विकास नहीं अब छेड़ा जाएगा राष्ट्रवाद और आतंकवाद का राग
किरण राय
गुजरात विधानसभा चुनावों से पहले मुद्दे जुटाने और उन्हें क्रियेट करने की होड़ सी लग गई है। मुकाबला जाहिर है दो राष्ट्रीय पार्टियों में है। तो जुबानी हमले की जद में भी बड़े राष्ट्रीय लीडर आ रहें हैं। अहमद पटेल इसका ताजा उदाहरण हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार के तौर पर पहचाने जाते हैं। इन पर आरोप है कि ये उस अस्पताल के ट्रस्टी हैं जिसने दो आतंकियों को पनाह दी। अब इस बात में कितनी सच्चाई है ये जांच का विषय हो सकता है लेकिन घटनाक्रम बता रहा है कि दोनों पार्टियां मुद्दे से भटकाव की कोशिश में तल्लीनता से रम गई हैं। गुजरात में जीएसटी, डिमोनेटाइजेशन और विकास पर बहस से इतर बात अब राष्ट्रवाद और आतंकवाद पर होने लगी है। क्या एक बार फिर हम अहम मसलों से नजर चुराते राजनीतिज्ञों को बैटिंग करते देखेंगे? क्या फिर गरीबी, सूखा, बाढ़ जैसे मुद्दे गौण हो जायेंगे? और क्या भावनाओं की लहरों पर चलकर बात बनाई जाएगी?
हाल के राज्यसभा सीटों के लिए जिस तरह शह-मात का खेल चला उससे अंदाजा लग चुका था कि अब दोनों ओर के तेवर पहले से ज्यादा तीव्र और तल्ख होंगे। जिस तरह गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी ने आतंक संबंधों को लेकर पटेल को घेरा और उसके बाद अस्पताल और कांग्रेस की ओर से सफाई आई उससे एहसास हो रहा है कि धार को मोड़ने की कवायद शुरू हो गई है। निजी और व्यक्तिगत हमले, तंजों की बौछार, सोशल मीडिया पर eye catching हैशटैग वाली राजनीति होगी लेकिन नीतियों पर गंभीर चर्चा या विमर्श से फिर देश वंचित रह जाएगा।
कांग्रेस भी जानती है और भाजपा कि गुजरात का बड़ा मुस्लिम चेहरा हैं अहमद पटेल इसलिए इन पर राजनीति करना आसान भी है और मुश्किल भी। शायद इसलिए रुपाणी इसे राजनीतिक रंग ना दिए जाने की गुजारिश कर रहें हैं और इसे गुजरात चुनावों से जोड़कर ना देखने की सलाह भी दे रहें हैं, लेकिन फिर समझ से परे है कि सोशल मीडिया पर क्या कांग्रेस आतंकियों के साथ है या फिर हैशटैग- कांग्रेस विद टेररिस्ट क्यों चलाया जा रहा है? वहीं कांग्रेस भी मुस्लिम दिग्गज को जानबूझकर टारगेट करने का ढिंढोरा पीट रही है। कह रही है कि पटेल तो हैं ही शाह के टारगेट नम्बर वन। स्पष्ट है कि भावनाओं का सौदा फिर किया जाएगा और दुखद है कि देश इसके लिए तैयार भी है।