किसान आंदोलन और अलग-थलग पड़ते शिवराज
आशीष चौबे
किसानों के आक्रोश की गर्मी से पूरा मध्यप्रदेश तप रहा है। तपिश का असर मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार से लेकर केंद्र की मोदी सरकार तक साफ नुमाया है। किसान पुत्र मुख्यमंत्री प्रदेश में बेकाबू हालात को काबू में लाने के लिए हर संभव प्रयास कर तो रहे हैं लेकिन सारी कवायद सफल होने के बजाय हांफती दिख रही है। हड़बड़ाये शिवराज अपील पर अपील किए जा रहें हैं। ट्विटर की चिड़ियां पर सवार अपने संदेशों को फैलाए जा रहे हैं। लेकिन इस सारी कवायद के बीच बड़ा सवाल कि शिवराज के जादू को किसकी नजर लग गई है, जो इस बार कुछ कमाल नहीं कर पा रहा है। शिवराज के संकट मोचक इस बार सक्रिय भूमिका में न होकर मुख्यमंत्री से कटे-कटे क्यूं नज़र आ रहे हैं?
ऐसा कोई पहली बार नहीं है जब किसानों ने मोर्चा खोला हो या सरकार पर कोई संकट आया हो। व्यापम, आईपीएस ह्त्याकांड, खनन मामला, डंपर प्रकरण, कुपोषण जैसे दर्जनों मामलों में शिवराज घिरे लेकिन करीबी मंत्रियों ने ढाल बनकर अपने मुख्यमंत्री को संकट से हर बार उबार लिया। जमीनी कार्यकर्ता भी अपने मुख्यमंत्री के साथ जैसी भी परिस्थिति हो हर समय साथ दिया। समीकरण बदल चले हैं। मंदसौर से किसान आंदोलन की आग ने बहुत सारे भ्रम को भी मानो जलाकर राख कर दिया हो। प्रदेश में कई स्थानों पर आगजनी, तोड़फोड़ और हिंसा की खबर सुर्खियां बटोर रही है। किसान सड़कों पर गुस्से से भरा तांडव कर रहा है। स्थिति दिन पर दिन सुधरने के बजाय और बिगड़ती जा रही है लेकिन जनप्रतिनिधि से लेकर शिवराज के संकट मोचक सक्रिय नहीं दिख रहे। और तो और, वह जमीनी भाजपा कार्यकर्ता जिसके मेहनत के बलबूते सूबे में तीसरी बार भाजपा ने फतह का परचम लहराया, वह संजीदा कार्यकर्ता भी अपनी सरकार को गंभीर परिस्थितियों में घिरा देखकर भी उदासीन बना हुआ है।
प्रदेश के गृह मंत्री भूपेंद्र सिंह कानून और व्यवस्था के लिए जिम्मेदार हैं लेकिन गंभीरता से मुद्दे को सुलझाने के बजाय महज़ बयान देने का काम कर रहे हैं और उनके बयानों ने यह साफ कर दिया कि वह अपने फर्ज़ को लेकर कितने संजीदा हैं। पूर्व में हुए किसान आंदोलन को खत्म करवाने में अहम भूमिका निभाने वाले शिवराज के बेहद नजदीकी कैबिनेट मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा पूरे परिदृश्य से ही नदारद हैं। प्रदेश के कृषि मंत्री को लगता है मानो किसान आंदोलन से उनका कोई वास्ता ही न हो, वह चैन से अपने विधानसभा क्षेत्र में रोज़मर्रा के काम निपटा रहे हैं। हर बार बेहद सक्रिय रहने वाले कैलाश विजयवर्गीय बजाय सरकार के साथ खड़े होने के उल्टा गृह मंत्री की भूमिका पर ही सवाल खड़े कर रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री एवं विधायक बाबूलाल गौर विपक्ष के साथ ज्यादा जुगलबंदी कर रहे हैं। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान प्रेस वार्ता और बयान देकर अपनी औपचारिकता पूरी कर दी तो पार्टी का किसान मोर्चा की अरुचि भी बहुत कुछ साफ कर रही है। प्रभावित क्षेत्रों के विधायकों और सांसदों को मानो इस आंदोलन से कोई लेना देना नहीं है। इस पूरे घटनाक्रम के दौरान किसी भी बड़े भाजपाई नेता ने किसान संगठनों से मध्यस्थता कर जलते मध्यप्रदेश को बचाने की कोई मंशा नहीं जताई।
