तरक्की पर अर्थव्यवस्था तो फिर क्यों दम तोड़ रहा रूपया?
मधूलिका सिन्हा
रूपए की औकात आज इस हद तक गिर गई है कि एक डॉलर के लिए हमें अब करीब 72 रूपए चुकाने पड़ रहे हैं। किसी भी भारतीय के लिए यह सदमे से कम नहीं है। इसके पीछे जो आर्थिक तर्क दिए जा रहे हैं वह तो अपनी जगह हैं, पर आम जनता के गले यह बात नहीं उतर रही कि जब सरकारी आंकड़े इस बात का दम भर रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर ने चीन को भी पछाड़ दिया है तो फिर अपना रूपया इस कदर कमजोर क्यों होता जा रहा है।
मुद्रा बाजार में बीते गुरुवार यानी 6 सितंबर को रूपया बीच सत्र में 72 रुपए 12 पैसे प्रति डालर के रिकार्ड निचले स्तर तक लुढ़का। हालांकि अगले कारोबारी दिवस को इसमें थोड़ी मजबूती देखी गई और यह 71 रूपए 85 पैसे प्रति डॉलर पर बंद हुआ लेकिन यह मजबूती इतनी नहीं थी कि पिछली गिरावट की भरपाई कर सके। इस साल जनवरी से लेकर अब तक इसमे करीब 11.4 और जून के बाद से 6.2 फीसदी की गिरावट आ चुकी है। उभरते बाजारों की मुद्राओं के मुकाबले रूपया सबसे खराब प्रदर्शन कर रहा है। यह सब तब हो रहा है जब सरकारी आंकड़े अप्रैल-जून तिमाही में जीडीपी विकास दर 8.2 प्रतिशत रहने का दावा कर रहे हैं जो कि पिछली नौ तिमाही में सर्वाधिक है।
भारतीय रिजर्व बैंक डॉलर की बिकवाली कर रूपए की गिरावट थामने की कोशिश कर रहा है लेकिन उसका यह कदम ज्यादा कारगर होता नहीं दिखाई दे रहा। इस हालत में रूपए के 70 के आसपास ही टिके रहने की आशंका है। वैश्विक स्तर पर तेज होती कारोबारी प्रतिस्पर्धा और कच्चे तेल की कीमतों में आया उबाल आगे रूपए के लिए और संकट पैदा कर सकता है। सरकार इसी अंतरराष्ट्रीय हालात का हवाला देकर अपना पल्ला झाड़ रही है। वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना है कि रूपए की गिरावट के पीछे घरेलू नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय कारक जिम्मेदार हैं, जिसमें कच्चे तेल की कीमतों में आया उबाल सबसे बड़ी वजह है। यह वही जेटली हैं जिन्होंने मनमोहन सरकार के राज में रुपए की कीमत 68 रूपये प्रति डॉलर तक गिरने पर कहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था आईसीयू में जा चुकी है। आज रूपया और भी ज्यादा बदहाली में है, पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस पर चुप्पी साधे बैठे हैं।
रूपए की गिरावट के लिए कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों का हवाला देने का सरकारी तर्क पूरी तरह सही नहीं माना जा सकता है, क्योंकि मनमोहन सरकार की अपेक्षा मौजूदा सरकार में जीडीपी विकास दर काफी बेहतर है। ऐसे में सरकार चाहे तो पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले टैक्स में कमी कर जनता को राहत दे सकती है। वैसे भी जीडीपी की तुलना में देश में पेट्रोल की कीमत दुनिया के किसी भी देश की अपेक्षा सबसे ज्यादा है। पेट्रोल डीजल के टैक्स से सरकार की मौजूदा कमाई ढाई लाख करोड़ रूपए से ज्यादा है, जो कि 2014-15 के 1.05 लाख करोड़ रूपए की तुलना में दोगुने से भी अधिक। वैसे भी अगर कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों की बात है तो जब उस मोर्चे पर दाम कम हुए तो सरकार ने कब कीमतें कम की थीं। याद कीजिए 1 फरवरी 2015 का वह दिन जब प्रधानमंत्री ने कहा था कि उनकी किस्मत अच्छी है कि उन्हें सत्ता ऐसे समय मिली जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें घट रही हैं। पर उनकी सरकार ने आम जनता तक इसका फायदा नहीं पहुंचाया। दिल्ली में पेट्रोल लगभग 80 रुपये प्रति लीटर और डीजल 72.07 रुपये प्रति लीटर हो चुका है। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में तो पेट्रोल 87.39 रुपये प्रति लीटर और डीजल 76.51 रुपये प्रति लीटर मिल रहा है।
