पठानकोट हमला : सरकारों की कार्यशैली पर सवाल
पहले गुरदासपुर और उसके पांच महीने बाद पठानकोट पर आतंकी हमले। करीब दो दशक के अंतराल के बाद पंजाब एक बार फिर से आतंकियों के निशाने पर आ रहा है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि पंजाब सरकार आज भी इस मसले को लेकर ज्यादा चिंतित नहीं दिखाई दे रही है। हर बार वह खुद को बचाती है और उसकी इकलौती सफाई होती है कि सीमा की सुरक्षा करना उसका काम नहीं है। इसका मतलब तो यही निकलता है कि सरहद की सुरक्षा को लेकर केंद्र सरकार का रवैया लापरवाही वाला है। कहने का तात्पर्य यह कि केंद्र और राज्य की सुरक्षा एजेंसियों का आपस में कोई सामंजस्य नहीं है। आपको यह जानकर ताज्जबु होगा कि जिस पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमला हुआ है वहां से सरहद की दूरी मात्र तीन घंटे की है। अगर ऐसी संवेदनशील जगहों को लेकर सरकार और सुरक्षा एजेंसियां अब भी नहीं जागी तो भगवान ही मालिक!
पठानकोट हमला : सरकारों की कार्यशैली पर सवाल
पहले गुरदासपुर और उसके पांच महीने बाद पठानकोट पर आतंकी हमले। करीब दो दशक के अंतराल के बाद पंजाब एक बार फिर से आतंकियों के निशाने पर आ रहा है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि पंजाब सरकार आज भी इस मसले को लेकर ज्यादा चिंतित नहीं दिखाई दे रही है। हर बार वह खुद को बचाती है और उसकी इकलौती सफाई होती है कि सीमा की सुरक्षा करना उसका काम नहीं है। इसका मतलब तो यही निकलता है कि सरहद की सुरक्षा को लेकर केंद्र सरकार का रवैया लापरवाही वाला है। कहने का तात्पर्य यह कि केंद्र और राज्य की सुरक्षा एजेंसियों का आपस में कोई सामंजस्य नहीं है। आपको यह जानकर ताज्जबु होगा कि जिस पठानकोट एयरबेस पर शनिवार को आतंकी हमला हुआ वहां से सरहद की दूरी मात्र तीन घंटे की है। अगर ऐसी संवेदनशील जगहों को लेकर सरकार और सुरक्षा एजेंसियां अब भी नहीं जागी तो भगवान ही मालिक!
सरकारी तोते ने गरमाई सियासत
दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार के बीच की तकरार का रूप कुछ ऐसा ही होना था। मुद्दे की तलाश दोनों तरफ थी। सीबीआई फिर सवालों के घेरे में आई क्योंकि उसकी कार्रवाई ने फिर राजनीतिक कयासबाजी को बढ़ा दिया। कांग्रेस के जमाने में जो भाजपा सीबीआई को कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन कहती थी अब वो भी उसी तर्ज पर चल रही है। राजनीति में टाइमिंग का महत्व बहुत होता है और इस बार भी DDCA की फाइलें, उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर जांच बैठाने की तैयारी के बीच सीबीआई का औचक छापा, सवाल तो उठेंगे ही। सीबीआई छापे के दौरान मीडिया को दूर रखना कोई नई बात नहीं है, लेकिन जिस तरह सीएम अरविंद केजरीवाल को इस छापेमारी के दौरान दफ्तर से दूर रखा गया वो जरूर संदेह को बढ़ाता है। हालांकि मामला सीएम के प्रमुख और प्रिय सचिव का है फिर भी ये मुद्दा संदेहास्पद रहेगा क्योंकि जांच उस सीएम के दफ्तर की हुई जिस पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है।
संविधान दिवस का मकसद!
