भारतीय राजनीति में विकल्पहीनता का संकट
मनोज कुमार झा
विकल्पहीनता का संकट भारतीय राजनीति के मानचित्र पर हमेशा से हावी रहा है और यह सिलसिला आज भी जारी है। अगर आप साल 2014 के लोकसभा चुनाव को याद करें तो कांग्रेस नीत संप्रग सरकार के एक दशक के कार्यकाल से जनता का मोह इतना भंग हो चुका था कि मतदाताओं ने अपनी-अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से ऊपर उठकर नरेंद्र मोदी में अपना भरोसा जताया। गलती से अगर भाजपा ने मोदी के अलावा किसी और को अपना नेता चुना होता तो शायद भाजपा की स्पष्ट बहुमत की सरकार देश में नहीं बन पाती। लेकिन ज्यों-ज्यों दिन बीत रहे हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा नीत राजग सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ भी तेजी से गिर रहा है। सरकार हर मोर्चे पर पिछड़ती जा रही है।
चाहे बात महंगाई की करें, बेरोजगारी दूर करने की करें, विदेश नीति की करें, आर्थिक नीति की करें, महिलाओं के खिलाफ अपराध की करें या फिर राज्यों में भाजपा के विस्तारीकरण की। हर मोर्चे पर नरेंद्र मोदी और मोदी सरकार ने अपना भरोसा खोया है। कहते हैं कि दो साल का वक्त किसी सरकार के कामकाज को आंकने के लिए ठीक नहीं होता, लेकिन बाकी तीन साल में सरकार क्या कर सकती है उसकी बुनियाद को आंकने और जांचने के लिए तो शुरू के छह महीने ही काफी होते हैं। शुरू के छह महीने से लेकर एक साल का समय यह बताने के लिए काफी होता है कि पांचवें साल होने वाले चुनाव में सरकार को देश कितने अंक देगा। और ये आप बखूबी जानते हैं कि लोकतंत्र आंकड़ों का खेल है। संख्याबल में जो जीता वही सिकंदर।
लेकिन हमारा सवाल तो भारतीय राजनीति में विकल्पहीनता को लेकर है। मोदी सरकार अगर देश के भरोसे पर खड़ी नहीं उतर पाई तो तीन-साढ़े तीन साल बाद आप कौन सा विकल्प चुनेंगे। क्या कांग्रेस और उसके सहयोगी दल? वामपंथी इस बार किसी भी तरह बंगाल में सत्ता में वापसी करना चाहते हैं। इसलिए अपने विरोधी रहे कांग्रेस से हाथ मिलाने में इन्हें परहेज नहीं हो सकता। कहने का मतलब यह कि 2019 में अगर भाजपा मुंह की खाती है, जिसके संकेत अभी से मिलने शुरू हो गए हैं तो विकल्प के रूप में कांग्रेस, वामपंथी और राजद-जदयू जैसी पार्टियां एकजुट होकर सामने आएंगी। हालांकि इन सबका जो इतिहास है, वह बताता है कि ये भी बड़े दूध के धुले नहीं हैं। आखिर नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने की जमीन तो इन्हीं दलों ने तैयार की थी। कांग्रेस राज में जितने घोटाले हुए, पश्चिम बंगाल में वामपंथियों ने नंदीग्राम और सिंगूर में जो जनविरोधी रवैया अपनाया, उसे कैसे भुलाया जा सकता है?
बहुत से लोगों का मानना है कि आरएसएस खतरनाक है और इसे किसी कीमत पर सत्ता से बेदखल करना चाहिए। यह सही है पर क्या कांग्रेस और वामपंथी धर्मनिरपेक्ष हैं? यह ऐसा सवाल है, जिस पर विचार किया जाना चाहिए। यह ठीक है कि आरएसएस एक उग्र हिन्दूवादी आतंकी संगठन है और भ्रष्टतम पूंजीपतियों का प्रतिनिधि है, उन परजीवी पूंजीपतियों का जिनके साक्षात प्रतिनिधि अंबानी हैं। पर क्या यही अंबानी नहीं कहते थे कि कांग्रेस मुख्यालय उनका दूसरा घर है। क्या कांग्रेस राज में अंबानी-अडानी नहीं फूले-फले?
भूलना नहीं होगा कि उग्र हिन्दूवादी संगठन आरएसएस के सत्ता में आने के पीछे कांग्रेस-वामपंथी-समाजवादी और लालू-नीतीश जैसे राजनेता ही जिम्मेदार रहे हैं, जिनका एक ही लक्ष्य रहा है- येन-केन-प्रकारेण सत्ता पर काबिज होना। अगर भाजपा सत्ता से बेदखल होती है और कांग्रेस के नेतृत्व में कोई नया गठबंधन सत्ता में फिर से वापसी करने में सफल हो जाता है, तो यह विचार करना जरूरी होगा कि कि इससे जनता को क्या वो सब मिलेगा जिसकी उम्मीद पालकर उसने नरेंद्र मोदी को देश का नेता मानकर प्रचंड बहुमत से प्रधानमंत्री बना दिया था। क्या उसकी जीवन जीने की व्यवस्था में कोई मनोनुकूल बदलाव आएगा?
कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में यूपी में विधानसभा चुनाव अगले साल होने वाले हैं। इसे देखते हुए आरएसएस ने राममंदिर के निर्माण का राग फिर से छेड़ दिया है। राम-शिलाएं जमा की जा रही हैं। सुब्रमण्यम स्वामी ने घोषणा कर दी है कि इस साल दिसंबर में राम मंदिर का निर्माण होगा। वहीं, कुछ तो नवम्बर में ही राम मंदिर बनाने की बात कह रहे हैं। आरएसएस साम्प्रदायिक दंगे भड़काने की साजिश पर काम कर रहा है। पर इसके जवाब में कौन-सी शक्तियां दिखाई पड़ रही हैं। सच कहें तो कोई नहीं।
देश में मजदूरों-किसानों का कहीं कोई सही संगठन और आंदोलन दिखाई नहीं पड़ रहा। दूर-दूर तक जनविकल्प की कोई शक्ति आकार लेती दिखाई नहीं पड़ रही। ऐसे में, जनता के लिए कहीं कोई उम्मीद दिखाई नहीं पड़ती है। चुनाव एक छलावे के सिवा और कुछ भी नहीं लगता। कुल मिलाकर बड़ा सवाल यही है कि भारतीय राजनीति में विकल्पहीनता के संकट के दौर में जनता आखिर कब तक छली जाती रहेगी?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता अथवा सच्चाई के प्रति सत्ता विमर्श उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)