क्या वाकई रंग लाएगी डिनर डिप्लोमेसी?
किरण राय
कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी एक बार फिर डिनर डिप्लोमेसी के जरिए विपक्ष को एकजुट करने की जद्दोजहद में लगी हैं। मिशन 2019 से पहले, मोदी-शाह के जादू के असर को कम करने और बिखरते विपक्ष को साधने का ये प्रयास लगता है। इससे पहले भी अलग-अलग मौकों पर सोनिया विपक्ष को एक सूत्र में बांधने की कोशिश करती दिखीं हैं। ज्यादा वक्त नहीं गुजरा जब उन्होंने उत्तर प्रदेश चुनावों से पहले भोज दिया था। यहां एआईएमआईएम और टीआरएस को निमंत्रित नहीं किया गया जो यकीनन विपक्षी एकता पर सवाल खड़े करता है। सब जानते हैं कि 2004 और 2009 के आम चुनावों में आन्ध्र प्रदेश में इन क्षेत्रीय पार्टियों ने कांग्रेस की काफी मदद की थी। आज के दौर में जब भाजपा का परचम लहरा रहा है और उसकी सरकार 17 राज्यों में स्थापित हो चुकी है तो राजनीति ही नहीं बल्कि लोकतंत्र के लिहाज से भी यह जरूरी था। नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र की खूबसूरती उसकी विविधिता में ही निहित है, एकरूपता में नहीं।
जिस तरह भाजपा विजय रथ पर सवार होकर छोटी पार्टियों के साथ मिलकर अपनी संख्या और वोट प्रतिशत में बढ़ोत्तरी कर रही है वो निसंदेह विपक्ष को 'एकला चलो' से परे 'मिलकर आगे बढ़ने' का सबक दे रही है। जिस psychometric तकनीक से भाजपा आम लोगों और विभिन्न दलों के दिलोदिमाग पर छा रही है वो विपक्ष को इसी तर्ज पर सोचने की ओर प्रेरित कर रही है। बदलते समय और परिस्थिति के मुताबिक उन्हें पुराने ढर्रे से इतर कुछ सोचने की ताकीद कर रही है। भारत ही नहीं पूरा विश्व इन दिनों राजनीतिक बदलाव के दौर से गुजर रहा है। लेफ्ट जैसा कुछ या फिर सामाजिक लोकतांत्रिक दलों की स्वीकार्यता घट रही है। यूरोप हो या फिर अमेरिका, कहीं भी राइट के प्रति आसक्ति लगातार बढ़ रही है। ये खुद को पंथनिरपेक्ष बताने वाले दलों को सुझाव और चुनौती भी पेश करने वाला तथ्य है। ये विपक्ष को एक राह चुनने की सलाह देता है। जताता है कि आपको पिछली सोच के बोझ को हटा कर वर्तमान में कारगर नई सोच को आत्मसात करना होगा। कोशिश करनी होगी कि दक्षिणपंथ इतना ना हावी हो जाए कि लोकतांत्रिक मूल्य ही नष्ट हो जाएं।
वहीं, 2014 आम चुनावों के बाद सिमट चुकी कांग्रेस के लिए पिछले कुछ महीने मिश्रित रहें हैं। कई निकाय चुनावों, उप-चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन सुधरा है। बावजूद इसके, कांग्रेस जानती है कि वो अपने दम पर फिलहाल कुछ हासिल नहीं कर पाएगी और उसे 2019 की तैयारी के लिए मजबूत विपक्ष की दरकार होगी। कई मौकों पर लोकसभा और राज्यसभा में जिस तरह कांग्रेस के साथ विपक्ष खड़ा रहा है शायद उसने सोनिया का हौसला बढ़ाया है और वो अपने इसी हौसले को पूरा करने के लिए विपक्ष को इकट्ठा कर रहीं हैं।
सवाल ये भी उठ रहें हैं कि क्या सोनिया ने भोज का आयोजन राहुल गांधी को विपक्ष का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित करने के लिए किया था? क्या वो वर्तमान अध्यक्ष के लिए माहौल बनाने में जुट गई हैं? हालांकि जो भी भोज से लौटा उसके बयानों से यही लगा कि वो आज की तारीख में सोनिया को ही अपनी लीडर मानता है और इस सवाल को भी नेता टाल गए कि राहुल बनाम नरेन्द्र मोदी पर भी कोई बात हुई। इस डिनर के बाद कांग्रेस प्रवक्ता का बयान आया। उन्होंने राहुल वाली बात पर तो कुछ नहीं कहा लेकिन इतना जरूर कहा कि , इस भोज के जरिए हम भाजपा द्वारा उठाई दीवार को गिराने की कोशिश कर रहें हैं। ये टिप्पणी भी सवाल उठाती है तो क्या कांग्रेस मान रही है कि भाजपा उनके बीच दूरियों की दीवार खड़ी करने में कामयाब रही है? अगर ऐसा है तो दरकते भरोसे के साथ वो कैसे आगे बढ़ पाएंगे? क्या वाकई सोनिया की ये कोशिश रंग ला पाएगी?