायम सिंह यादव अब खुद के दिमाग से राजनीतिक दांव को सुलझाने में समर्थ नहीं हैं और इसी का फायदा उठाकर शिवपाल और अमर सिंह जैसे लोग उन्हें वो पहाड़ा घोंटकर पिला देते हैं जिससे पारिवारिक कलह के साथ-साथ समाजवादी पार्टी का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है।
हालांकि चुनावी गपशप के दौरान यह बात भी निकलकर आ रही है कि विधानसभा चुनाव से ठीक पहले शुरू हुआ समाजवादी पार्टी के पारिवारिक ड्रामे की पटकथा मुलायम और अखिलेश ने मिलकर लिखी है। इसमें सब कुछ फिक्स है। अगर ऐसा नहीं है तो ऐसा कैसे हो जाता है कि मुलायम की जब मर्जी होती है कभी रामगोपाल को पार्टी से निकाल दिया, कभी बेटा अखिलेश जो देश के सबसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री है को पार्टी से निकाल दिया। मर्जी हुई अमर को पार्टी से निकाल दिया फिर चुनाव आने से पहले वापस लाकर राज्यसभा भेज दिया। कहने का मतलब यह कि इतनी बड़ी पार्टी को पिता-पुत्र ने मिलकर घर की पार्टी बना रखी है और जब पार्टी की साख पर संकट गहराता है, जब सरकार को बदनामी झेलनी पड़ती है तो इस तरह की नौटंकी को अंजाम दे दिया जाता है ताकि लोगों का ध्यान असल मुद्दे से भटक जाए।
इसलिए, समाजवादी पार्टी का संकट अगर वाकई नौटंकी है और सब कुछ फिक्स है तो यह प्रदेश की जनता और सपा के लाखों कार्यकर्ताओं से बड़ा धोखा है। विपक्ष में बैठी राजनीतिक पार्टी की भी जनता के प्रति जिम्मेदारी होती है। आप तो सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी हैं। आपकी तो बड़ी जिम्मेदारी है। चुनाव की अधिसूचना दो-चार दिनों में जारी होने वाली है। यह वक्त था अधिसूचना से पहले जनता को जो कुछ चार साल में नहीं मिला उसे अंतिम समय में डिलीवर करने का, कार्यकर्ताओं के चुनाव में जुटने का तो लगे नौटंकी करने। और अगर यह सब नौटंकी नहीं है, वाकई किसी चांडाल चौकरी से घिरे मुलायम का वश नहीं चल रहा है तो फिर वह राजनीति से संन्यास ले लें या लालकृष्ण आडवाणी की तरह पार्टी के मार्गदर्शक मंडल में शांति से बैठें। सूबे की जनता और सपा के कार्यकर्ताओं से इस तरह का खिलवाड़ करने का हक न तो मुलायम को है और न ही अखिलेश को।