गांधी, गाय और गोरक्षक
गांधी जी का कहना था, गोरक्षा प्रचारिणी सभा का होना हमारे लिए बदनामी की बात है। जब गाय की रक्षा करना हम भूल गए तब ऐसी सभा की जरूरत पड़ी। आज गाय लाते-ले जाते किसानों की पीटकर हत्या की जा रही है। ऐसे वक्त में गौ-भक्ति को लेकर महात्मा गांधी के सम्यक विचारों पर चर्चा जरूरी हो जाती है। ख़ुद को गोभक्त हिंदू कहने वाले गांधी कानून बनाकर गोहत्या रोकने या गाय के नाम पर ख़ून-ख़राबा और उपद्रव के घोर विरोधी थे। यह आलेख गाय के बारे में गांधी जी के विचार हैं जिसे उन्होंने यंग इंडिया में लिखा था - संपादक
मैं खुद गाय को पूजता हूं यानी मान देता हूं। गाय हिंदुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिंदुस्तान का, जो खेती प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी जानवर है इसे मुसलमान भाई भी कबूल करेंगे। लेकिन जैसे मैं गाय को पूजता हूं, वैसे मैं मनुष्य को भी पूजता हूं। जैसे गाय उपयोगी है वैसे ही मनुष्य भी फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिंदू, उपयोगी है।
तब क्या गाय को बचाने के लिए मैं मुसलमान से लड़ूंगा? क्या मैं उसे मारूंगा? ऐसा करने से मैं मुसलमान और गाय दोनों का दुश्मन हो जाऊंगा। इसलिए मैं कहूंगा कि गाय की रक्षा करने का एक ही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाई के सामने हाथ जोड़ने चाहिए और उसे देश की ख़ातिर गाय को बचाने के लिए समझाना चाहिए। अगर वह न समझे तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए, क्योंकि वह मेरे बस की बात नहीं है। अगर मुझे गाय पर अत्यंत दया आती है तो अपनी जान दे देनी चाहिए, लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिए। यही धार्मिक क़ानून है, ऐसा मैं तो मानता हूं।
हां और नहीं के बीच हमेशा बैर रहता है। अगर मैं वाद-विवाद करूंगा तो मुसलमान भी वाद विवाद करेगा। अगर मैं टेढ़ा बनूंगा, तो वह भी टेढ़ा बनेगा। अगर मैं बालिस्त भर नमूंगा तो वह हाथ भर नमेगा और अगर वह नहीं भी नमे तो मेरा नमना गलत नहीं कहलाएगा। जब हमने ज़िद की तो गोकशी बढ़ी। मेरी राय है कि गोरक्षा प्रचारिणी सभा गोवध प्रचारिणी सभा मानी जानी चाहिए। ऐसी सभा का होना हमारे लिए बदनामी की बात है। जब गाय की रक्षा करना हम भूल गए तब ऐसी सभा की जरूरत पड़ी होगी।
मेरा भाई गाय को मारने दौड़े तो उसके साथ मैं कैसा बर्ताव करूंगा? उसे मारूंगा या उसके पैरों में पड़ूंगा? अगर आप कहें कि मुझे उसके पांव पड़ना चाहिए तो मुसलमान भाई के पांव भी पड़ना चाहिए। गाय को दुख देकर हिंदू गाय का वध करता है; इससे गाय को कौन छुड़ाता है? जो हिंदू गाय की औलाद को पैना भोंकता है; उस हिंदू को कौन समझाता है? इससे हमारे एक राष्ट्र होने में कोई रुकावट नहीं आई है।
अंत में, हिंदू अहिंसक और मुसलमान हिंसक है, यह बात अगर सही हो तो अहिंसा का धर्म क्या है? अहिंसक को आदमी की हिंसा करनी चाहिए, ऐसा कहीं लिखा नहीं है। अहिंसक के लिए तो राह सीधी है। उसे एक को बचाने के लिए दूसरे की हिंसा करनी ही नहीं चाहिए। उसे तो मात्र चरणवंदना करनी चाहिए। सिर्फ समझाने का काम करना चाहिए। इसी में उसका पुरुषार्थ है।
लेकिन क्या तमाम हिंदू अहिंसक हैं? सवाल की जड़ में जाकर विचार करने पर मालूम होता है कि कोई भी अहिंसक नहीं है, क्योंकि जीव को तो हम मारते ही हैं। लेकिन इस हिंसा से हम छूटना चाहते हैं, इसलिए अहिंसक (कहलाते) हैं। साधारण विचार करने से मालूम होता है कि बहुत से हिंदू मांस खाने वाले हैं, इसलिए वे अहिंसक नहीं माने जा सकते। खींच-तानकर दूसरा अर्थ करना हो तो मुझे कुछ नहीं कहना है। जब ऐसी हालत है तब मुसलमान हिंसक और अहिंसक हैं, इसलिए दोनों की नहीं बनेगी, यह सोचना बिल्कुल ग़लत है। ऐसे विचार स्वार्थी धर्मशिक्षकों, शास्त्रियों और मुल्लाओं ने हमें दिए हैं और इसमें जो कमी रह गई थी, उसे अंग्रेज़ों ने पूरा किया है। (हिंद स्वराज, पेज नंबर 32 से 34)
मैं फिर से इस बात पर जोर देता हूं कि कानून बनाकर गोवध बंद करने से गोरक्षा नहीं हो जाती। वह तो गोरक्षा के काम का छोटे से छोटा भाग है। लोग ऐसा मानते दीखते हैं कि किसी भी बुराई के विरुद्ध कोई कानून बना कि तुरंत वह किसी झंझट के बिना मिट जाएगी। ऐसी भयंकर आत्म-वंचना और कोई नहीं हो सकती। किसी दुष्ट बुद्धि वाले अज्ञानी या छोटे से समाज के खिलाफ कानून बनाया जाता है और उसका असर भी होता है। लेकिन जिस कानून के विरुद्ध समझदार और संगठित लोकमत हो, या धर्म के बहाने छोटे से छोटे मंडल का भी विरोध हो, वह कानून सफल नहीं हो सकता।
गोरक्षा के प्रश्न का जैसे-जैसे मैं अधिक अध्ययन करता जाता हूं, वैसे-वैसे मेरा यह मत दृढ़ होता जाता है कि गांवों और उनकी जनता की रक्षा तभी हो सकती है, जब मेरी तरफ से ऊपर बताई हुई दिशा में निरंतर प्रयत्न किया जाए। (यंग इंडिया, 07.07.1927 से संग्रहीत, मेरे सपनों का भारत, पेज नंबर 137)