समीक्षा : आम आदमी का पक्षकार है उपन्यास अंधेरे कोने
आलोक वर्मा
टेरी इग्लटन ने लिखा है- पाठ यथार्थ से अपने संबंध में स्वतंत्र है। वह चरित्र एवं परिस्थिति को स्वतंत्ररूपेण सृजित करता है, किंतु वैचारिकी से अपने संबंध में स्वतंत्र नहीं। वैचारिकी से केवल वे संकल्पनाएं, सिद्धांत एवं नियम अभिप्रेत नहीं, जिनकी हम चेतना रखते हैं, अपितु सौंदर्यशास्त्र, पराभौतिकता, न्याय व्यवस्था समेत वे सारे तंत्र भी जिनके आलोक में व्यष्टि भोगे हुए अनुभव की मानसिक अवधारणा स्थापित करता है। पाठ के माध्यम में प्रकट होने वाले अर्थ एवं अवधारणाएं वस्तुतः उस यथार्थ की संकल्पना की पुनर्संकल्पना होते हैं, जिन्हें वैचारिकी ने स्थापित किया है।
ओमप्रकाश तिवारी के डिजिटल उपन्यास 'अंधेरे कोने' को पढ़ने के दौरान ये बातें बार-बार सामने आती हैं। समकालीन व्यवस्था मनुष्य को संवेदन शून्य करने का हर संभव प्रयास कर रही है। क्योंकि मनुष्य की संवेदना ही उसे परिवर्तन के लिए प्रेरित करती है। वैश्वीकरण ने केवल हमारी जिस्मानी, समाजिक जरूरतों को एकीकृत नहीं किया है बल्कि संवेदना के स्तर पर भी ऐसी स्थितियों को निर्मित किया है। इस व्यवस्था की क्रूरताओं और बर्बरताओं का स्तर काफी ऊपर चला गया है। अंधेरे कोने का नायक अमर पेशे से पत्रकार है। उसकी समझ बहुत साफ है। वह यूपी के किसी गांव का रहने वाला है। अपर कास्ट का है। निम्न मध्य वर्ग या निम्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। वह अपना पक्ष बहुत ही दमदार तरीके से रखता है। अंधेरे कोने के नायक की विशेषता ही यह है कि वह अत्याचार होता देख न सिर्फ दुखी होता है बल्कि शोषण करने वालों से लड़ जाता है। चाहे वह अखबार के दफ्तर की बात हो, सड़क पर रेहड़ी लगाने वाले की तरफदारी हो या किसी अन्य गरीब या शोषित के पक्ष लेने का मामला हो। उसका विद्रोही तेवर हमेशा सच के हक में होता है।
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एक उदाहरण देखिए- मैडम गरीब दुखिया को खाने के लिए दीजिए। भगवान भला करेगा। एक 10-12 साल की लड़की मैले-कुचैले कपड़े में कार के पास खड़ी अनु से विनती कर रही थी। बच्ची ने फिर से कार का शीशा खटखटाया और वही पुरानी रट लगाई। यह बिना कुछ लिए जाने वाली नहीं है। अमर ने अनु से कहा। अनु ने कहा- डांट कर भगा दें तो? अमर ने कहा- यह कोई इंसानियत नहीं होगी। अनु ने प्रतिवाद करते हुए कहा- इसे पैसे देने का मतलब है भीख के धंधे को बढ़ावा देना। अमर भड़क गया और कहा- क्या कुतर्क कर रही हैं आप? आप लोग न तो मजदूरों को उनकी मेहनत की पूरी मजदूरी देना चाहती हैं और न ही असहाय गरीब लोगों का भला करना चाहती हैं। न देने का अच्छा तर्क है कि भीख मांगने को बढ़ावा मिलेगा। आपके यहां काम करने वालों की हालत साल दर साल खराब होती जाती है। महंगाई बढ़ती 20 फीसदी है और श्रमिकों का वेतन बढ़ाया जाता है पांच फीसदी आखिर क्यों? पूंजी बढ़ती है क्योंकि वह श्रमिकों का हिस्सा हड़पती है। यह अमानवीय है। यही शोषण है। यही श्रमिकों की बदहाली के लिए जिम्मेदार है। इसी मानसिकता के कारण करोड़ों लोग नारकीय जीवन जीते हैं। उनके बच्चे सड़कों पर भीख मांगते हैं।
