'जय हिन्द' से परहेज क्यों?
किरण राय
'जय हिन्द' और 'भारत माता की जय' को मुद्दा बनाया जा रहा है। MIM अध्यक्ष ने भारत माता की जय नहीं बोला तो उन्हें देशद्रोही की संज्ञा दी गई और पार्टी विधायक वारिस पठान को निलंबित कर दिया गया। पठान का तर्क गौर करने लायक है कि आखिर जय हिन्द बोलने का विरोध क्यों?
भारत माता की जय करने से किसी को इंकार नहीं होना चाहिए और बतौर इस देश का नागरिक ये उसका अधिकार है। लेकिन माता की जगह अगर जय हिन्द बोला जा रहा है तो उससे परहेज क्यों? क्या जय हिन्द देश की भावनाओं को प्रकट नहीं करता। क्या इस नारे में हमारे देश के लोकतंत्र की महक नहीं है ? अगर है तो इसकी मुखालफत इतनी पुरजोर तरीके से क्यों?
दरअसल, हमारी सियासी बिरदारी का मुख्य शगल बन गया है राष्ट्रवाद। ऐसा मुद्दा जिसे कैश कर सैकड़ों 'देशभक्तों' की भावनाओं से खेलने का खेल जारी है। भारत माता का प्रतिपादन 19 वीं शताब्दी के आखिर में हुआ। इ्सका श्रेय किरन चंद्र बनर्जी के नाटक भारत माता को जाता है। तो वहीं जय हिन्द का नारा सुभाष चन्द्र बोस की देन है। 1941 में गठित आजाद हिन्द फौज का ये प्रमुख नारा था।
यह सोचनीय विषय है कि जिस क्रांतिकारी नेता सुभाष चन्द्र बोस के परपोते चंद्र बोस को भाजपा पश्चिम बंगाल का चेहरा बनाकर चुनावी समर में उतार रही है उन्हीं बोस के 'जय हिन्द' को अपनाने में झिझक रही है। तो क्या ये सुविधा की राजनीति नहीं?