26 नवम्बर 2015 से अब हर साल संविधान दिवस को मनाया जाएगा। ये फैसला केन्द्र की नई एनडीए सरकार ने लिया है। इस दिवस पर तर्क और कुर्तकों का दौर भी चल पड़ा है। लेकिन सवाल ये है कि अचानक नई सरकार को शीतकालीन सत्र के साथ ही संविधान दिवस को मनाने का ख्याल आया तो आया क्यों? कहीं इसके पीछे का मकसद संसद का ध्यान जरूरी मुद्दों से भटकाने का तो नहीं है। शीतकालीन सत्र के दो दिन और ऐसा लग रहा है कि इसके बाद के दिन भी संविधान की प्रस्तावना से लेकर अन्य संशोधनों को लेकर आरोप-प्रत्यारोप के दौरों पर कुर्बान होते जायेंगे। बीआर अम्बेडकर की 125वीं जयंती वर्ष में 'संविधान के प्रति प्रतिबद्धता' पर गुरुवार को शुरू हुई चर्चा में चर्चा प्रस्तावना से सेक्युलरिज्म को हटाने से लेकर सहिष्णुता-असहिष्णुता पर हुई। बात आगे बढ़ी तो सोनिया गांधी ने अंबेडकर को संविधान निर्माता का खिताब कांग्रेस की बदौलत दिलाए जाने का दंभ भरा। उन्होंने भाजपा पर परोक्ष तौर पर आरोप लगाते हुए कहा कि अब ऐसी पार्टियां श्रेय लेने की फिराक में हैं जिनका अस्तित्व तक नहीं था। इस पर केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली ने पलटवार करते हुए श्यामप्रसाद मुखर्जी की याद दिला दी।
ये तो राजनीति का अपमान है
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह कहा कि 60 वर्ष से ऊपर नेताओं को राजनीति छोड़कर समाज सेवा करनी चाहिए। तो क्या भारतीय राजनीति में सदियों से नेतागण स्वकल्याण करते आ रहे थे और अपने बयानों और बातों से जनता को महज बरगलाने का काम कर रहे थे। हमारे देश के राजनीतिज्ञों और दार्शनिकों ने राजनीति को सेवाभाव के तौर पर ही परिभाषित किया था। राजनीति में रिटाइटरमेंट जैसा कुछ नहीं होता, हमारे संविधान में भी इसका कोई उल्लेख नहीं है। तो भला एक हार ने कैसे शाह की समझ को इतना सिमटा दिया।
मोदी जी! ये पब्लिक है, सब जानती है
मोदी राज में 'सबका साथ सबका विकास' से लेकर 'जंगल राज पार्ट-2' की कहानी और जबरदस्त सियासी समीकरणों, जोड़तोड़ तथा हर कार्ड खेले जाने के बावजूद बिहार विधानसभा का चुनाव हारना भाजपा के लिए बड़ा झटका है। 18 महीनों में दो बड़ी हार। दिल्ली का जनादेश अगर इत्तेफाक था तो बिहार के इस जनादेश को क्या कहेंगे? सवाल यह भी है कि वर्तमान आर्थिक, राजनीतिक स्थितियों में क्या मोदी 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान देश की जनता से किए अपने घोषित, अघोषित वादे को पूरा कर पाएंगे? यदि वादे पूरे नहीं हो पाए तो भाजपा और मोदी का भविष्य क्या होगा? क्योंकि यह तो तय हो गया है कि सिर्फ भाषणों से तो भविष्य नहीं बनने वाला है। राजनीति में 'बड़बोलेपन' का कोई स्थान नहीं। 'ये पब्लिक है, सब जानती है।'
असहिष्णुता के नाम पर ये कैसा विरोध?
नामी गिरामी फिल्मकार कुंदन शाह समेत 24 सोशल एकिटविस्ट और साहित्यकारों ने राष्ट्रीय पुरस्कार लौटा दिए। कारण वही जो पिछले 15 दिनों से बताया जा रहा है। यानी असहिष्णुता। अब ये धार्मिक है या वैचारिक ये भी तर्क का विषय है। इससे पहले राष्ट्रपति दो अलग अलग कार्यक्रमों में देश के हालात पर चिंता जता चुके हैं। इसके साथ ही विपक्ष से लेकर विदेशी मूडीज एनालिटिक्स तक- सब जताने में लगे हैं कि देश के हालात बद से बद्दतर हो गए हैं। समझ से परे है कि क्या हमारे लोकतांत्रिक देश में असहिष्णुता के नाम पर एक व्यक्ति का विरोध सही है। क्या हमारे देश को ट्यूनिशिया, मिस्त्र या फिर इराक बनाने की कोशिश नहीं हो रही है। अगर ऐसा होता तो सोशल मीडिया या फिर बड़े मंच से इतनी बेबाकी से लोग मुखालाफत ना कर पाते।
जीती बाजी हार गए!