दूसरा उदाहरण देखिए- लेकिन मैडम सच कड़वा होता है। वह जिसके खिलाफ जाता है उसे वह स्वीकारता ही नहीं। फिर वह कहता है कि फलां आदमी पागल हो गया है। इससे भी बात नहीं बनती तो कहता है कि वह कम्युनिस्ट है। जब इससे भी बात नहीं बनती तो कहता है कि नक्सली हो गया है। कई बार तो आतंकी घोषित कर देता है। इस तरह अपने विरोधी को खत्म करना आसान हो जाता है...। लेखक ने कई साल पहले यह बात कही थी। अब तो सरकार गरीबों, शोषितों के लिए काम करने वाले वुद्धिजीवियों को अरबन ऩक्सल घोषित कर देशद्रोह का आरोप लगा जेल में डाल रही है। पाठक पाठ में सृजित वस्तु का स्वतंत्ररूपेण अर्थ ग्रहण नहीं कर सकता, वरंच कृतिकार भी मस्तिष्क में रहता है और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी जिसमें पाठ अस्तित्व में आया। अर्थग्रहण में इन सबका साथ होता है। रचनात्मक व्याख्या का लक्ष्य व्यक्त अर्थ के सच की खोज है और उसके लिए कई विचार-सारणियों से गुजरना पड़ता है ताकि व्यक्त या अव्यक्त में अन्तर्निहित सत्य की खोज की जा सके। यह प्रक्रिया सहज नहीं है बल्कि संश्लिष्ट है। देश की शिक्षा व्यवस्था को लेकर अमर के विचार देखिए। क्या उसकी चिंता जायज नहीं है? '... शिक्षा तो ऐसी होनी ही चाहिए जो बेहतर काम दे। यह सरकार का दायित्व बनता है कि वह अपने प्रत्येक नागरिक को इस लायक बनाए कि वह बेहतर जीवन जी सके। लेकिन हमारी सरकार ऐसा करना ही नहीं चाहती।... वह न तो शिक्षा पर खर्च करना चाहती है न ही वह ऐसी शिक्षा नीति बनाना चाहती है जिसमें सभी का भला हो। वह तो समाज का वर्गीकरण बनाए रखना चाहती है।' यह एक सच्चाई है।
उपन्यास की शुरुआत देश विच कंट्री अध्याय से होती है जिसका उप शीर्षक है- सॉरी, यू आर नॉट सूटेबल फॉर माई टीम। इसमें हिंदी की दुर्दशा का चित्रण है। हिंदी की कमाई खाने वाले किस तरह से अंग्रेजी के गुलाम बने हुए हैं। अमर जब हिंदी फिल्म, सीरियल और विज्ञापन निर्माता से अपनी कहानी के बारे में पूछता है तो वह कहता है- 'आप तो जानते ही होंगे कि इस कंट्री में दो कंट्री बन गई है। एक में इंडियन रहते हैं तो दूसरे में भारतीय।' ब्रदर इतना मान लीजिए कि आपको यदि सफल होना है, तरक्की करनी है तो अंग्रेजी भाषा से भाग नहीं सकते। यह बात यदि आप पहले समझ लिए होते तो आज आप मेरी टीम के सदस्य होते और लाखों रुपये महीना कमाते। आपकी पूरी लाइफ स्टाइल बदल जाती।' अमर अंग्रेजी के समानांतर हिंदी को प्रतिष्ठा दिलाने की लड़ाई उपन्यास में कई जगह लड़ता नजर आता है। उसे अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी में लिखने और अंग्रेजी के कम ज्ञान पर अपमानित होना पड़ता है। इसके बावजूद वह जिद की हद तक जाकर हिंदी का समर्थन करता है और नुकसान उठाता है। उसे अखबार में भी इसका खामियाजा उठाना पड़ता है। योग्यता और सीनियॉरिटी के बावजूद प्रमोशन नहीं मिलता, जूनियर को बॉस बना दिया जाता है।
