विषमता नहीं मिटी तो मिट जाएगी मानवता
कृष्ण किशोर पांडेय
भारत में हर समझदार व्यक्ति आज इस बात से चिंतित है कि अचानक अपराधों की ऐसी बाढ़ कहां से और कैसे आ गई। वह कारण ढूंढने का प्रयास कर रहा है ताकि उसका कोई समाधान निकाला जा सके लेकिन कोई रास्ता नहीं दिख रहा। आज अगर कोई समाचार जानने के लिए अखबार के पन्ने उलटता है तो तरह-तरह के अपराधों की खबर पढ़ने के बाद निराश हो जाता है और अखबार बंद कर देता है। अपराधों की इस बाढ़ में अभी हाल में रेयान इंटरनेशनल स्कूल गुरुग्राम में सात साल के एक बच्चे की नृशंस हत्या का जो मामला सामने आया उसने हर व्यक्ति का दिल दहला दिया। हो सकता है जांच के बाद हत्या के कारणों का पता लगे लेकिन असली सवाल यह है कि कारण कुछ भी हो, उस बच्चे ने ऐसा क्या बिगाड़ा था। मतलब यह कि आदमी नफरत की आग में जलता हुआ जानवर बन चुका है और मानवता का हर पैमाना खोखला साबित हो रहा है। इन अपराधों को सही ढंग से समझने के लिए पहले हमें उस इतिहास को समझना होगा जिस रास्ते से चलते हुए हम यहां तक पहुंचे हैं। अगर यह कहा जाए कि आज अपराधों की इस बाढ़ का असली कारण समाज पर बाजारवाद का बढ़ता प्रभाव है तो शायद यह अतिशयोक्ति नहीं कहलाएगी। व्यक्ति और समाज का संबंध जैसा समाजशास्त्री मानते हैं अन्योयाश्रित रहा है। व्यक्ति से ही समाज बनता है यह भी सही है। लेकिन फिर उसके बदले समाज ही व्यक्ति को बनाता है यह भी सही है। इसी आधार पर समाजवादी और व्यक्तिवादी दो चिंतन धाराएं चल पड़ीं और दोनों में आपसी विरोध भी साफ-साफ दिखने लगा।
समाजवाद का मतलब यह था कि व्यक्ति उसमें है। वही समाज को बनाता भी है और चलाता भी है, लेकिन समाज में रहने वाले सभी व्यक्ति अपने ही बनाए नियमों से बंधे हुए रहते हैं। खुद का अनुशासन खुद के लिए इस्तेमाल करते हैं। इसलिए इस व्यवस्था के अंतरगत दो बातें स्वत: पनपती हैं। एक तो यह कि समाज में अनुशासन होता है और दूसरा यह कि एक नैतिकता का बंधन हर कोई खुद स्वीकार करता है। इसमें इस बात की गुंजाइश कम रहती है कि अनुशासन तोड़कर एक व्यक्ति दूसरे से आगे निकल जाने की कोशिश करे। इसके ठीक उलट व्यक्तिवादी व्यवस्था में भी समाज तो होता है लेकिन प्रमुखता व्यक्ति की होती है। व्यक्ति आगे बढ़ने के लिए एक दूसरे को धकेलकर किसी भी दिशा में जाने को तैयार रहता है। उसके सामने लक्ष्य होता है स्वार्थपूर्ति। चाहे वह संपत्ति बनाना चाहता हो, पद या प्रतिष्ठा पाना चाहता हो या अपने को समाज का मुखिया बनाना चाहता हो, वह अपने को नियमों से बांधकर रखना नहीं चाहता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि व्यक्ति जब एक दूसरे को धक्का देने को तैयार हो जाए तो कौन आगे निकल जाएगा और कौन धक्का खाकर गिर जाएगा इसे बताया नहीं जा सकता। दुनिया ने इन दोनों विचारधाराओं के टकराव और इसके परिणामों को देखा भी है और भुगता भी है। दो-दो विश्वयुद्ध इसके उदाहरण हैं। व्यक्तिवादी सोच का सबसे बड़ा उदाहरण खुद हिटलर जिसने खुद को और अपनी नस्ल वाले लोगों को श्रेष्ठ बताने के लिए पूरे यूरोप को तबाह कर दिया।
