एक प्रत्याशी, एक सीट !
किरण राय
भारतीय निर्वाचन आयोग चाहता है कि चुनावों के दौरान प्रत्याशी दो जगह से किस्मत ना आजमायें। निस्संदेह पहल और सोच अच्छी है। इससे कईयों को मौका भी मिलेगा और कईयों के मौके हाथ से भी निकलेंगे, जो दो नाव की सवारी करना अपना अधिकार मानते रहें हैं। इसके लिए EC ने केन्द्र की सरकार को सिफारिश भी भेजी है। सवाल वही- क्या सरकार तैयार होगी?
जनप्रतिनिधित्व कानून यानी रिप्रेजेंटेटिव ऑफ पिपुल एक्ट 1951 के मुताबिक कोई भी प्रत्याशी देश में किसी भी दो जगहों से भाग्य आजमा सकता है। इसमें ही संशोधन की बात कही जा रही है। ईसी का कहना है कि अगर प्रत्याशी दोनों जगह से जीतता है और एक सीट को छोड़ता है। जिसके बाद उप-चुनाव की नौबत आती है तो ऐसी दशा में उसे राज्य के खजाने में ठीक-ठाक रकम जमा करने को कहा जाये। अब आयोग की सिफारिश और सलाह तो भली है लेकिन हमारे देश के ऐसे कई कद्दावर हैं जो इसी बल पर अपनी राजनीति चमकाते हैं। एक जगह से बात नहीं बनती तो दूसरी जगह से किस्मत आजमा लेते हैं। किस्मत साथ भी देती है, जीतते हैं और फिर हमारी जेबों पर अप्रत्यक्ष तौर पर उप-चुनाव का भार भी बढ़ा देते हैं।
पीएम से लेकर सांसद तक कई इसी एक्ट के सहारे अपनी साख बना और बचा रहें हैं। इस फेहरिस्त में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, समाजवादी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी शामिल हैं। ये तो भला हो चुनाव आयोग का कि 1996 में दो सीटों की सीमा उसने तजवीज की और सरकार ने उसे मान लिया। नहीं तो इससे पहले तेलुगुदेशम के एनटी रामाराव तो विधानसभा चुनावों में चार सीटों से भाग्य आजमाते थे।
कई राजनीतिक जानकार इस प्रक्रिया पर सवाल उठाते रहें हैं। ज्यादातर का मानना है कि ये राजनीतिज्ञों को अपने अधिकारों के दुरुपयोग के लिए प्रेरित करता है। सही भी है आखिर एक राजनितिज्ञ एक सीट से हार कर दूसरी सीट से जीतता भी है तो राजनीतिक जोखिम जैसा तो कुछ भी वो वहन नहीं करता। इतने बरसों से जो कुछ हुआ है, उसे देखकर तो यही लगता है कि इससे जिसके वो प्रतिनिधि हैं उनका तो कुछ खास लाभ नहीं होता।
सवाल उठता है कि क्या ये सरकारी खजाने को कंगाल करने जैसा नहीं है? फिर जनता भी तो उस प्रक्रिया में जबरन धकेल दी जाती है जिसे उप-चुनाव कहते हैं। उसके साथ भी तो धोखा होता है, जिसे वो चुनती है पता चलता है कि उसके कारण वो एक दूसरे चुनाव की भट्टी में धकेल दी जाती है।
आयोग की कोशिश अच्छी है। ऐसा उसने पहले भी 2010 में किया है लेकिन संघीय सरकार ने उसे नकार दिया। नकारने की वजह भी है क्योंकि चुनाव के दौरान कोई भी पार्टी अपने लोकप्रिय नेता के बल पर नईया पार लगाना चाहती है। वो जानती है कि किस सीट पर किसका क्या असर होगा, इसलिए दांव लगता है और उन्हें वो हासिल होता है जो उनकी साख और इज्जत को बरकरार रखता है।
भला ऐसे में सरकार और विभिन्न पार्टियां जो एक दूसरे की बाल की खाल उधेड़ने में जुटी रहती हैं, कैसे EC के पक्ष में खड़ी होंगी? क्योंकि यहां सवाल देश का नहीं, जनता का नहीं, सरकारी खजाने का नहीं बल्कि अपनी पार्टी के सम्मान और साख का है। सवाल ये भी कि जब 'एक व्यक्ति एक वोट' की बात की जाती है तो क्यों ना 'एक नेता एक सीट' (निर्वाचन क्षेत्र) की बात की जाए?