दूसरा वाकया है एक फैक्टरी में सुपरवाइजर के इंटरव्यू का, जहां अंग्रेजी न आने पर उसे बुरी तरह से बेइज्जत किया जाता है। यथार्थ के भीतर प्रवेश कर यथार्थ के वास्तविक और विकासमान रूप को समझा जा सकता है। किसी भी लेखक के लिए अनुभूत यथार्थ, निरीक्षण क्षमता और कल्पनाशीलता का होना अनिवार्य होता है। किंतु अनुभव के साथ रचनाकार की वैयक्तिक संवेदना का तदात्मीकरण न हो तो वह प्रामाणिक नहीं होता। ओमप्रकाश तिवारी के उपन्यास में यथार्थ का यह रूप सामने आता है। अमर के माध्यम से दिल्ली में तेजी से आ रहे बदलाव का चित्रण देखिए- आज जहां यह फ्लाईओवर और सड़क है कभी यहां यमुना पुश्ता हुआ करता था। जहां पर भारत का एक भाग बसता था...। लक्ष्मी नगर चुंगी से शकरपुर के स्कूल ब्लाक से होते हुए पांडव नगर रेलवे लाइन तक पुश्ते पर स्लम बस्ती थी। एक दूसरा चित्रण देखिए- अमर भाई के कमरे पर गया तो उसे फिर एक आघात लगा। छोटा सा कमरा था जिसमें अजीब सी बदबू आ रही थी। इस कमरे में अपने तीन साथियों के साथ समर रहता था। अब चौथा अमर आ गया था। चार लोग इसमें कैसे रह लेंगे? अमर ने खुद से पूछा था। कम से कम बीस कमरों वाले इस मकान में लैट्रिन-बाथरूम एक ही था। वह भी इतना गंदा कि उसमें जाने की अमर की इच्छा ही नहीं हुई। इस इलाके में अधिकतर मकानों का ऐसा ही हाल था। यहां रहने वाले लोग सुबह-शाम बोतल में पानी लेकर दिशा-मैदान के लिए यमुना के किनारे स्थित खेतों में जाते थे। खेत बहुत कम खाली रहते। लोग किसी तरह जगह तलाशते और टट्टी के ऊपर टट्टी करते। अमर तो पुरुष था बिना आड़ के चार लोगों के सामने भी बैठकर शौच कर लेता लेकिन औरतों का हाल बुरा था। कई बार औरतें शौच के लिए बैठी होतीं और उनके सामने ही कोई पुरुष भी शौच कर रहा होता।
समकालीन व्यवस्था मनुष्य को संवेदना शून्य करने का हर संभव प्रयास कर रही है। क्योंकि मनुष्य की संवेदना ही उसे परिवर्तन के लिए प्रेरित करती है। वैश्वीकरण ने केवल हमारी जिस्मानी, समाजी जरूरतों को एकीकृत नहीं किया है बल्कि संवेदना के स्तर पर भी ऐसी स्थितियों को निर्मित किया है। अब एक चित्रण बाजारीकरण को लेकर है- अमर की निगाह अपने सामने की होर्डिंग पर गई। बिजली की दुधिया रोशनी में नहाया बोर्ड भव्यता के साथ खड़ा एक उत्पाद का गुण प्रदर्शित कर रहा था। बोर्ड पर लिखी इबारत अंग्रेजी में थी। तस्वीर में हिंदी फिल्म का एक अभिनेता, जिसका पिता भी अभिनेता है और दादा हिंदी का प्रसिद्ध कवि था, संबंधित उत्पाद पर मुग्ध और आत्मतुष्टि के भाव से मुस्कुरा रहा है। लेकिन यह बेवकूफ किसे बना रहा है? जिस उत्पाद का प्रचार कर रहा है, उसका उपभोक्ता कौन है? भारतीय या इंडियन? शायद दोनों लेकिन कंपनी इसके बहाने भारतीयों