रेप के लिए समाज नहीं, राजनीति है जिम्मेदार
किरण राय
एक आठ साल की मासूम थी तो दूसरी 17 साल की किशोरी। दोनों के साथ घिनौना अपराध हुआ। मामला रसूखदारों का था सो असर होने में वक्त लगा। कश्मीर का कठुआ हो या फिर उत्तर प्रदेश का उन्नाव, आम आदमी की तकलीफ एक सी दिखी। राजनीति के खिलाड़ियों ने पूरी कोशिश की गेंद को अपने हिसाब से खेलने की और क्रम अब भी जारी है। जानकार और विशेषज्ञ इस स्थिति के लिए हमारी वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को दोषी ठहरा रहें हैं। लोगों की मानसिकता को घिनौने अपराध का कारण माना जा रहा है। लेकिन ध्यान से देखें और वस्तु स्थिति को समझें तो पायेंगे कि दरअसल, ये समाज का नहीं बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति का गिरता स्तर है जो ऐसे अपराधों पर नकेल नहीं कस पा रहा है। इन दोनों मामलों में भी पदासीन जिम्मेदारों की टिप्पणी काफी शोर शराबे और हल्ले के बाद आई। यानी समय पर चुप रहना और मौके की ताक में रहकर प्रतिक्रिया देना हमारी राजनीतिक बिरादरी की आदत बन गई है और वही ऐसी मानसिकता वालों की मददगार हो रही है। ऐसे मामले सामने आते भी हैं तो राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो जाता है। केस की गंभीरता को खत्म करने की अजीब सी साजिश की बू आने लगती है।
2012 के निर्भया कांड के बाद लगा था बहुत कुछ बदलेगा। बदला भी... तत्कालीन सरकार की फजीहत हुई। सत्तासीन पार्टी का सफाया हो गया। तब उनकी प्रतिक्रिया धीमी थी अब इनका रवैया उदासी भरा है। निर्भया कोष बना, फास्ट ट्रैक कोर्ट से दोषियों को सजा देने का दबाव बढ़ा। पूरा देश एक मंच पर आ गया। लेकिन आज छह साल बाद भी क्या हम बदले, क्या उस समय जो कुर्सी पर नहीं थे उन्होंने राजनीतिक रोटी सेंकनी बंद की? यकीनन नहीं। क्योंकि अगर सीख लेते तो 17 साल की किशोरी से एक विधायक जोर जबरदस्ती ना करता और एक सबक सीखाने के लिए एक बच्ची की बलि ना चढ़ाई जाती। उन्नाव मामले में सबसे ज्यादा कष्टदायक हमारे कानून निर्माताओं की हीलाहवाली रही। जिन्होंने आत्मदाह की कोशिश करने और पिता की मौत के बाद भी आरोपी विधायक को आरोपी मानने से लगातार इनकार किया। इस इनकार की ही वजह से पुलिस प्रशासन और चिकित्सक भी सही तरीके से अपने काम को अंजाम नहीं देते हैं।
कठुआ मामले में दो मंत्रियों को गैर जिम्मेदाराना रवैये और भड़काऊ रैली निकालने के आरोप में अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी। हैरानी की बात ये है कि कथित तौर पर हिन्दू धर्म स्थल पर एक मासूम बच्चे के साथ हुई हैवानियत में शामिल हैवानों को ये लोग बचाने की कोशिश में जुटे थे। मसले को सांप्रदायिक रंग देने में लगे थे। मीडिया और आम लोगों ने जब खुलकर, सड़क पर निकल धर्म जाति से ऊपर उठकर शोर मचाया तब जाकर इनके खिलाफ खुद पार्टी ने कदम उठाने की जहमत उठाई। इससे भी ज्यादा हैरानी करने वाला बयान प्रकाश जावड़ेकर का रहा। जिन्होंने इशारों-इशारों में अपनी पार्टी की पीठ थपथपाई और कांग्रेस को अपने गिरेबां में झांकने की नसीहत दे डाली। यानी कुल मिलाकर बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ का नारा देने वाले रेप जैसे मामलों में भी कोई सख्त कारगर कदम उठाने की बनिस्बत एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में लग गए हैं।
हम जिनके ऊपर भरोसा करते हैं, जिन्हें लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर तक पहुंचा कर देश और समाज का नसीब उनके हवाले कर देते हैं- जब वही देश में एक के बाद एक सिर उठा रहे रेप अपराधों को लेकर चुप्पी साध लेते हैं तो राजनीतिक इच्छाशक्ति पर सवाल खड़े करना लाजिमी हो जाता है। कितना शर्मनाक है कि धर्म के नाम पर एक मासूम के साथ दरिंदगी की जाती है तो उसे राइट बनाम लेफ्ट के चश्मे से देखा जाने लगता है। कोई सवाल नहीं पूछता कि क्या बच्चे का कोई धर्म होता है? दरअसल हमारे प्रतिनिधि कुछ करने में नहीं बल्कि भावनात्मक भाषण देने में माहिर होते जा रहें हैं। वो भी मौके की नजाकत को समझ बूझ कर...हाल ही में जिस तरह से खामोशी बरती जा रही है उसका सबब आगामी आम चुनाव हो सकते हैं। जहां वोट की खातिर ध्रुवीकरण को जरिया अकसर बनाया जाता है और इस बार भी कुछ ऐसा ही करने की कोशिश हो रही है। अच्छा हो कि समय रहते दोषारोपण की राजनीति से ये लोग किनारा करें और लोगों को बरगलाना बंद करें। समझ लें कि बेटियों की सुरक्षा को महज जुमले में ना समेटें और महज आंकड़ों की जुबानी उनकी कहानी ना सुनाएं, बल्कि राष्ट्रहित में कुछ कठोर और निर्णायक कदम उठायें ताकि बेटियां शान से बढ़ें भी और पढ़ें भी।