सत्ता विमर्श क्यों?
किरण राय
राजनीति के जिस आचार-विचार-व्यवहार को हम आज जी रहे हैं उसपर टिप्पणी करना कोई आसान काम नहीं है। व्यक्तिगत रूप से देखा जाए तो यह पूरा परिदृश्य ही स्वार्थी है, महत्वाकांक्षी है। हमारे आज के राजनेता जिस राजनीतिक रंगमंच को स्थापित कर रहे हैं वह किसी भी तरह से देश के 90 फीसदी लोगों के हित में नहीं है। आज राजनीतिक मंच पर जो कुछ हो रहा है और जैसे भी हो रहा है, वह सब लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र में हो रहा है। इसलिए सबसे पहला काम तो यही बनता है कि हम अपनी मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही जांचें, परखें कि इसमें किस जगह कौन सी खामी रह गई है जो छह दशक बाद ही व्यापक मानवीय सरोकारी मूल्यों को तिलांजलि देकर दम तोड़ गईं। सत्ता विमर्श इस मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था को परखकर उसमें सुधार करने का बीड़ा उठाना चाहती है ताकि राजनीति के गिरते मूल्यों को फिर से स्थापित किया जा सके।
पांच दशक के लोकतंत्र ने एक भयावह अलोकतांत्रिक प्रवृति को मजबूत किया है। इसने हर जगह, हर क्षेत्र में छोटे-छोटे तानाशाह पैदा कर दिये हैं। ये तानाशाह अपनी-अपनी सीमाओं और क्षमता के अनुसार वे सारे हथकंडे अपना रहे हैं जो एक तानाशाह स्वयं को बनाने व बढ़ाने के लिए अपनाता है। वे अपने-अपने समूहों के हितों की बात करते हैं, उनके भीतर नकली स्वाभिमान की हवा भरते हैं, दूसरों को अपना शत्रु बनाते हैं। सर्वाधिक मजेदार बात यह है कि लोकतांत्रिक ढांचा इस तरह के तानाशाहों को उनकी जरूरत का सारा सामान मुहैया करा देता है क्योंकि भारतीय समाज की विभाजक-विभेदक प्रवृतियां तानाशाहों को पर्याप्त उर्वरा भूमि उपलब्ध करा देती है, इसलिए वे लोकतंत्र में खुलकर खेल पाते हैं। जो विराट मानव समाज का जितना बड़ा शत्रु है वह चंद लोगों के हितों के नाम पर इतनी ही ताकत से लोकतांत्रिक नेता के रूप में उभर आता है। मतलब यह कि मौजूदा लोकतंत्र के भीतर ही लोकतंत्र विरोधी व्यक्तियों के पनपने-फलने-फूलने के अंतर्निहित कारक मौजूद हैं। इन कारकों की जांच पड़ताल के बिना न तो मौजूदा राजनीतिक संस्कृति को बदला जा सकता है, न राजनीतिक परिदृश्य को। यह एक अहम् बिन्दू है जिसपर सत्ता विमर्श आपके सहयोग से काम करेगी। ऐसे तानाशाहों को जनहित, देशहित व राजनीतिक हित का रास्ता दिखाने का काम करेगी।
हम यह देखना चाहेंगे कि जिन मुद्दों, समस्याओं, सामाजिक जरूरतों और संवैधानिक लक्ष्यों के लिए यह समूची राजनीति हो रही है, उनकी पिफलवक्त क्या स्थिति है। जातिविहीन और सांप्रदायिक विद्वेषविहीन समाज बनाने की दिशा में हम कितना आगे बढ़े हैं। क्या हम वह लोकतांत्रिक चेतना पैदा कर सके जो वांछित आदर्शों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों को विधायिका से भेजती है। क्या हम समाज को सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से मुक्त कराने की दिशा में कोई भी ऐसे ठोस कदम उठा सके जिसपर भविष्य की उम्मीदें टिकतीं। क्या हम कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों में फैली अलगाववादी हिंसा का कोई निदान और उपचार खोज सके। तमाम नारों और उल्लासित करने वाले आंकड़ों के बावजूद अपनी अर्थव्यवस्था को ऐसा रूप दे सके जिससे अधिसंख्य वर्ग राहत महसूस कर सके। क्या हम अपनी न्यायिक व्यवस्था से संतुष्ट हैं। क्या हमारी प्रशासनिक सेवाएं, शैक्षिक व्यवस्थाएं स्वास्थ्य सेवाएं, वितरण व्यवस्थाएं दोषमुक्त होने की तरफ बढ़ रही हैं। इन तमाम सवालों के जवाब हमारे पास किस शक्ल में हैं-हां या ना में। सत्ता विमर्श इस हां या ना पर पूरा शोध करेगी और एक निष्पक्ष व पारदर्शी तस्वीर आपके सामने रखते हुए इसे बेहतर बनाने का विकल्प भी पेश करेगी।
बहरहाल, हम आपसे बातों ही बातों में बहुत कुछ वायदे कर गए। हम जानते हैं कि इन वायदों को निभाना कोई आसान काम नहीं, लेकिन यदि एक कदम आप बढ़ें और एक कदम सत्ता विमर्श की कलम तो बीच की खाई निश्चित रूप से भर जाएगी और हम सब एक स्वच्छ राजनीतिक व सामाजिक परिदृश्य में सांस ले सकेंगे। इस राह में तमाम मुश्किलें भी आएंगी, लेकिन उन मुश्किलों को हम सबको डटकर सामना करना होगा। कुछ पाना है तो कुछ खोना भी पड़ेगा। यह सोचकर हमें आगे बढ़ना है। हमें आपसे उम्मीद है कि सत्ता विमर्श की राह में आने वाली हर मुश्किलों को आप अपनी मुश्किल समझ सहयोग करेंगे ताकि सत्ता विमर्श की मशाल कभी बुझ न सके।
जय हिन्द जय भारत।
(किरण राय सत्ता विमर्श की संपादक हैं।)