जहां तक भारत का सवाल है, जब यहां के लोग आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे तभी उन्होंने इन दोनों विचारधाराओं के प्रभाव को समझ लिया था और अपने मन में बिठा लिया था कि जब भारत आजाद हो जाएगा तब हमें एक ऐसा रास्ता चुनना होगा जिसमें समाज को प्रमुखता मिले। समाज को एक ऐसा जरिया बनाया जाए जहां से व्यक्ति को अपनी उन्नति का मार्ग ढूंढने में आसानी हो। यह एक सच्चाई है कि आजादी मिलने के बाद इस देश के नेताओं ने एक सही रास्ता चुना। उसका साक्षात प्रमाण इस देश का वह संविधान है जो डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में तैयार हुआ। संविधान ने साफ संकेत दिया कि भारत एक ऐसी सामाजिक, आर्थिक और वैदेशिक नीति का पालन करेगा जिसमें किसी को नुकसान पहुंचाए बगैर अपने आपको आगे बढ़ने की संभावना दिखे। काफी हद तक इस संकल्प के साथ लोग आगे बढ़ते रहे। आजादी की लड़ाई के दौरान ही गांधी जी ने लोगों को उन तमाम बातों की ओर संकेत दे दिया था जिनकी तरफ आजादी के बाद ध्यान दिया जाना चाहिए था। मसलन उन्होंने सबसे यह कहा कि हमने सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धांत को अपनाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि ऊंच नीच का भेदभाव खत्म किए बिना तेजी से विकास संभव नहीं होगा। समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना होगा। यह बात तो सभी जानते थे कि हमारे देश में तरह-तरह की विभिन्नताएं हैं। धर्म, संप्रदाय, जाति, भाषा, क्षेत्र, खानपान, रहन-सहन, पहनावा और जीवन जीने के तरीके ये सभी अलग-अलग हैं लेकिन सच्चाई यह भी है कि सबको पता था कि पूरे देश के सभी वर्गों के लोगों ने आजादी की लड़ाई मिलकर लड़ी है इसलिए तमाम विभिन्नताओं के बावजूद वे अपने को भारतीय मानते हैं और यह भारतीयता ही उनकी असली पहचान है। अगर सही विश्लेषण किया जाए तो आजादी के बाद से कई दशकों तक देश के लोगों ने इन तमाम हकीकतों को मन से स्वीकार किया और कम से कम देश की सुरक्षा और देश की प्रगति दोनों के मामले में सभी एकजुट रहे।
दुर्भाग्य की बात यह है कि दुनिया के उन तमाम देशों में जहां व्यक्तिवाद समाज पर हावी हो चुका था, भारत की प्रगति को एक मिसाल के रूप में देखा तो जा रहा था लेकिन वह धीरे-धीरे खत्म होने लगा। साफ तौर पर कहें तो आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ हमारे देश में बाजारवाद ने प्रवेश किया और बहुत कम समय में बाजारवाद ने एक तूफान का रूप ले लिया। पिछले कुछ वर्षों में उसने हमारी तमाम उपलब्धियों पर अपनी काली छाया डाल दी है। वह देश जो आजादी के बाद एक अनुशासित और नैतिकता पर विश्वास करने वाला देश था वह धीरे-धीरे उन तमाम अच्छाईयो से दूर हटने लगा। और कमाल की बात यह जादू अपना काम करता रहा और लोग उसके जाल में फंसते चले गए। आज हमारे तमाम सवालों का जवाब इस एक बात में छिपा हुआ है कि हम जिस रास्ते पर चले थे और पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने कदम बढ़ा रहे थे उस रास्ते से भटक गए। वैसे सिर्फ भारत के साथ ही ऐसा नहीं हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ एक ऐसा देश बना जिसने समाज को महत्व देते हुए आगे बढ़ने का अपना रास्ता चुना और कुछ ही दिनों में एक महान शक्ति के रूप में उभरकर सामने आया। सबको मालूम है कि उसी सोवियत यूनियन पर जब बाजारवाद ने अपना कब्जा जमाया तो एक मजबूत राष्ट्र खंड-खंड में विभक्त हो गया और अकेला रूस उस विरासत को संभाल रहा है। अब हम भारत की स्थिति पर विचार करें।
