वॉचडॉग्स को सुना नहीं जाएगा तो उनके पास काटने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा: जस्टिस जोसेफ
सत्ता विमर्श ब्यूरो
नई दिल्ली: जस्टिस चेलमेश्वर के बाद सुप्रीम कोर्ट के एक और बड़े जज ने सेवानिवृति के बाद किसी भी सरकारी पद पर ना बने रहने का फैसला लिया है। ऐसा जस्टिस कुरियन जोसेफ ने कहा है। जो पहले भी जस्टिस चेलमेश्वर के साथ कोलेजियम व्यवस्था और न्यायपालिका के हक और रसूख को लेकर सार्वजनिक तौर पर अपनी राय जाहिर कर चुके हैं। इसके साथ ही उन्होंने लोकतंत्र की मजबूती के लिए मीडिया और न्यायपालिका को सजग रहने की ताकीद भी दी। उन्होंने ये बातें केरल मीडिया एकेडमी के छात्रों से एक कार्यक्रम के दौरान कही।
लोकतंत्र के दो प्रहरी
छात्रों से मुखातिब जस्टिस जोसेफ ने ये भी कहा कि हमारे लोकतंत्र के दो वॉचडॉग्स (प्रहरी) हैं। एक न्यायपालिका और दूसरा मीडिया। दोनों ही प्रहरियों को काफी सजग रहना होगा, उन्हें भौंकना होगा ताकि लोकतंत्र जिंदा रहे...भौंकना होगा ताकि मालिक की संपत्ति को खतरा ना पहुंचाया जा सके। ये बयान इसलिए भी अहम है क्योंकि इन दिनों कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच काफी खींचतान चल रही है। उन्होंने आगे कहा- भौंकना इसलिए भी जरूरी है ताकि मालिक को चेताया जा सके और अगर इससे भी बात नहीं बने यानी मालिक उसकी तरफ ना देखे और खतरा बढ़ता जाए तो उसके पास काटने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। ये स्थिति उस कहावत के विपरीत होगी जहां कहा जाता था barking dogs seldom bite यानी दूर से भौंकने वाले कुत्ते काटते नहीं। जस्टिस जोसेफ की ये टिप्पणी भी जस्टिस चेलमेश्वर के उस बयान से मेल खाती है जिसमें उन्होंने कहा था कि हम लोग निजी संपत्ति नहीं बल्कि संस्थागत मुद्दों की लड़ाई लड़ रहें हैं।
नहीं लूंगा कोई सरकारी पद
एक छात्र के सवाल के जवाब में जस्टिस जोसेफ ने कहा कि वो सेवा मुक्त होने के बाद किसी भी सरकारी पद पर तैनात होने की ख्वाहिश नहीं रखते हैं। गौरतलब है कि इनसे एक दिन पहले ही जस्टिस चेलमेश्वर ने ठीक यही बात कही थी। हार्वर्ड क्लब ऑफ इंडिया में ‘रोल ऑफ ज्यूडिशरी इन ए डेमोक्रेसी’ पर आयोजित समारोह में उन्होंने कहा था कि वो ऑन रिकॉर्ड कहना चाहते हैं कि 22 जून को रिटायरमेंट के बाद वो किसी भी सरकारी पद पर आसीन नहीं होंगे।
रिटायरमेंट के बाद पद पर सवाल क्यों?
दरअसल, प्रधान न्यायाधीश पद से रिटायर होने के कुछ ही अर्से बाद 2014 में जस्टिस पी सतशिवम् को केरल का राज्यपाल बना दिया गया था जिसकी विपक्ष ही ने नहीं बल्कि कानूनविदों ने भी आलोचना की थी। तर्क था कि देश की सर्वोच्च न्याय संस्था के प्रमुख या फिर किसी भी न्याययिक प्रक्रिया से जुड़े व्यक्ति को राज्यपाल जैसे पद पर बैठना न्यायपालिका का राजनीतिककरण जैसा ही है। सेवानिवृत्ति के कुछ महीने बाद ही होने वाले सतशिवम को केंद्र सरकार ने राज्यपाल के पद पर नियुक्त देकर नियुक्ति प्रक्रिया को संदेह के घेरे में ला दिया था। विरोध इस बात पर भी था कि न्यायपालिका की शीर्ष संस्था के पूर्व मुखिया को छह माह में ही संवैधानिक पद पर नियुक्ति देना भी किसी प्रलोभन से कम नहीं है। वहीं हाल ही में सेवानिवृत्त जस्टिस एमएल दत्तू को भी मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है।
तब भाजपा का था कुछ और रुख
2012 में अरुण जेटली ने भी कहा था कि जजों में रिटायरमेंट के बाद पद लेने की जो होड़ है उससे न्यायपालिका की निष्पक्षता पर असर पड़ रहा है। उन्होंने कहा था कि न्यायिक फैसलों के ज़रिए रिटायरमेंट के बाद के पद बनाए जा रहे हैं। जजों का कार्यकाल तय किया जाए और उनका पेंशन उनके आखिरी वेतन के बराबर रखने चाहिए। तब नितिन गडकरी ने भी जेटली की बातों का समर्थन करते हुये कहा था कि रिटायरमेंट के बाद जजों को दो साल तक के लिए कोई पद नहीं देना चाहिए। यदि उन्हें पद दिया गया तो सरकार प्रत्यक्ष तौर से कोर्ट को प्रभावित कर सकती है और निष्पक्ष न्यायपालिका का सपना देश का कभी पूरा नहीं हो पाएगा। अरुण जेटली ने कहा था कि जज दो तरह के होते है एक कानून जानते हैं और दूसरे जो कानून मंत्री को जानते हैं ।
जस्टिस जोसेफ उन्हीं चार वरिष्ठतम जजों में से एक हैं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में रोस्टर को लेकर इसी साल जनवरी में जस्टिस चेलमेश्वर के घर पर एक प्रेस वार्ता की थी और नवंबर 2017 में भारत के मुख्य न्यायाधीश को प्रेषित चिट्ठी सार्वजनिक की थी और चीफ जस्टिस द्वारा सुप्रीम कोर्ट के जजों को केस आवंटन करने में भेदभाव का मुद्दा उठाया था। यह देश के न्यायिक इतिहास की बड़ी घटना थी, जब चीफ जस्टिस के खिलाफ कॉलेजियम के चार वरिष्ठ सदस्यों ने मोर्चा खोल दिया हो।