कांग्रेस ही भाजपा का एकमात्र विकल्प-3
गांव और खेती के मॉडल पर काम जरूरी
बब्बन सिंह
ग्लोबलाइजेशन अर्थात भौगोलीकरण के जन्मदाता पश्चिमी राष्ट्रों में ही धीरे-धीरे इसका विरोध शुरू हो गया है और देश के अंदर के (आंतरिक उपनिवेश) भीतर भी इन नीतियों के खिलाफ जब ज्वार-भाटें उठ रहे हों तो एक ऐसी वैकल्पिक आर्थिक नीति की जरूरत है जिसमें काम-काज और नौकरी के सुनिश्चित अवसर दिख रहे हों। हाल के वर्षों में खेती-किसानी की उपेक्षा के कारण देश के सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में इसकी हिस्सेदारी घटकर 17 फीसदी तक नीचे आ गई है जबकि गैर उत्पादक गतिविधि (सेवा क्षेत्र) की हिस्सेदारी 50 फीसदी से ज्यादा ऊपर चली गई है। अगर अगले एकाध दशक तक यह नीति यूं ही चलती रही तो भारत में खेती करने के लिए शायद ही कोई तैयार हो। हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 20-25 साल आयु वर्ग के शहरी युवा खेती के रोजगार में शामिल नहीं होना चाहते। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि 130 करोड़ की आबादी वाले देश में हम अपने बुनियादी खाद्य जरूरतों के लिए दूसरे देशों के मोहताज हो जाएं। सोचिए, कभी दो-तीन वर्षों तक लगातार अकाल पड़ जाए तो क्या होगा? क्या हम 19-20वीं सदी की तरह के दुर्भिक्ष के शिकार नहीं होंगे? तब के अकाल में बंगाल-उड़ीसा के लाखों लोग काल-कवलित हो गए थे।
गांव प्रधान देश में हमने अर्थव्यवस्था के बुनियादी क्षेत्र की उपेक्षा कर सीधे गैर-उत्पादक सेवा क्षेत्र के विकास को अपना मानक बना दिया है। चीन जैसे देश ने भी ऐसी गलती नहीं की है। उसने भी खेती के बाद उत्पादक गतिविधि विनिर्माण क्षेत्र में अपनी श्रेष्टता हासिल की पर आज भी वह हमसे बेहतर खेती पर ध्यान दे रहा है। पर हमने क्या सोच ऐसा किया ठीक से समझ में नहीं आता? कई बार लगता है कि इसके पीछे हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया और जो सामने आया उसी के पीछे हो लिए। निश्चय ही पश्चिम के दबाव में बाजारवादी उपभोक्तावादी नीतियों के पीछे भागने के कारण ही हमने इसके संभावित खतरों पर कभी विचार नहीं किया। अगर कभी किसी ने इन खतरों के प्रति आगाह भी किया तो राजनेताओं, विचारकों और मुख्यधारा की मीडिया ने इस पर कान तक नहीं दिया। जैसा कि हम सब जानते हैं, स्वभाव से मनुष्य भोगवादी है और युवावस्था में यह प्रवृत्ति कुछ ज्यादा ही होती है। बाजारवादी ताकतों ने इसी कमजोरी का फायदा उठाते हुए युवाओं को एक ऐसे प्रलोभन के दलदल में फंसा दिया है जिससे निकलना इतना आसान नहीं।
यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भारत में चीन का आर्थिक मॉडल भी नहीं लागू किया जा सकता क्योंकि कम्युनिस्ट चीन का आज का मॉडल पश्चिम की ही आर्थिक नीतियों का नकल है। साथ ही वहां की शासन व्यवस्था हमसे अलग तानाशाही पर आधारित है। औद्योगिक विकास का चीनी विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) मॉडल भी पश्चिम के बड़े उद्योग-धंधे को ध्यान में रखकर वहां की तत्कालीन परिस्थितियों में तैयार किया गया था। मुफ्त के बराबर के मजदूरों व प्राकृतिक संसाधनों के बल पर चीन में विकसित यह आर्थिक मॉडल को हमने बिना सोचे-समझे अपना लिया पर समुचित परिस्थितियों के अभाव में अपने यहां इसका परिणाम उत्साहवर्धक नहीं रहा है। हालांकि कुल मिलाकर चीन जिस आर्थिक मॉडल पर काम कर रहा है वो भी अब थकान की ओर इशारा कर रही है। साथ ही इस व्यवस्था से पोषित राजकीय तंत्र महायुद्धों से पहले के जर्मनी के हालात की ओर इशारा कर रहे हैं। इसलिए इसके स्थायित्व के बारे में दुनिया भर में फैली आशंका पर ध्यान देने की जरूरत है। इसलिए हमें उस रास्ते पर चलने से भी बचना होगा। हालांकि भारतीय कॉर्पोरेट जगत में अमेरिकी मॉडल के बाद इसे सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिल रही है।