बड़ा सवाल यह है कि आखिरकार क्यूं मंत्री से लेकर पार्टी पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं ने अपने ही मुख्यमंत्री से इतनी दूरियां बना ली है जबकि विधानसभा चुनाव की हल्की सी आहट भी सुनाई दे रही है। दरअसल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के तीसरे कार्यकाल में बहुत कुछ बदल गया है। आम कार्यकर्ता की तो छोड़िए, मंत्री, सांसदों और विधायकों की भी यह शिकायत है कि उनकी सुनवाई नहीं हो रही है। शिवराज के वरदहस्त लालफ़ीताशाही जनप्रतिनिधियों पर ज्यादा हावी नज़र आ रहे हैं। खुद मुख्यमंत्री का भरोसा भी मंत्री, विधायक नहीं बल्कि अफ़सरान पर ज्यादा हैं। अफसर ही शिवराज के सलाहकार, रणनीतिकार की भूमिका में हैं। जनप्रतिनिधियों की शिकायत है कि क्षेत्रों में विकास कार्यों को अफसर गंभीरता से नहीं लेते हैं। इन सभी जनप्रतिनिधियों को चिंता है कि यदि विकास कार्य नहीं हुए तो चुनाव के वक्त आम मतदाताओ को वह क्या जबाब देंगे। ऐसा नहीं है कि शिवराज तक यह बात नही पहुंची होगी, बल्कि गोपाल भार्गव, यशोधरा राजे सिंधिया, माया सिंह जैसे कई बड़े मंत्रियों ने अपनी पीड़ा और शिकायत कैबिनेट में ज़ाहिर की लेकिन पलड़ा लालफ़ीताशाही का भारी पड़ा। शिवराज के अफसर प्रेम से सिर्फ भाजपा कार्यकर्ता या फिर जनप्रतिनिधि ही नाराज़ नहीं है बल्कि कर्मचारी संगठन और मैदानी कर्मचारी भी खार खाए बैठे हैं।
किसान आंदोलन के बुरे वक्त में जब शिवराज को अपनी पार्टी की सख्त ज़रूरत है तब शिवराज अकेले ही खड़े दिखाई दे रहे हैं। मोर्चा सम्हालने के लिए मुख्यमंत्री के पास अपने कुछ चंद अफसरों के हाथ हैं लेकिन वह लोग जो मैदानी पकड़ रखते हैं उन सभी ने अपने आपको अलग-थलग कर लिया है। इस आंदोलन ने साफ कर दिया है कि किसान पुत्र शिवराज की पकड़ पहले से बहुत कमजोर हो चली है। वादों का झुनझुना किसानों को अब बिलकुल रास नहीं आ रहा है। अब भूमिपुत्रों को भाषणों का मीठा सीरप नहीं बल्कि ठोस परिणाम चाहिए। प्रदेश में सरकार को लेकर निराशा का भाव ज्यादा पसरने लगा है और ऐसे में शिवराज के आंख, कान और नाक रहे जमीनी और निस्वार्थ कार्यकर्ता भी अब सूबे में बदलाव की आशा करने लगे हैं। आलाकमान भी स्थितियों की बारीकी से समीक्षा करने का मन बना चुका है। साफ ज़ाहिर है कि आंदोलन के अविश्वास, असहयोग और बदलाव का विष शिवराज को पीना पड़ सकता है। कयासों का दौर गर्म है और सियासी हल्कों में नए समीकरण की आहट भी। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि मध्यप्रदेश में पांव पांव वाले भैया का मुख्यमंत्री के तौर पर यह सफर जल्द ही थम सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और मध्यप्रदेश की राजनीति पर पैनी नजर रखते हैं। इस आलेख में लेखक द्वारा दी गई सभी सूचनाएं व तथ्य ज्यों की त्यों प्रकाशित की गई हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)