को ही निशाना बना रही है। पत्रकार दोस्तों के बीच अमर कहता है- इसमें कोई शक नहीं कि इनसान को पूंजीवादी व्यवस्था से बेहतर व्यवस्था का निर्माण करना होगा। तभी इस धऱती पर उसका अस्तित्व बच पाएगा। वरना यह तो तय है कि पूंजीवाद इंसान को खत्म कर देगा। इंसानियत और मानवता को तो इसने खत्म कर ही दिया है। मानव सभ्यता को भी चट कर जाएगी। इस व्यवस्था का मुख्य मकसद केवल धनपशु पैदा करना है। एक तरफ धनपतियों की संख्या में उनके धन में इजाफा हो रहा है तो दूसरी ओर गरीबों की संख्या बेतहाशा बढ़ती जा रही है। कुछ लोगों के सुख के लिए अधिकतर लोगों पर अत्याचार क्यों! शोषण क्यों! कल्याण के नाम पर केवल दया वह भी दिखावे की। यह सब कब तक चलेगा! ऐसी क्रूर व्यवस्था को तो एक दिन जाना ही है।
और उपन्यास का अंत यह है कि जिंदगी भर जिन बुराइयों के लिए अमर लड़ता रहा, समझौते करने से बचता रहा अंत में उसी से समझौता कर लेता है। उसकी प्रेमिका करोड़पति बाप की बेटी अनु न सिर्फ उसके घर पहुंच जाती है बल्कि उसके बच्चों के लिए महंगी बाइक, घर में सोफा सेट आदि खरीदकर रखवा देती है। इस तरह वह मदद के नाम पर उसके परिवार को खरीद लेती है। और फिर अमर को अपनी कार में लेकर चली आती है ताकि अमर और अनु का बिजनेस कम लेखन का काम जारी रहे और अनु की शारीरिक जरूरतें भी पूरी होती रहें। इसी के साथ उपन्यास खत्म हो जाता है। इस तरह परिवार का पेट पालने और अपने व बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए अमर अपने उसूलों से समझौता कर लेता है। 'अंधेरे कोने' की कहानी बहुत तेजी से दौड़ती है। उसकी रफ्तार इतनी तेज है कि पता ही नहीं चलता कि यह कहानी कब से कब तक की है? यह जरूर है कि लेखक ने बीच में चुनाव का जिक्र किया है और उसमें जो वर्णन किया है उससे अंदाजा होता है कि यह समय वर्ष 2014 का होगा। लेकिन समय काल का स्पष्ट वर्णन होता तो कहानी और वजनदार हो जाती और पाठक को समझने में सुविधा रहती।
उपन्यास में समाज की विद्रूपताओं, बुराइयों का चित्रण लेखक ने पात्रों के माध्यम से किया है। अमर इस व्यवस्था से लड़ता है। बार-बार अपमानित भी होता है, परंतु मौके दर मौके सच्चाई कहने में हिचकता नहीं है। उसकी यह बेबाकी उपन्यास को एक विशेष अर्थ प्रदान करती है। लेखक ने जिन बुराइयों का वर्णन किया है वे पिछले एक-दो या दस सालों में घटी नहीं बल्कि और वीभत्स रूप में सामने आई हैं। शोषण के हथियार और नुकीले व तीखे हुए हैं। इसका एक कारण सरकारी तंत्र को निर्लज्जता से समर्थन देना है। इस दौर में सबसे निराशाजनक पहलू है वह प्रतिरोध का लगातार कम होना। अब मनीषियों को इस पर विचार करना होगा कि आखिर क्या कारण है कि दुखों के लगातार विद्रूप होते जाने के बावजूद विरोध के स्वर कमजोर पड़ते जा रहे हैं।
(वरिष्ठ पत्रकार, आलोचक और उपन्यासकार ओमप्रकाश तिवारी द्वारा लिखित उपन्यास अंधेरे कोने को आप https://notnul.com पर जाकर पढ़ सकते हैं।)