कांग्रेस को एक पूर्णकालिक राजनेता की दरकार
हर्षवर्धन त्रिपाठी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल के आखिरी दिन जो बोला, उस पर टिप्पणी करने के लिए कांग्रेस की तरफ से दूसरी, तीसरी पंक्ति के नेता ही मिल पाए। उसकी वजह ये रही कि पार्टी के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी छुट्टी पर थे। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, जब राहुल गांधी छुट्टी पर थे। संसद सत्र का समय हो या बिहार चुनाव राहुल गांधी ने ऐसा कई बार किया है। यहां तक कि देश में रहते भी राहुल गांधी अपनी सुविधानुसार ही राजनीतिक सक्रियता दिखाते हैं।
90 के दशक में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रसंघ की राजनीति और संगठन का कामकाज देखने के दौरान मेरे लिए जो दो बातें जो सबसे अहम होती थीं उसमें पहली ये कि दूसरा नेता या संगठन क्या कर रहा है और उससे बेहतर हम क्या कर सकते हैं। दूसरी बात ये कि कल सुबह आने वाले अखबार में हमारा किया कैसे छपेगा। हालांकि, छात्रसंघ या छात्र संगठन की राजनीति करने वाले कुछ लोग ऐसे भी होते थे जो सिर्फ इस बात कि चिन्ता करते थे कि कैसे छप जाया जाए। अच्छा, बुरा कुछ भी, कैसे भी। पहली दोनों बातें ध्यान में रखने वाले राजनीति में धीरे-धीरे तपे-तपाए नेता के तौर पर स्थापित होते गए और इसी प्रक्रिया में वो पूर्णकालिक राजनेता बन जाते हैं। हालांकि छपास रोगी नेता लम्बे समय तक नहीं चल पाते हैं और अगर चल भी गए तो गम्भीर नेता की उनकी छवि कभी नहीं बन पाती। यहां तक कि राजनीति में ज्यादा समय देने के बावजूद सिर्फ छपासी नेता पूर्णकालिक राजनेता नहीं बन पाते।
देश की राजनीति में और राज्यों की राजनीति में मजबूत ज्यादातर नेता पहली दो बातों का ठीक से ध्यान रखते हैं और उसी को ध्यान में रखते हुए वह राजनीति में आगे बढ़ रहे हैं। अब सवाल ये है कि फिर राहुल गांधी का राजनीतिक विकास क्यों नहीं हो पा रहा है। लम्बे समय से राहुल गांधी लोकसभा में हैं। कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं, लगभग अध्यक्ष जैसे हैं। और कई बार तो मुझे ये भी लगता है कि ईमानदारी से लोगों की तकलीफों को समझना चाहते हैं। फिर ऐसा क्या है जो उन्हें गम्भीर, पूर्णकालिक राजनेता नहीं बनने दे रहा है। अब उसके कारण तो ढेर सारे हैं। लेकिन, इतना तय है कि कांग्रेस को इस समय एक गम्भीर पूर्णकालिक राजनेता की सख्त जरूरत है। बिना पूर्णकालिक राजनेता के कांग्रेस का विकास क्रम सही नहीं होने वाला। पूर्णकालिक वैसे तो संघ का कॉपीराइट लगता है लेकिन, आज कांग्रेस की ये सबसे बड़ी जरूरत दिखती है।
कांग्रेस के बारे में आम राय यही रही है कि सत्ता की स्वभाविक दावेदार यही पार्टी है। नरेंद्र मोदी की सरकार के पूर्ण बहुमत में आने के बाद भी कई लोग इस तरह की बातें करते दिख जाते हैं। इस स्वभाविक दावेदारी के पीछे ढेरों तर्क हो सकते हैं। लेकिन, मेरी नजर में सबसे बड़ा तर्क यही है कि कांग्रेस पूर्णकालिक राजनेताओं की पार्टी रही है। यानी ऐसे नेता जिनके लिए राजनीति उनका ओढ़ना, बिछौना, खाना-पीना, सोना सब था। पूर्णकालिक राजनेता के तौर पर राजीव गांधी कमजोर साबित हुए थे और उस कमजोरी का नुकसान ये हुआ कि अचानक बोफोर्स से भ्रष्टाचार का गोला छूटा और जनता में अपनी छवि को बचा नहीं सके। लेकिन, राजीव गांधी को सीधे प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला था जिसकी वजह से सत्ता ने लम्बे समय तक राजीव गांधी को नेता बनाए रखा। राजीव के जाने के बाद पीवी नरसिंहाराव गजब के पूर्णकालिक राजनेता के तौर पर सामने आए। यही वजह रही कि अल्पमत की सरकार को भी उन्होंने सलीके से चला लिया और भारतीय राजनीति के ढेर सारे चमत्कारिक फैसले ले लिए।
