क्यों रहे मनमोहन मौन
हमारे पीएम मनमोहन सिंह मौन क्यों रहे ये जगजाहिर है। देश की राजनीति में थोड़ी बहुत दिलचस्पी रखने वाला शख्स पिछले एक दशक से जान रहा है कि इसकी वजह कांग्रेस हाईकमान ही है। जो सारी कमान अपने हाथ में रखकर रिमोट कंट्रोल से सरकार संचालित करता है। अब तो इस मौन के राज का फाश घर के भेदी ने ही कर दिया है। पीएम के बेहद करीबी रहे मिडिया सलाहकार संजय बारू और पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख ने अपनी-अपनी किताबों के जरिए कमजोर प्रधानमंत्री की बेचारगी को बेनकाब कर दिया है। द एक्सिडेंटल पीएम, मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह में बारू ने और क्रूसेडर ऑर कांसपिरेटर के जरिए पारेख ने मजबूर पीएम की घुटन को बयान किया है। कैसे सोनिया गांधी के ऑर्डर, राहुल गांधी की इच्छा के आगे उन्हें नतमस्तक होना पड़ता था। क्यों उन्हीं के मंत्री उनकी एक नहीं सुनते थे और चाहकर भी कुछ न कर पाने की पीड़ा से वो गुजर रहे थे। हर मामले के उजागर होने के साथ ही पीएमओ की तरफ से सफाई और लीपापोती की कवायद रफ्तार पकड़ लेती है, इस बार भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। सवाल एक बार नहीं बल्कि बार-बार उठाये जा रहें हैं, तो भला कैसे पीएमओ अपनी जिम्मेदारी से किनारा कर सकता है। पीएमओ के अधिकारी इस किताब को कल्पना पर आधारित बता रहें हैं। किताब के ब्योरे को मनगढ़ंत बता रहे हैं, लेकिन जिस तरह बारू ने संदर्भ-प्रसंग सहित बातों को रखा है उससे उन पर ऊंगली उठाना तर्क संगत नहीं लगता। बारू 2004 से 2008 के बीच पीएम के साथ रहे थे।
बारू ने लिखा है कि सरकारी फाइलें सोनिया गांधी तक जाती थीं। फाइलों का भविष्य वहीं तय होता था। अगर श्रेय मिला तो कांग्रेस नेतृत्व को, आलोचना हुई तो सरकार के मत्थे। और, मनमोहन यह सबकुछ झेलते रहे। पूर्व कोयला सचिव पारेख की किताब सेयह आरोप और भी स्पष्ट हो गया है। उन्होंने 17 अगस्त, 2005 की घटना का उल्लेख किया है जब वह प्रधानमंत्री से मिलने जाते हैं और नेताओं के हाथों अपमान की बात करते हैं। उन्होंने समय पूर्व सेवानिवृत्ति का भी जिक्र किया। बकौल पारेख पीएम ने कहा, 'ऐसी बातें तो हमारे साथ रोज ही होती हैं..लेकिन रेजिगनेशन इसका उपाय नहीं है।' इसका सीधा अर्थ तो यही है कि प्रधानमंत्रीजी इतने लाचार थे कि एक अधिकारी के कुरेदने भर से उनका दिल फट पड़ा था। प्रधानमंत्री ने कुछ महीने पहले आशा जताई थी कि इतिहास उनके साथ न्याय करेगा। बारू और पारेख की किताबों के बाद इतिहास उनसे कुछ और सवाल पूछेगा। सवाल कि जब 2008 तक उनकी स्थिति कोरे स्टैम्प के अलावा कुछ नहीं रह गई थी तो वो दोबारा पीएम बनने को तैयार क्यों हो गए? क्यों वो सरेआम अपनी नीतियों का मखौल उड़ते देखते रहे, क्यों वो राहुल गांधी के अध्यादेश को कूड़े में डालने के बयान के बाद मौन रहे और अपनी है कैबीनेट का फैसला कांग्रेस उपाध्यक्ष की चाह के आगे पलटने को तैयार हो गए?