इन्हें शर्म आती नहीं...
किरण राय
इन्हें क्या कहें? लाखों-करोड़ों के नुमांइदे हैं। वोट मांगने जाते हैं तो सिर झुका रहता है और शालीनता का लबादा ओढ़े रहते हैं लेकिन जब सदन में अपनी नहीं चला पाते तो वो सब करते हैं जिसे देखकर आम जनता तो सोचती है कि लोकतंत्र का मंदिर शर्मसार हो रहा है लेकिन इनकी आंखों में कहीं भी किसी भी तरह का पछतावा या अफसोस नहीं दिखता। शनिवार को जो कुछ तमिलनाडु विधानसभा में हुआ वो एक बार फिर लोकतंत्र के प्रति आस्थावानों के ऊपर वार जैसा है। कुर्ते फाड़े गए, कुर्सियां उठाकर फेंकी गईं, माइक पर हाथ साफ किया गया...कुल मिलाकर जो निर्जिव सामान हाथ में आया उसे चला दिया गया। क्या इसे सुर्खियों में आने का बेहद शर्मनाक हथकंडा ना कहा जाए?
तमिलनाडु विधानसभा में 30 साल पहले AIADMK प्रमुख MGR के निधन के बाद जानकी रामचंद्रन ने विश्वासमत की राह चुनी थी। वो नौबत इसलिए आई थी क्योंकि पार्टी में दो फाड़ हो गए थे। हालांकि सरकार 24 दिन बाद विश्वासमत हासिल नहीं कर पाई और गिर गई। शनिवार को जो हुआ वो भी कम हैरान करने वाला नहीं था, पिछले 30 सालों में पहली बार हुए विश्वासमत के दौरान बहसबाजी के बीच शर्टें फटीं। इसकी जद में स्पीकर पी धनपाल, डीएमके नेता स्टालिन(जिनकी वजह से हंगामा परवान चढ़ा) भी आए। वजह भी कोई अहम मुद्दा नहीं बल्कि इसे जिद्द ही कहें तो सही होगा। स्टालिन ने विश्वासमत के दौरान गोपनीय वोटिंग की मांग की थी जिसे स्पीकर ने ख़ारिज कर दिया था। बस यही ना हंगामे की भेंट चढ़ गया। दो बार विधानसभा स्थगित होने के बाद जब हंगामा नहीं थमा तो विधानसभा अध्यक्ष ने मार्शल बुलाये और डीएमके विधायकों को सदन से बाहर किया गया। मौके को ताड़ते हुए कांग्रेस भी सदन से वॉकआउट कर गई। विपक्ष की ग़ैरमौजूदगी में पलनीसामी ने विधानसभा में ध्वनिमत से बहुमत हासिल किया। सवाल वही किसे क्या हासिल हुआ? ना विपक्ष अपनी बात को सही मुकाम तक ले जा पाया और ना सत्ता पक्ष अपने संयम और धैर्य का परिचय दे पाया।
तमिलनाडु में तो ये अजीब से परम्परा का रूप लेती जा रही है। इस मौके पर भला कौन भूलेगा 1989 में विधान सभा जयललिता के साथ हुई उस घटना को जिसने सूबे की राजनीति ही बदल डाली। उनके साथ बदसलूकी हुई थी...बदहवास सी बिखरे बालों और फटे आंचल के साथ जयललिता विधानसभा से निकलीं और मीडिया से उसी दशा में मुखातिब हुईं। अम्मा सीएम बनकर ही लौटीं। वो एक सबक था डीएमके के लिए, जो सत्ता पर काबिज थी। लेकिन लगता है उससे कुछ खास सीखा नहीं गया। गनीमत कि कोई महिला इस बदसलूकी का शिकार नहीं बनी।
वैसे, पिछले एक दशक में देखें तो इस तरह की गिरी हुई हरकत विधानसभाओं से लेकर संसद तक में कई बार हुई है। क्या उत्तर प्रदेश, क्या दिल्ली, क्या कश्मीर, क्या त्रिपुरा हर जगह सिर्फ प्रतिनिधियों के चेहरे बदल जाते हैं लेकिन हरकतों का स्वरूप नहीं बदलता। सदन के भीतर जो कुछ होता है उसको लेकर खूब हंगामा बरपता है। सब इसकी निंदा करते हैं लेकिन फिर जब मौका आता है तो वही राग छिड़ जाता है। शर्म इन्हें आती नहीं, शालीनता से बात रखने का सबक इन्होंने सीखा नहीं और इन्हें दिखता नहीं कि इनकी ताकत का असर समाज और देश पर क्या पड़ रहा है। शायद यही वजह है कि राजनीतिज्ञों पर से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है।