महंगाई का मुद्दा फिर हाशिये पर
किरण राय
बीते एक महीने के आंकड़ों पर गौर करें तो चीनी, आटा, गेहूं, ब्रेड से लेकर छोले, मूंगफली और चॉकलेट तक सभी चीजें महंगी हो गई हैं। चीनी के दाम में बीते एक सप्ताह में करीब 200 रुपये प्रति कुंतल की बढ़ोतरी हुई है। थोक बाजार में 2010 के बाद पहली बार चीनी के दामों ने 4,000 रुपये प्रति कुंतल की बाधा लांघ दी है। इस समय चीनी का अधिकतम खुदरा मूल्य 49 रुपये और न्यूनतम 36 रुपये प्रति किलोग्राम है। आटे की कीमतों का भी कुछ यही हाल है। दाल अभी भी आम आदमी की थाली से दूरी बनाए हुए है। आम बजट के बाद भी कुछ चीजों के दाम बढ़े हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के चुनाव में महंगाई कोई मुद्दा नहीं है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले चरण में वेस्ट की 73 सीटों पर मतदान के दिन तक नेता जात-पांत, सांप्रदायिक मुद्दे और स्थानीय मुद्दों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते दिखे।
विपक्षी पार्टियों से आप सवाल करेंगे तो वह सत्ताधारी पार्टी पर निशाना साधता है। दूसरी तरफ केंद्र की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी कह रही है कि यूपीए सरकार के मुकाबले महंगाई कम हुई है। बड़ा सवाल यह है कि किसी भी पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में महंगाई को मुद्दा नहीं बनाया है। कहने का मतलब यह कि बढ़ती महंगाई का मुद्दा धीरे-धीरे राजनीति के परिदृश्य से गायब हो चला है।
याद कीजिए 2014 के लोकसभा चुनाव को जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी यूपीए सरकार में महंगाई को मुद्दा बनाकर यह कहते नहीं थकते थे कि 'मोदी सरकार आई महंगाई गई'। भाजपा ने इस मुद्दे पर जनभावनाओं को भुनाया और जब देश में बहुमत की सरकार बन गई तो उसके बाद सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी जैसे मुद्दों में उलझाकर आम आदमी की जिन्दगी को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले महंगाई के मुद्दे को नेपथ्य के हवाले कर दिया।
दरअसल 6-7 दशक की राजनीतिक अनुभवों ने देश के राजनीतिज्ञों को यह समझा दिया है कि चुनाव मुद्दों से नहीं बल्कि समीकरणों से जीता जाता है। यह समीकरण गठबंधन की राजनीति के चलते दलीय भी हो सकता है और जातिगत भी। हर दल सस्ते और भावुकतापूर्ण नारों के साथ इसी समीकरण को धार देने में जुटा रहता है। इसलिए मुद्दे उभरते हैं अथवा उभारे जाते हैं लेकिन समय के साथ उन्हें नेपथ्य में जाते भी देर नहीं लगती है।
बड़ा सवाल यह कि आखिर देश का आम मतदाता कब ईवीएम की बटन दबाने के पहले खुद की जिन्दगी के बारे में सोचेगा? क्या उसे यह बात नहीं सोचनी चाहिए कि बढ़ती महंगाई उसकी थाली की रोटियों में लगातार कटौती करती जा रही है? क्या वह यह नहीं सोचेगा कि इस महीने बच्चों की स्कूल-फीस देने के लिए हो सकता है उसे घर का कोई सामान गिरवी रखना पड़े? क्या महंगाई का राजनीति के परिदृश्य से बाहर चले जाने को उसकी अंतिम विदाई मान लिया जाए?