जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं...
किरण राय
एक दिन में ताबड़तोड़ एक नहीं दो नहीं बल्कि चार-पांच संवाददाता सम्मेलन। इसकी वजह सिर्फ अपने दाग को दूसरे के दाग से कम दिखाने की रही। भाजपा और कांग्रेस दो ऐसी राष्ट्रीय पार्टियां जो एक दूसरे पर निशाना साधने के साथ ही खुद को दूसरे से बेहतर साबित करने में लगी है। रौ में सभी बह रहें हैं। मौका सभी को जबरदस्त मिला है। जानते हैं कि सेना का मुद्दा हवा का रुख मोड़ने का माद्दा रखता है सो इसे ही बार-बार हवा दी जा रही है। राजनीति किसी गहन मुद्दे पर नहीं बल्कि भावनाओं को कैश करने की हो रही है। निगाहें कहीं भी हो लेकिन निशाने पर अगले साल होने वाले विधानसभा के चुनाव हैं। उप्र और पंजाब ये दो सूबे भाजपा, कांग्रेस और आप तीनों के लिए अहम है। शायद यही वजह है कि पहले सरकार की तारीफ में कसीदे पढ़ने वाली कांग्रेस और आप को दिन गुजरते एहसास हो गया कि इस तरह तो उनकी राजनीतिक जमीन सरकती जा रही है, इसे बनाए रखना है तो विरोध की राजनीति करनी ही पड़ेगी।
भाजपा ने भी पहले तो संयम से काम लिया। इसके बाद पार्टी के आला नेता से लेकर आखिरी लाइन में खड़ा कार्यकर्ता तक अपनी पीठ थपथपाने और 100 इंची सीना बताने की जल्दबाजी में लग गया। सेना की सर्जिकल स्ट्राइक का श्रेय लेने की मानो होड़ सी मच गई। क्योंकि उप्र में भाजपा अपनी खोई जमीन को वापिस पाना चाहती है इसलिए उसकी रणनीति भी कहीं ना कहीं सेना की कामयाबी के कंधे पर सवार होकर गढ़ी जा रही है। तभी तो पीएम ने इस बार उप्र की राजधानी में रावण दहन कार्यक्रम का हिस्सा बनना तय किया। जाने अनजाने राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी पीसी में स्पष्ट किया कि वो खून के दलाल वाली टिप्पणी को जनता के बीच ले जायेंगे। उन्होंने कांग्रेस उपाध्यक्ष को उनकी मां सोनिया गांधी की मौत के सौदागर वाली टिप्पणी भी याद दिलाई और जताया कि इस बार भी जनता सबक सिखायेगी। मतलब साफ है कि राजनीति ना करने का दम भरने वाले शाह के निशाने पर भी चुनाव ही हैं।
कोई अपनी जमीन खिसकने देना नहीं चाहता। तभी तो आप के अरविंद केजरीवाल बिन बुलाए बाराती की तरह इस मसले में घुस गए हैं। पहले उन्होंने मोदी को सलामी ठोकी, फिर स्ट्राईक पर सबूत मांगे। सोशल मीडिया पर गालियां पड़ीं तो स्पष्टीकरण देते फिरे तभी कहानी में ओ हैनरी ट्विस्ट आया और राहुल गांधी ने पीएम पर दलाल प्रहार किया। केजरीवाल की राष्ट्रभक्ति जागी और उन्होंने इस बयान की निंदा कर डाली। कवायद शायद अपनी धूमिल होती छवि को बेहतर करने की है और यकीनन निशाने पर पंजाब चुनाव है।
लबोलुआब ये कि देशभक्ति, राष्ट्रभक्ति, देशप्रेम, सेना पर गर्व जैसी भावनाओं पर खूब राजनीतिक रोटियां सिक रहीं हैं। सब एक-दूसरे को गलत बता रहें हैं लेकिन सच्चाई ये है कि हमाम में सभी एक से हैं। निगाहें कहीं और है और निशाने पर वो चुनाव हैं जिससे सत्ता पर काबिज हुआ जायेगा। लेकिन सवाल वही कि आखिर लफ्फाजों की लफ्फाजी से देश का, समाज का और हमारे लोकतंत्र का क्या भला होगा? क्या वाकई इनके हवा-हवाई बयान हमें समझा पा रहें हैं कि वाकई इन्हें हिन्द पर नाज है?