...तो ऐसे चलेगा कांग्रेस मुक्त भारत अभियान!
किरण राय
गुजरात के 42 विधायक कर्नाटक के जिस रिसॉर्ट में ठहरे थे अब उस पर आयकर का छापा मारा जा चुका है। कर्नाटक के कांग्रेसी मंत्री डीके शिवकुमार के इस रिसॉर्ट पर ही केन्द्र की टेढ़ी दृष्टि नहीं पड़ी बल्कि अपने यहां गुजराती विधायकों को ठहराने का खामियाजा उन्हें इससे कहीं आगे बढ़कर चुकाना पड़ रहा है। उनके दर्जनों ठिकाने आयकर छापों की जद में हैं। मामला उच्च सदन तक पहुंचा और खूब हंगामा बरपा। इन सब कार्रवाईयों से साफ है कि भाजपा की सरकार उसी राह पर चल पड़ी है जिस पर कभी कांग्रेस चला करती थी। रास्ता कांग्रेस ने दिखाया अब उन्हीं पदचिह्नों पर मोदी सरकार चल रही है। तो क्या कांग्रेस मुक्त भारत अभियान इसी पैंतरेबाजी से अंजाम में लाया जाएगा? कांग्रेस की सोच और आत्मा को चाह कर भी 'सरकार' मार नहीं पा रही है। सवाल उठता है- क्या सत्ता के दुरुपयोग का आरोप जिस तरह कांग्रेस पर लगता आया है वैसा ही कुछ वर्तमान सरकार नहीं कर रही है?
एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाने का इतिहास लम्बा है। दल-बदल कानून भी इसी की परिणति रहा। शुरुआत कांग्रेस ने ही की। 1967 में सरकार बनाने और बिगाड़ने का कुचक्र काफी लम्बा चला इसके बाद ही इस कानून का बीज पड़ा। मुद्रा और सत्ता के लालच में जन प्रतिनिधियों का ईमान डोलता ही रहा है। साल 2000 में ही कांग्रेसी मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने सदन में स्पष्ट बहुमत होते हुए भी भाजपा के बारह विधायकों को तोड़कर कांग्रेस में शामिल कर लिया था। इस राजनैतिक घात का खामियाजा आज भी प्रदेश में कांग्रेस पार्टी भुगत रही है। मध्यप्रदेश में भी ऐसा हो चुका है। 1995 में शंकर सिंह वाघेला भाजपा से बगावत कर बैठे थे और अपने साथ कितने 48 बागियों को लेकर खजुराहो में म.प्र. की दिग्विजय सरकार के मेहमान हुए थे। कुल मिलाकर भाजपा-कांग्रेस के बीच का ये चूहे बिल्ली का खेल काफी पुराना और रोमांच से भरपूर रहा है।
वैसे कहते हैं इसका रास्ता पहले-पहल भाजपा ने ही दिखाया था। म.प्र. में श्रीमती विजयाराजे सिंधिया के संरक्षण में, वही रास्ता कांग्रेस ने अपनाया और आगे बढ़ते हुए भाजपा पुन: अपने पुराने मार्ग पर आ गई है। फिलहाल जिस तरह अरुणाचल, मणिपुर, उत्तराखंड में जिस तरह की राजनैतिक बिसात बिछाई गई और मोहरे चले गए, वे इसका सबूत हैं भाजपा कांग्रेस से अलग नहीं है। ऐसा लगता है कि आज भाजपा कांग्रेस से कह रही है कि गिरेबां तो तुम्हारा भी झांकने लायक नहीं तो भला हम क्यों अपने में झांके। भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय अध्यक्ष किस कदर जल्दबाजी में नजर आ रहें हैं इससे नैतिकता और जनमत के सहारे फतह का उनका नारा और पाठ सब झूठ और दिखावे से भरा लगता है। यह भी सच है कि आज पूरे देश का प्रतिनिधित्व भाजपा के पास है और वो अपने दायरे को और बढ़ाना चाहती है। राज्यों के हिसाब से देश के 62 प्रतिशत भाग पर भाजपा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से काबिज है। बिहार की घटना के बाद पूरे देश में जिस प्रकार की राजनीतिक उथल पुथल का प्रादुर्भाव होता दिखाई दे रहा है। उसमें लोकतंत्र की मयार्दाएं कितनी टूट रहीं हैं और कितनी संवर रही हैं, यह चिंतन का विषय भी है।
भाजपा की राजनीति प्रारंभ से चाल, चरित्र और चेहरे की रही है। लेकिन जिस गति से तोड़ने और जोड़ने की राजनीति पर काम हो रहा है उससे पार्टी कटघरे में खड़ी दिखती है। दिख रहा है, लोगों को महसूस हो रहा है कि पार्टी अपनी USP खोती जा रही है। कांग्रेस मुक्त अभियान का नारा बुलंद करने वाली पार्टी लग रहा है कि कांग्रेस जैसी ही पार्टी बनने के प्रयास में है। पुरानी सरकारों की नीतियों, उनके विकास कार्यों, अर्थव्यवस्था को लेकर लिए गए निर्णयों को सिरे से नकार तो रही है लेकिन नए पैकेट में उसे उसी तरह पेश भी कर रही है। कर वही रही है जो किया जा चुका है बस नाम और ब्रांड बदल गया है।