लोकल ट्रम्प vs ग्लोबल अमेरिका
डोनाल्ड ट्रम्प ने अपनी नई पारी का आगाज कर दिया है। बेबाक और कुछ भी कहने के लिए कुख्यात ट्रम्प ने अपने पहले भाषण में भी वही कहा जो वो अपने चुनावी भाषण के दौरान कहते आये थे। विजन और रिजन वही दिए जिनके दम पर अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए। रोजगार के अच्छे अवसर उपलब्ध कराने के लिए अपनी नीति भी स्पष्ट की। उनके भाषण का हाईलाइट अमेरिका, अमेरिका और सिर्फ अमेरिका फस्ट रहा। उन्होंने साफ किया कि पहले अपने देश की भलाई के बारे में सोचेंगे फिर किसी दूसरे के बारे में सोचेंगे। युनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका के सर्वेसर्वा पर पूरी दुनिया को एक साथ लेकर चलने का दारोमदार होता है। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि ये लोकल ट्रम्प का ग्लोबल अमेरिका से इतर संबोधन है।
...और मोदी ने यूं छीन ली बापू की जगह
अफसोस अब महात्मा गांधी भी नए बदलते, उभरते भारत की पहचान तले कहीं पीछे छूट गए। उन्हें उस खादी ग्रामोद्योग के कैलेंडर में जगह नहीं मिली जिस खादी की कल्पना उन्होंने की थी। खादी के जरिए भारत को एक सूत्र में पिरोने का सपना देखने वाले गांधी ने स्वदेशी अपनाओ का नारा दिया और अनगिनत संख्या में लोग इस नारे की भावना तले इकट्ठा होते गए। लेकिन अब मेरा भारत बदल रहा है और गांधी के प्रतीक की अनदेखी भी।
मुलायम vs अखिलेश, आखिर कब तक?
समाजवादी पार्टी में पारिवारिक कलह की आग से जब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी झुलसने लगे तो हमेशा से पिता मुलायम के हर फैसले को मानने वाले सुल्तान (अखिलेश) ने अपनी ताकत का अहसास कराकर जता दिया कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनकी स्वतंत्र सत्ता है और इसमें जनता, समाजवादी पार्टी और सरकार तीनों का समर्थन हासिल है। बड़ा सवाल यह है कि पिता-पुत्र के बीच इस तरह का शक्ति परीक्षण कब तक चलता रहेगा? अगर यह नौटंकी है और सब कुछ फिक्स है तो यह प्रदेश की जनता और सपा के लाखों कार्यकर्ताओं से बड़ा धोखा है।
प्रधानमंत्री जी! वाकई ये अंदाज-ए-गुफ्तगू है क्या
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की धारा प्रवाह बोलने की कला के सब कायल हैं। उनकी शैली, विपक्ष पर हमला करते वक्त कसा गया तंज सभी को भाता है। घण्टों मंच पर खड़े रहकर अपनी बात प्रभावशाली तरीके से रखना उनकी खासियत है। लेकिन अपने संसदीय क्षेत्र से जिस तरह का भाषण उन्होंने दिया ना तो वो एक प्रधानमंत्री की गरिमा के अनुरूप था और ना ही उससे हमारी राजनीति या फिर जनता का कोई लाभ होने वाला है। मोदी जी हिन्दी फिल्मों के नायक की तरह नहीं बल्कि एक हास्य अभिनेता के किरदार में खुद को एडजस्ट करने की कोशिश करते दिखे। क्या विपक्ष पर धावा बोलने के लिए मिमिक्री जरूरी थी?
एक प्रत्याशी, एक सीट !
भारतीय निर्वाचन आयोग चाहता है कि चुनावों के दौरान प्रत्याशी दो जगह से किस्मत ना आजमायें। निस्संदेह पहल और सोच अच्छी है। इससे कईयों को मौका भी मिलेगा और कईयों के मौके हाथ से भी निकलेंगे, जो दो नाव की सवारी करना अपना अधिकार मानते रहें हैं। इसके लिए EC ने केन्द्र की सरकार को सिफारिश भी भेजी है। सवाल वही- क्या सरकार तैयार होगी?