आज बाजारवाद का जादू हमारे सिर पर इस तरह चढ़कर बोल रहा है कि हम अपनी वैचारगी महसूस तो करते हैं लेकिन उससे निकल नहीं पाते। अपने आप पर ध्यान दें तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि हम जिस जाल में फंसे हैं उससे निकलना बहुत आसान नहीं है। हमारी नई सोच क्या है इसे हमें खुद समझना चाहिए। रेलयात्रियों के लिए अन्य सुविधाओं की बात तो दूर, उनको सही सुरक्षा भी हम प्रदान नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन दूसरी तरफ हम बुलेट ट्रेन चलाने के लिए जिद्द पर अड़े हुए हैं। हम एक लोकतांत्रिक देश हैं जहां जनता अपने लिए, अपने द्वारा, अपनी सरकार चुनती है। इसका आशय यह हुआ कि हमारी जो भी सरकार बने वह महत्वपूर्ण विषयों पर हमारी राय लेकर अगला कदम उठाए। लेकिन हमारे देश में हो क्या रहा है। हमारी सरकार नोटबंदी का फैसला अचानक करती है और लोगों पर उसे थोपती है। लोग अवाक रह जाते हैं कि आखिर इतने बड़े फैसले के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई बहस क्यों नहीं कराई गई। कोई संसद में प्रस्ताव क्यों नहीं लाया गया। कम से कम अगर ऐसा करना बहुत जरूरी था तो जनता को पहले बताना तो चाहिए था। जनता के लिए सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं हैं। उन्नत देशों में सरकारें सदैव यह कोशिश करती हैं कि इन दो क्षेत्रों में जनता को ज्यादा से ज्यादा सरकारी सुविधा प्रदान की जाए। लेकिन आज हमारे देश में ठीक उल्टा हो रहा है। सरकार जो सुविधा देती है वह पर्याप्त नहीं है। और निजी क्षेत्र में सुविधाएं तो उपलब्ध हैं लेकिन वे इतनी महंगी हैं कि आम आदमी उसके लिए अपने को सक्षम नहीं पाता है। उसी तरह रोजगार सृजन की स्थिति है। हर साल हमारे देश में करोड़ों की संख्या में काम करने वाले नौजवान तैयार हो रहे हैं। वे सभी क्षेत्रों में काम करने वाले लोग हैं। इनको काम देने की जिम्मेदारी सरकार की है। अगर सरकार अपने जिम्मेदारी पूरा नहीं करेगी तो फिर ये बेरोजगार लोग कहां जाएंगे। नोटबंदी के बाद तो यह कहा जा रहा है कि करीब-करीब तीन करोड़ लोगों की रोजी-रोटी खतरे में पड़ गई।
एक व्यावहारिक सवाल है कि जब आय का कोई स्रोत नहीं होगा तो आखिर आदमी अपना पेट कैसे भरेगा। रोजगार देने वाले क्षेत्र हैं कृषि, उद्योग, निजी कारोबार और सेवाएं। सब जगह स्थिति खराब चल रही है। लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि उत्पादन वृद्धि जो सालाना 9 प्रतिशत तक पहुंच चुकी थी, वह आज 5.7 तक कैसे आ गई। रास्ते का भटकाव यहीं दिखाई देता है। सरकार का दायित्व यह है कि वह हरसंभव तरीके से उत्पादन बढ़ाने का प्रयास करे। उत्पादन ज्यादा हो तो उससे कमाई भी ज्यादा होगी, कल-कारखाने ज्यादा खुलेंगे, ज्यादा लोगों को रोजगार मिलेगा और उससे समाज में भी खुशहाली आएगी। सबको मालूम है कि जनता के द्वारा दिए गए टैक्स से ही सरकार की आर्थिक शक्ति बढ़ती है। तो उसी तरह सरकार के लिए भी यह जरूरी है कि वह अपनी जनता को काम करने का अवसर प्रदान करे और उसकी आर्थिक शक्ति बढ़ाए। हमारे देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था इसीलिए अपनाई गई कि सरकार जनता को भी विकास कार्यों में भागीदार बनाना चाहती है। इसका मतलब यह है कि सरकार अपनी ओर से प्रयास करे और निजी क्षेत्र भी अपनी ओर से प्रयास करे तो दोनों के सामूहिक प्रयास से देश की हालत तेजी से सुधरेगी। लेकिन अफसोस की बात यह है कि विकास जो कुछ भी हो रहा है उसका लाभ सबको नहीं मिल रहा है। कुछ लोग उल्टे-सीधे तरीकों से विकास का लाभ उठा लेते हैं और कुछ लोग जो पिछड़े हुए हैं वे और पिछड़ी हालत में पहुंच जाते हैं। अगर इन तमाम बातों का विश्लेषण किया जाए तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन नहीं होगा कि समाज एक अजीब तरह के असंतोष का शिकार बनता जा रहा है।
