गैरसैंण पर भाजपा-कांग्रेस का चुनावी स्टंट
शंकर सिंह भाटिया
फिल्मी स्टंट जिस तरह नाटकीय और झूठा होता है, उसी तरह 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा-कांग्रेस का गैरसैंण प्रेम चुनावी स्टंट की तरह झूठ का पुलिंदा साबित हो रहा है। राज्य गठन से ही भाजपा द्वारा गैरसैंण को दरकिनार करने का राजनीतिक लाभ लेने के लिए कांग्रेस ने विधानभवन के निर्माण का निर्णय लिया था, अब भाजपा केंद्रीय रेल मंत्री को गैरसैंण लाकर गैरसैंण की राजनीतिक संभावनाओं का लाभ अकेले कांग्रेस को लेने से रोकना चाहती है। लेकिन यह साफ है कि दोनों गैरसैंण की भावनाओं का सम्मान करने के बजाय चुनाव से ऐन पहले उसका राजनीतिक लाभ झटकने के अल्पकालिक मूड में हैं।
गैरसैंण कोई एक स्थान नहीं बल्कि पहाड़ की भावना का प्रतिनिधित्व करता है। जिस पहाड़ के लिए इस राज्य की परिकल्पना की गई थी, इन 16 सालों में वह लगातार उजड़ता, बर्बाद होता चला गया है। 16 साल में बर्बाद होते जा रहे पहाड़ों में पहली बार एक सीमा तक गैरसैंण चुनावी मुद्दा बनता दिखाई दे रहा है। इसलिए भाजपा और कांग्रेस स्टंटबाजी कर इस संभावना को अपने पक्ष में करने की फिराक में जुटे पड़े हैं।
भाजपा को ले लीजिए। जिस भाजपा ने राज्य आंदोलन के दौरान राजधानी के लिए गैर विवादित गैरसैंण को सलीब पर टांग कर पूरी तरह दरकिनार कर दिया था, उसे हरिद्वार लक्सर, देहरादून, काशीपुर, रुद्रपुर, हल्द्वानी की रेल योजनाओं का शिलान्यास तथा घोषणाएं गैरसैंण जाकर करनी पड़ रही है। अपनी तरफ से तो गैरसैंण को पूरी तरह दरकिनार करने वाली भाजपा ने अब तक गैरसैंण में जितने भी सत्र हुए हैं उनको बर्बाद करने में विलेन की भूमिका निभाई है।
अभी हाल में चुनाव से पहले गैरसैंण में हुए आखिरी सत्र में जब भाजपा के आधे से अधिक विधायक गैरसैंण नहीं पहुंचे तो भाजपा ने सत्र का ही बहिष्कार कर दिया। जनता भाजपा के इस चरित्र को बहुत अच्छी तरह देख रही है। यदि इस बार चुनाव में कहीं भी गैरसैंण कोई भूमिका निभाने की स्थिति में होता है तो भाजपा किस मुंह से जनता के सामने जाएगी, इसी को देखते हुए दिल्ली से रेल मंत्री सुरेश प्रभाकर प्रभु को गैरसैंण लाकर उन परियोजनाओं का शिलान्यास किया गया, जिसका गैरसैंण और इस पहाड़ से कोई लेना देना नहीं है।
फिर भी बहुप्रतीक्षित ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन को लेकर सुरेश प्रभु की पोटली खाली थी। सवाल उठना लाजिमी है कि आप गैरसैंण क्यों आए? इससे तो भाजपा की पोल पट्टी ही खुलती है। गैरसैंण को लगातार दरकिनार करने वाली भाजपा के घोषणा पत्र बनाने से पहले बने विजन डाक्यूमेंट में जब गैरसैंण का जिक्र तक नहीं हुआ तो साफ हो गया कि भाजपा गैरसैंण पर सिर्फ स्टंट कर रही है। यदि बात कांग्रेस की करें तो उसके नाम गैरसैंण में विधान भवन का निर्माण दर्ज है। लेकिन कांग्रेस ने गैरसैंण में विधान भवन का निर्माण क्यों किया? वह खुद इसके उद्देश्य को लेकर भ्रम की स्थिति में है।
माना जा रहा था कि चुनाव से पहले गैरसैंण में हुए आखिरी सत्र में कांग्रेस गैरसैंण में ग्रीष्मकालीन राजधानी जैसा कुछ घोषित कर सकती है। लेकिन कांग्रेस इसकी हिम्मत नहीं जुटा पाई। कांग्रेस दावा करती है कि गैरसैंण में अवस्थापना सुविधाएं जुटाई जा रही हैं। इससे पहाड़ का विकास होगा। यदि इस बात में जरा सी भी सच्चाई होती तो पहाड़ दिन प्रतिदिन खाली नहीं होते जाते।
कांग्रेस खुद उहापोह की स्थिति में है। वह गैरसैंण के प्रति भाजपा के नकारात्मक भावना का चुनावी लाभ लेना चाहती है, लेकिन पहाड़ की जिस भावना का गैरसैंण प्रतिनिधित्व करता है, कांग्रेस उसका सम्मान करने से कतरा रही है। कांग्रेस का यह डर मैदानी भावना को लेकर भी है। यदि गैरसैंण को कुछ दे दिया तो मैदान में कांग्रेस भाजपा से पिछड़ सकती है। अब तो मैदान में ही अधिक सीटें हैं, इसलिए कांग्रेस गैरसैंण को कुछ देकर बहुत कुछ देने से बचना चाहती है।
इस गैरसैंण चुनावी स्टंट में भाजपा-कांग्रेस गैरसैंण में खड़े होकर पहाड़ के साथ प्रतीकात्मक हमदर्दी दिखाते हुए मौजूद रहना चाहते हैं, लेकिन दोनों पार्टियों की चिंता और सोच मैदान के साथ है। मैदान का वजन दोनों पर भारी पड़ रहा है। पहाड़ी मतदाता इन दोनों दलों का पिछलग्गू है। मैदानी मतदाता के पास ज्यादा विकल्प हैं, इसलिए भाजपा-कांग्रेस को मैदानी मतदाता की चिंता ज्यादा है। मैदान के लिए पहाड़ का दरबदर करने की भाजपा-कांग्रेस की राजनीति लगातार और तीखी होती जा रही है। पहाड़ की बदहाली इसी में छिपी हुई है।
(लेखक उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता अथवा सच्चाई के प्रति सत्ता विमर्श उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)