संघर्ष का नाम था जयललिता
तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता नहीं रहीं। आखिरकार 5 दिसंबर की रात उन्होंने जिन्दगी से संघर्ष करना छोड़ दिया और दुनिया को अलविदा कह दिया। जयललिता का तो संस्कृत में अर्थ ही है जो अपनी चंचलता से सबको जीत ले। तमिल फिल्मों की सुपरहिट अभिनेत्री ने अपने नाम के अनुरुप ही खुद को साबित भी किया। उनके काम, उनके व्यक्तित्व के आकर्षण से कोई बच नहीं पाया।
कौन है 'कोई और हाईकमान नहीं'?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आजकल उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर भाजपा का जोर शोर से प्रचार कर रहे हैं। विमुद्रीकरण के बाद उनके भाषणों में भी आक्रामकता कम भावुकता ज्यादा दिख रही है। गरीबी, विकास और भ्रष्टाचार इन तीनों की मंजिल इन दिनों नोटबंदी है। परिवर्तन रैली में यह कहकर कि मेरा हाईकमान कोई और नहीं है, मेरा हाईकमान तो आप (जनता) हैं, पीएम मोदी क्या संकेत दे रहे हैं?
ये बचाने या फिर निपटाने की तैयारी है
सरकार नए आयकर संशोधन नियम के साथ तैयार है। इसे विपक्ष के हंगामे के बीच लोकसभा में पास भी कर दिया गया। दावा किया जा रहा है कि अघोषित संपत्ति वाले यदि अब अपनी आय का खुलासा 8 नवंबर से 30 दिसंबर के बीच करते हैं तो उन्हें नए टैक्स के प्रावधानों से कुछ हद तक छूट मिल जाएगी नहीं तो दण्ड के लिए तैयार रहना पड़ेगा। सवाल ये भी है कि क्या सरकार अपनी लगातार हो रही फजीहत से बचने के लिए सारा गेम प्लान तैयार कर रही है? प्रश्न ये भी है कि क्या इसकी जद में सोना, अचल संपत्ति या शेयर भी आयेंगे? क्या ये भ्रष्टाचार को कानूनी संरक्षण देने की कोशिश नहीं?
तो क्या विपक्ष को पीएम ने खुद थमा दिया ब्रह्मास्त्र !
8 नवंबर के रात 8 बजे के बाद देश में बहुत कुछ बदल गया है। इस तारीख ने देश में अफरातफरी का माहौल पैदा कर दिया। 500 रुपए और 1000 रुपए के नोट ही नहीं बदले बल्कि इस बदलाव ने हमारे देश की राजनीति की दशा और दिशा ही बदल कर रख दी है। केन्द्र में बैठी सरकार जहां अपनी पीठ थपथपा रही है वहीं विपक्ष लामबंद होकर सरकार की खटिया खड़ी करने की फिराक में है। सवाल उठता है कि क्या प्रधानमंत्री ने विपक्ष को खुद पर हमला करने का ब्रह्मास्त्र थमा दिया है?
मोदी जी कैसे करें आप पर विश्वास?
500 और 1000 रुपए की नोट को बदलने का फैसला निसंदेह अच्छा और प्रशंसनीय है। टेरर फंडिंग और काली मुद्रा को बाहर निकालने का बेहतर विकल्प भी है। लेकिन ऐलान के बाद जिस तरह की अफरा-तफरी मार्केट में मची उससे तो लगता है जैसे आधी अधूरी तैयारी के साथ मैदान में सरकार उतरी। ना शादी के मौसम का ख्याल रखा गया और ना अन्य करेंसियों (50 या 1000 रुपए की नोट) को बाजार में ज्यादा तादाद में उतारा गया। शायद उन्हें अंदाजा नहीं था कि इस कदम का आफ्टर इफेक्ट इतना कष्टकारी होगा। स्क्रीन पर दिख रहा है कि अकूत सम्पति को लोग गंगा में बहा रहें हैं, कोई कागज के इन टुकड़ों को जला रहा है, तो ये भी खबर आई कि देश के बिजनेस कैपिटल में नकदी बदलवाने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही बुजुर्ग ने दम तोड़ दिया। सवाल वही इतनी जल्दबाजी क्यों?