मनोविज्ञान बताता है कि कहीं भी आगे बढ़ने के लिए आशा, संतोष और उसके साथ जोश तीनों बहुत जरूरी है। एक स्कूल का छात्र जब पढ़ने जाता है तो उसे आशा रहती है कि अगले कुछ वर्षों में वह अपनी आगे की पढ़ाई पूरी करेगा फिर कहीं सही जगह पहुंचकर अपनी और अपने समाज की सेवा करेगा। इसी से उसमें जोश आता है और वह आगे बढ़ता है। इसके विपरीत अगर किसी बच्चे को यह पता लग जाए कि अपनी पढ़ाई के लिए उसके पास पूरे साधन नहीं हैं, उचित माहौल नहीं है और पढ़ाई पूरी हो भी जाए तो आगे का कोई भविष्य निश्चित नहीं है तो उसके अंदर जोश नहीं, निराशा का भाव पैदा होगा। हमारे देश में आज अनुशासनविहीन और नैतिकताविहीन एक ऐसी स्थिति बन रही है जिसमें हर कोई धक्का-मुक्की कर आगे बढ़ने की फिराक में है। वह यह सोचने को तैयार नहीं है कि हमारे साथ और लोग भी आगे बढ़ें। वह कुछ भी करने को तैयार है। कहने की जरूरत नहीं है कि निराशाजन्य यह जो लाचारी की स्थिति समाज के सामने आ गई है वह दिन प्रतिदिन नैतिकता को तिलांजलि देने के लिए उकसा रही है। समाज में मूल्यों की गिरावट इस कदर हो रही है कि कोई सगा-संबंधी, कोई मित्र या अपना अब बचा ही नहीं है। आपसी रिश्तों में विश्वास का क्षरण हो रहा है। यह बात अजीब जरूर लगती है लेकिन सही है कि जब समाज में ऊंची जगहों में बैठे लोग रास्ता दिखाने में असफल हो रहे हैं तो समाज का दिग्भ्रमित होना स्वभाविक है।
आज के बढ़ते अपराधों की असली वजह यही है कि दूसरों की देखा-देखी हर कोई तमाम नैतिकताओं को भूलकर इस तरह स्वार्थी बनता जा रहा है कि उसे कुछ भी करने और कहने में शर्म महसूस नहीं होती है। बाजारवाद का प्रभाव आने से पहले इसी समाज के लोग कानून से ज्यादा समाज से डरते थे। हर कोई ये सोचता था कि अगर हमने ऐसा किया तो समाज से वंचित हो जाएंगे। आज हालत यह है कि समाज का डर तो दूर कानून का भी डर नहीं है किसी को। अपराध करने वाला भी इसी समाज में है और नुकसान उठाने वाला भी इसी समाज में है। इसको रास्ते पर लाने की जिम्मेदारी घूम-फिर कर फिर समाज पर ही जाती है। आज वह वक्त आ गया है जब लोग ठंडे दिल और दिमाग से पूरी स्थिति पर विचार करें और ऐसा प्रयास करें कि बाजारवाद रहे जरूर लेकिन उसपर नियंत्रण समाज का हो। यह नहीं भूलना चाहिए कि एक तरफ समाज का एक आदमी विलासिता का जीवन जी रहा है और दूसरा आदमी भिखमंगा बनकर दो जून की रोटी जुटाने के लिए भी परेशान है तो ऐसे समाज में न शांति संभव है और न विकास। अपराध बढ़ने का असली कारण समाज में बढ़ती विषमता है। अगर विषमता कम होगी तो तरक्की भी स्वभाविक है। इससे भी ज्यादा खतरनाक यह है कि हम बात करें विषमता मिटाने की और काम करें विषमता बढ़ाने की। इस मर्ज का कोई इलाज नहीं है। एक डायबिटीज का मरीज खानपान में परहेज न करे और चाहे कि बीमारी ठीक हो जाए तो यह तो रेत से तेल निकालने वाली बात होगी। आज भी सबकुछ बर्बाद नहीं हुआ है। अगर यह समाज संकल्प ले कि अनेकता में एकता ही हमारी धरोहर है और हम उसकी रक्षा करेंगे तो हालात को और बिगड़ने से बचाया जा सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक हैं।)