आर्थिक विशेषज्ञों की मानें तो घरेलू स्तर पर सरकार ने कोई प्रभावी कदम नहीं उठाए तो वैश्विक स्तर पर तेज होती कारोबारी प्रतिस्पर्धा और कच्चे तेल की कीमतों में आया उबाल आगे रूपए के लिए और संकट पैदा करेगा जिसका सीधा असर आम आदमी पर पड़ेगा। रुपये की भारी गिरावट महंगाई बढ़ाएगी। कमजोर रुपया तेल, उर्वरकों, दवाओं और दालों के साथ ही कारों, कंप्यूटरों और स्मार्टफोन जैसी उन तमाम चीजों को भी महंगा बना देगा जिन्हें भारत बड़ी मात्रा में आयात करता है। चूंकि भारत अपनी जरुरत के लगभग 70 फीसदी कच्चे तेल का आयात करता है और इसके लिए उसे डॉलर में भुगतान करना पड़ता है तो ऐसे में कमजोर रुपया पेट्रोल और डीजल की कीमतों को प्रभावित करेगा, तेल की कीमतें ऊपर जाने से माल ढुलाई के खर्चे बढ़ेगें जिससे दैनिक खपत वाली वस्तुरएं भी महंगी हो जाएंगी। जिन छात्रों ने विदेशों में शिक्षा के लिए कर्ज लिया है उन्हें भी डॉलर के हिसाब से ज्यादा रुपए चुकाने होंगे। अंतरराष्ट्रीय हवाई यात्राओं के टिकट भी महंगे हो जाएंगे क्योंकि हवाई ईंधन महंगा होगा। आयातकों के लिए नुकसान की खबर तो है ही पर निर्यातकों को भी कोई ज्यादा फायदा नहीं होगा क्योंकि अमेरिका जैसे देशों द्वारा विदेशों से आयातित उत्पादों पर शुल्क बढ़ाने से निर्यातक भी प्रभावित हुए हैं। चालू खाता घाटा बढ़ने की आशंका है।
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के आंकड़ों के अनुसार रूपए की कीमत घटने से सरकार को लघु अवधि के विदेशी कर्ज चुकाने के लिए करीब 68,500 रुपये का अतिरिक्त भुगतान करना पड़ेगा। वर्ष 2017 में भारत पर 217.6 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज था। इस कर्ज की आधी रकम इस वर्ष की पहली छमाही में वापस की जा चुकी है। बाकी की रकम अगले वर्ष तक के लिए टाल भी दी गयी तो अगर रुपया औसतन 71.4 प्रति डॉलर भी रहा तो कर्ज वापसी की वास्तविक रकम 7.8 लाख करोड़ रुपये हो जाएगी जो कि कर्ज वापसी की वास्तविक रकम से करीब 70 हजार करोड़ रुपये ज्यादा होगी। इसी तरह अगर कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत औसतन 76 डॉलर प्रति बैरल भी रही तो देश का तेल आयात बिल 45,700 करोड़ रुपये बढ़ जाएगा। इन सबका बोझ आम आदमी पर टैक्स के रूप में आएगा।
रुपए की गिरावट के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय हालात को देखें तो उस मोर्चे पर भी स्थितियां जल्दी ठीक होती नहीं दिखाई दे रही हैं। ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध, अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते व्यापार तनाव, अर्जेंटीना एवं तुर्की के बढ़ते संकट से सब कुछ गड़बड़ हो चुका है। ईरान ने तेल उत्पादन घटा दिया है। लिहाजा अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल उबाल पर है। हालात जल्दी सुधरने वाले नहीं हैं ऐसे में आंशका है कि आगे रूपया और टूट सकता है। गिरते रूपए और पेट्रोल-डीजल की कीमतें थामने में विफल रहने पर कांग्रेस ने बिना कोई मौका चूके सरकार पर तीखा हमला किया है और कहा है कि 2014 से पहले रुपये में गिरावट को लेकर भाषण देने वाले अब मौन बैठे हैं। लुढ़कता रुपया, 72 के पार पहुंच रहा है जिससे वित्तीय घाटा बढ़ेगा, महंगाई का हाहाकार मचेगा।
(लेखिका संवाद एजेंसी यूनीवार्ता में वरिष्ठ पत्रकार हैं।)