बिहार चुनाव पूर्व सर्वे ताल ठोक के सूबे में एनडीए की सरकार बनने की मुनादी कर रहे थे, लेकिन दो दौर के चुनावों के बाद भाजपा के लिए मामला फंसता दिख रहा है। पार्टी अपने मुद्दों को लेकर पसोपेश में दिख रही है। वजहें कई हैं। जैसे आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का आरक्षण को लेकर दिया बयान, भाजपा का नेग्टिव कैंपेन अटैक, भाजपा नेताओं का बड़बोलापन वगैरह। जिस चालाकी से महागठबंधन ने अपनी योजनाओं को क्रियान्वित किया उसकी काट ढूंढने में भाजपा असफल होती दिख रही है। खास बात ये रही कि महागठबंधन के सभी प्रमुख दलों ने एक साथ मंच साझा करने की बानिस्बत अलग-अलग तरीकों से अपने वोटरों को अपील किया। जहां दिल्ली के सीएम की तर्ज पर नीतीश कुमार ने घर-घर जाकर वोट मांगे वहीं बड़बोले लालू ने जी भर कर बयानों के तीर छोड़े।भाजपा ताकत तो पूरी लगा रही है लेकिन पासा हक में पलटता नहीं दिख रहा है। संकेत साफ है कि अपनी ही गलती से भाजपा जीती बाजी हार रही है।
कन्फ्यूज्ड मुलायम!
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव आजकल बेहद कन्फ्यूज्ड चल रहे हैं। पिछले तीन दिनों में बिहार चुनाव को लेकर दिए गए तीन बयान इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि उन्हें खुद नहीं पता चल रहा कि वह क्या बोल रहे हैं और उनके इन बयानों से सपा की राजनीति किस ओर जा रही है। बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान भभुआ में एक रैली में मुलायम ने जहां सपा नीत तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने का दावा किया, उसके अगले ही दिन लखनऊ में यह कहकर सनसनी फैला दी कि बिहार में भाजपा नीत एनडीए सरकार बनाने जा रही है। और फिर अगले दिन मंगलवार को लोहिया जयंती के मौके पर यह बयान देकर नई बहस को जन्म दे दिया कि भाजपा ने आरक्षण का मुद्दा छेड़कर लालू-नीतीश-कांग्रेस के महागठबंधन को मजबूत कर दिया है। हालांकि सीधे तौर पर अभी कुछ भी कहना मुश्किल है, क्योंकि मुलायम सिंह यादव मानते हैं कि अगर आप राजनीति में हैं और आपके हाथ में सत्ता की ताकत नहीं है तो ये एक तरह से वक्त की बर्बादी है। संभव है, 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद देश की बदली राजनीतिक परिस्थितियों में मुलायम जो-जो पत्ते फेंक रहे हैं वह सब 2017 के यूपी चुनाव में खुलकर सामने आएं।
प्रधानमंत्री जी! देश की खातिर अपनी चुप्पी तोड़िए
कहते हैं आपकी आजादी वहां खत्म हो जाती है, जहां से दूसरे की नाक शुरू होती है। मतलब यह कि आजादी के अधिकार के तहत आप किसी को नुकसान नहीं पहुंचा सकते है। हमारे देश में अभिव्यक्ति की आजादी है, लेकिन कुछ भी बोल कर देश और समाज में नफरत फैलाने की आजादी नहीं है। तो फिर क्यों देश और समाज में नफरत फैलाने वाले बयानों की सुनामी आयी हुई है और क्यों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुप्पी साधे हुए हैं? जी हां! हम दादरी में अखलाक हत्याकांड की बात कर रहे हैं। मोदी जी! आप देश के प्रधानमंत्री हैं और दुर्भाग्य से ऐसे दल का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जिसके नेता और सांसद नफरत की राजनीति को शह दे रहे हैं। इसलिए यह और भी जरूरी है कि आप अपनी चुप्पी तोड़िए और देश में नफरत की फैल रही आग को बुझाइए।