विदेशी मूल का आरोप झेल रही सोनिया गांधी ने इस पूर्णकालिक राजनेता होने के मंत्र को जान लिया और यही वजह रही कि उन्होंने सबसे बड़ा राजनीतिक फैसला लिया, प्रधानमंत्री न बनने का। सबसे लम्बे समय तक वो कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं। बिना प्रधानमंत्री रहे आजाद भारत में शायद ही कोई इतना ताकतवर रहा हो जितनी सोनिया गांधी रहीं। उस सबकी वजह थी उनका पूर्णकालिक राजनेता होना। लेकिन, ये कांग्रेस का दुर्भाग्य कहा जाएगा कि इलाहाबाद में कांग्रेस के मूल स्थान वाले शहर में राजनीति करने वालों की तुलना में राहुल गांधी पासंग भी राजनेता नहीं बन सके हैं। पूर्णकालिक राजनेता होना तो शायद राहुल के मूल स्वभाव के ही विपरीत है। राहुल गांधी निहायत अंशकालिक राजनेता हैं। वो अंशकालिक भी राहुल का तय नहीं होता है। इतने अनिश्चित राजनेता को जनता कैसे स्वीकारे। पूर्णकालिक राजनेता होने का लाभ नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल को किस कदर मिला, ये सबके सामने है। ढेर सारी गलतियों के बाद भी इन दोनों नेताओं का एक पक्का वाला समर्थक वर्ग है। वो समर्थक वर्ग जानता है कि सबके बाद हमारा नेता भागने वाला, गायब होने वाला नहीं है। सर्जिकल स्ट्राइक हो या फिर नोटबंदी- किसी भी मुद्दे पर अपने बयान और व्यवहार से राहुल गांधी एक पूर्णकालिक राजनेता जैसा नहीं दिखे। इसलिए, मुश्किल ये कि कांग्रेस के कार्यकर्ता की छोड़िए, नेता तक को राहुल गांधी के किसी मुद्दे पर निश्चित व्यवहार की उम्मीद नहीं है।
इसीलिए उत्तर प्रदेश में ढेर सारे प्रयोगों, कार्यक्रमों को चलाने के बाद भी राज्य में कांग्रेस का चुनावी भविष्य अब पूरी तरह से समाजवादी पार्टी से समझौते में कुछ सीटें मिलने की आस पर ही टिका हुआ है। और ये भी आस इसलिए बनी है कि पूर्णकालिक राजनेता के तौर पर विकसित हो गए अखिलेश यादव को लग रहा है कि सत्ता में रहने से और परिवारिक मारापीटी के दुष्प्रभाव से बचने में कांग्रेस का साथ कुछ मददगार हो सकता है। लेकिन, यहां भी पूर्णकालिक राजनेता जैसा व्यवहार राहुल गांधी नहीं कर पा रहे हैं। हो ये रहा है कि रणनीतिकार के तौर पर स्थापित हो गए प्रशांत किशोर थकने लगे हैं और इस बुरे हाल में भी पार्टी का झंडा बुलंद करने वाले कांग्रेस नेता खीझने लगे हैं। पहले से ही खीझे कांग्रेसी नेताओं की खीझ राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बिना आधार के आरोप लगाकर और फिर संसद सत्र के आखिरी दिन जाकर प्रधानमंत्री से मिलकर बढ़ा दी है।
अंशकालिक राजनेता होने का ही नुकसान था कि विमुद्रीकरण पर ढेर सारे विपक्षी दलों का समर्थन पा रही कांग्रेस अचानक फिर अकेले हो गई। भूकम्प लाने का दावा करने वाले राहुल गांधी प्रधानमंत्री को हिला देने वाला भूकम्प तो नहीं ला सके। हां, इतना जरूर है कि कांग्रेस की अपनी छत भी गिरती दिख रही है। इसीलिए कांग्रेस को सख्त जरूरत है एक पूर्णकालिक राजनेता की। मेरे हिसाब से वो प्रियंका गांधी भी हो सकती हैं या कोई और भी। कांग्रेस के साथ स्वस्थ लोकतंत्र की सेहत के लिए भी ये जरूरी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और आर्थिक व राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये लेखक के निजी विचार हैं।)