इसलिए कांग्रेस को देश के वर्तमान सामाजिक व राजनैतिक यथार्थ और उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर ही एक ऐसी आर्थिक नीति को तैयार करना चाहिए जिसमें युवाओं को रोजगार के सुनिश्चित अवसर उपलब्ध हो सकें। इसके लिए गांवों के विकास की एक ऐसी स्वदेशी रूपरेखा तैयार करनी चाहिए जो हमारी पारिस्थितिक तंत्र के अनुकूल हो। जैसे खेती के छोटे जोतों को जोतने लायक बनाने के साथ ही उनके मालिकाना हक पर भी निर्णायक कदम उठाना चाहिए। अगर हमें फिर से एक हरित क्रांति करनी है तो उपर्युक्त सुधार के बगैर संभव नहीं। फिलहाल कांग्रेस या भाजपा जिस नीति को बढ़ावा दे रही है वो बिलकुल तदर्थवाद पर आधारित है। इसका धरातल कभी पुख्ता नहीं था और न ही भविष्य में कभी होगा। किसानों को फसल मूल्यों की लागत के डेढ़ गुना देने की जिस बात को भाजपा ने इस साल के बजट में वादा किया है वह भी तदर्थवाद पर ही आधारित है और इसका आधार भी बेहद कमजोर है। इस फार्मूले पर चल रही बहस को तो छोड़ ही दें, मूल बात ये है कि इसको चलाने के लिए न तो सरकार के पास अतिरिक्त धन है और न ही मंशा। इसीलिए कॉर्पोरेट से लेकर किसानी मामलों के जानकार इसका विरोध कर रहे हैं। कॉर्पोरेट का विरोध तो उसके हिस्से के हनन की आशंका से उपजा है पर जानकारों के विरोध के पीछे एक सुनिश्चित सोच है जो गांव व खेती की बुनियादी जरूरतों से जुड़ी है।
खेती-किसानी क्षेत्र की एक और सबसे बड़ी समस्या इसके उत्पादों के दामों पर सरकारी नियंत्रण का होना है। बरसों से शहरों के विकास व उपभोक्तावाद के बढ़ावे की नीति के तहत जिंसों के दाम जान-बूझकर नीचे रखा गया है। सरकार अपने आयात-निर्यात नीति के बल पर इस पैटर्न को बहुत सुचारू रूप से चला रही है पर इससे किसानों को अपने उत्पाद का समुचित मूल्य नहीं मिलता। बिचौलिये या सरकारी मुलाजिम इसका मजा उठा रहे हैं। अब समय आ गया है कि खेती में बुनियादी सुधारों के साथ सरकार कृषि उत्पादों पर मूल्य नियंत्रण की नीति छोड़ दे। हालांकि शहरी मानसिकता के शिकार लोग इसका घोर विरोध करेंगे क्योंकि इससे उनके रसोई का बिल बेकाबू हो सकता है। फिर भी खेती की वर्तमान स्थिति को देखते हुए इसे जल्द ही लागू करना होगा।
मगर गांव व खेती के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन के लिए इतना ही काफी नहीं है। इसके लिए गांव के आसपास ही छोटे और माध्यम दर्जे के खेती के सहायक व इससे इतर स्वतंत्र उद्योग-धंधे को बढ़ावा देने की नीति बनानी होगी। आज़ादी के 70 साल बाद देश अब इस स्थिति में पहुंच गया है जहां से स्वदेशी तकनीक या आसानी से हासिल होने वाली विदेशी तकनीक की सहायता से छोटे व मध्यम दर्जे के उद्योग-धंधों का एक सहज जाल बिछाया जा सकता है। इसके तहत हर जिले या तहसील के चारों ओर वृत्तीय (रिंग रोड नुमा) उद्योग संकुल कायम की जा सकती है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि ऐसे धंधे में शामिल लोग अपने-अपने घरों से निकल कर कार्यस्थल पर आसानी से आ-जा सकेंगे। इस तरह शहरों पर बढ़ते दबाव को आसानी से कम किया जा सकता है। इस तरह देश की जीडीपी में गांव व खेती की हिस्सेदारी 35 से 40 फीसदी तक आसानी से हासिल हो सकती है। इस मॉडल में प्रकृति व पर्यावरण की स्वाभाविक रक्षा होगी और हम कृत्रिम उपायों पर खर्च करने के लिए बाध्य नहीं होंगे।
बहुत पहले गांधी जी ने भी गांव पर आधारित आर्थिक व्यवस्था बनाने की बात की थी पर तकनीक व पूंजी की कमी का हवाला देकर उससे मुंह मोड़ लिया गया था.।पर आज के वैश्विक व्यवस्था और पर्यावरण ह्रास के परिदृश्य में इस तरह के मॉडल की ही सख्त जरूरत है और इसकी कामयाबी में कोई शंका नहीं होनी चाहिए। हालांकि इस प्रक्रिया में बाज़ार व करोड़पतियों को घाटा होगा पर सामाजिक विषमता में कमी आएगी। साथ ही आधुनिक जीवन शैली से उत्पन्न समस्याओं से आसानी से छुटकारा मिलेगा। आज भारतीय समाज जिस मुहाने पर आ खड़ा हुआ है उसमें हमारी अधिकांश आबादी पश्चिम की जीवन शैली चाहती है पर यह सबके लिए जुटाना संभव नहीं। ऐसे में सामाजिक विभाजन की खाई लगातार बढ़ रही है। फलतः देश कई ऐसी समस्याओं से जूझ रहा है जिसकी भनक बहुतेरे लोगों को नहीं है। बीच-बीच में जब विरोध के स्वर उठते हैं तो स्वभाववश हम जरा सी नजर डाल अपने दिनचर्या में लौट जाते हैं। लेकिन जब ये समस्याएं विकराल रूप धारण करेगी तो पूरी आबादी इसकी चपेट में आएगी।
बहरहाल, उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखकर कांग्रेस को शहर और गांव के बीच संतुलन कायम करने वाली आर्थिक नीति पर काम करना चाहिए। ये न केवल इस चुनाव के लिए लाभदायक होगा बल्कि भविष्य में एक पार्टी के रूप में इसके पहचान के संकट को दूर करेगा। इस तरह की आर्थिक नीति ही कांग्रेस की सत्ता में वापसी का एकमात्र आधार हो सकती है। अगर अब भी कांग्रेस नहीं चेती तो राहुल गांधी के लिए 2019 का रास्ता बेहद कठिन होगा। (जारी...)