तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने देश के विभाजन के लिए पंडित नेहरू को ठहराया जिम्मेदार
सत्ता विमर्श ब्यूरो
पणजी : तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने देश के विभाजन के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि अगर नेहरू आत्मकेंद्रित नहीं होते तो आज भारत और पाकिस्तान एक देश होता है।
पणजी से करीब 30 किलोमीटर दूर उत्तर गोवा के सांकेलिम गांव में गोवा प्रबंधन संस्थान में आयोजित परिचर्चा के दौरान एक छात्र के सवाल का जवाब देते हुए दलाई लामा ने कहा, महात्मा गांधी प्रधानमंत्री का पद मोहम्मद अली जिन्ना को देना चाहते थे, लेकिन नेहरू ने मना कर दिया। वह आत्मकेंद्रित थे। उन्होंने गांधी से कहा कि मैं प्रधानमंत्री बनना चाहता हूं। अगर जिन्ना को प्रधानमंत्री उस समय बनाया गया होता तो भारत और पाकिस्तान संयुक्त होता। पंडित नेहरू बहुत अनुभवी थे, लेकिन भूल तो हो ही जाती है।
छात्रों के सवालों के जवाब में दलाई लामा ने कहा, 'मुझे लगता है कि सामंती व्यवस्था की बजाय लोकतांत्रिक प्रणाली कहीं ज्यादा अच्छी होती है। सामंती व्यवस्था में फैसले लेने का अधिकार कुछ लोगों में निहित होता है जो ज्यादा खतरनाक होता है। भारत में देखिए, मुझे लगता है कि महात्मा गांधी प्रधानमंत्री का पद जिन्ना को देना चाहते थे, लेकिन पंडित नेहरू ने इन्कार कर दिया। मुझे लगता है कि यह कुछ हद तक पंडित नेहरू की आत्मकेंद्रित सोच थी कि उन्हें प्रधानमंत्री बनना चाहिए। अगर महात्मा गांधी की सोच को अमलीजामा पहनाया जाता तो भारत और पाकिस्तान एक होते। मुझे अच्छी तरह पता है कि पंडित नेहरू बेहद अनुभवी और बुद्धिमान व्यक्ति थे, लेकिन कई बार गलतियां हो जाती हैं।'
भारतीय मुस्लिमों से शिया-सुन्नी संघर्ष घटाने की अपील करते हुए दलाई लामा ने कहा कि इस्लाम शांति का संदेश देने वाला धर्म है। शिया और सुन्नी इस्लाम के दो प्रमुख पंथ हैं। पैगंबर मुहम्मद की 632 ईसवी में मृत्यु के बाद उनके रास्ते अलग हो गए थे, लेकिन फिर भी दुनियाभर के मुस्लिम एक ही कुरान को मानते हैं और दिन में पांच बार नमाज पढ़ते हैं। इसके बावजूद वे एक दूसरे के खून के प्यासे हैं।
बातचीत से पहले दलाई लामा ने भारत के पारंपरिक ज्ञान का शिक्षा के आधुनिक पहलुओं में विलय पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा, भारत की संस्कृति में परंपरा और ज्ञान समाहित है। अहिंसा की धरती परंपरागत ज्ञान का कड़ाह है, जिसमें चिंतन, करुणा, धर्मनिरपेक्षता और कई अन्य बातें शामिल हैं। एक छात्र ने जब दलाई लामा से पूछा कि ऐसा कौन सा सबसे बड़ा डर है जिसका उन्होंने जीवन में सामना किया, तो उन्होंने बताया कि जब वह 17 मार्च, 1959 की रात अपने समर्थकों के साथ तिब्बत से निकल भागे थे तो उन्हें बस एक ही डर सता रहा था कि वह अगला दिन देख पाएंगे या नहीं। इस संदर्भ में उन्होंने कहा कि चीन की ताकत उसका सैन्य बल है। उन्होंने कहा कि तिब्बती चीन के लोगों को कभी अपना दुश्मन नहीं मानते।
दलाई लामा ने कहा कि 'दलाई लामा संस्था' अब राजनीतिक रूप से प्रासंगिक नहीं रह गई है। अब यह तिब्बत के लोगों को तय करना है कि इस प्राचीन परंपरा को जारी रखना है अथवा नहीं। उन्होंने कहा कि चीन की सरकार राजनीतिक कारणों से उनकी बजाय इस संस्था के प्रति ज्यादा चिंतित है। मालूम हो कि दलाई लामा एक उपाधि है जो तिब्बती लोगों के आध्यात्मिक नेताओं को प्रदान की जाती है। अगले दलाई लामा के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि विभिन्न बौद्ध परंपराओं के नेता हर साल नवंबर में तिब्बत में एक बैठक करते हैं। इस नवंबर में भी यह बैठक होगी। पिछली बैठक में उन्होंने फैसला किया था कि जब मेरी उम्र करीब 90 वर्ष हो जाएगी तो नेताओं का यह समूह अगले दलाई लामा के बारे में फैसला लेगा।