अन्नदाता का दर्द और बेरहम प्रधान सेवक
प्रवीण कुमार
गुलाम और आजाद भारत कई तरह के विरोध प्रदर्शनों का गवाह रहा है, लेकिन दिल्ली के जंतर मंतर, प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री आवास के बाहर अंतराल दर अंतराल ऐसा प्रदर्शन (तमिलनाडु के किसानों का आंदोलन) कभी नहीं देखा। गांधी के सत्य और अहिंसा से प्रेरित किसानों का एक महीने से अधिक समय से चला आ रहा विरोध प्रदर्शन यह जताने के लिए पर्याप्त है कि सूखा, कर्ज और बेकार की नीतियां देश के किसानों को किस तरह से लील रही हैं। कृषि विकास दर 1.2 प्रतिशत के चिंताजनक स्तर पर है और लाखों किसान कर्ज व थोड़ी सी आमदनी के चक्रव्यूह में इस कदर फंसा हुए है कि जीवन की बेहतरी अपनी जीवनलीला को खत्म करने में ही पाता है। और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि अन्नदाता के इस दर्द को देश का प्रधानसेवक (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) ना देख पा रहा है, ना सुन पा रहा है और ना महसूस कर पा रहा है।
सबसे खराब दौर में खेती और अन्नदाता
तमिलनाडु में करीब 40 प्रतिशत से अधिक लोग खेती-किसानी पर निर्भर हैं। तमिलनाडु में कम बारिश के कारण पानी की कमी, फसलों की कम कीमत, किसानों को कर्ज मिलने में होने वाली दिक्कतों ने कृषि संकट को पिछले कई दशकों के सबसे खराब दौर में पहुंचा दिया है। पिछले कुछ सालों में खराब बारिश और सूखे ने हालात ने किसानी को तहस-नहस कर दिया है और खेत बंजर हो चुके हैं। पिछले साल अक्टूबर के बाद से अब तक तमिलनाडु के सूखा प्रभावित जिलों में कर्ज के बोझ से दबे करीब 58 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। जंतर-मंतर पर जुटे करीब 100 अन्नदाता मार्च महीने में ट्रेन से दिल्ली आए थे। इसमें से हर अन्नदाता की अपनी एक दर्दनाक कहानी है कि किस तरह से सुखाड़ से बंजर होते खेत और गूंगी व बहरी केंद्र व राज्य सरकारें उनकी जिंदगी के सारे सबूत मिटाने का खेल खेल रही है।
विरोध-प्रदर्शन के तरीकों पर पर गौर कीजिए
पिछले हफ्ते दिल्ली के जंतर-मंतर पर बड़ा ही अलग तरह का नज़ारा दिखा। 65 साल के किसान चिन्नागोदांगी पलानीसामी ने अपने राज्य तमिलनाडु में किसानों की दुर्दशा की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए अपने दांतों के बीच जिंदा चूहा रखकर प्रदर्शन किया। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पलानीसामी कहते हैं, मैं और मेरे साथी किसान ये संदेश देने की कोशिश कर रहे थे कि अगर चीजें नहीं सुधरीं तो हम चूहों को खाने के लिए मजबूर हो जाएंगे।
याद रहे, दर्द की दास्तान लिए ये किसान उसी तमिलनाडु से आए हैं जिसकी गिनती भारत के सबसे विकसित सूबों में होती है। ये अन्नदाता सरकार से कोई आलीशान वातानुकूलित कोठियां नहीं मांग रहे हैं। वे तो सूखा राहत कोष बनाने, बुजुर्ग किसानों के लिए पेंशन, फसल और कृषि कर्ज की छूट, फसलों की बेहतर कीमत और उनके खेतों को सिंचाई के लिए नदियों को जोड़ने की न्यायसंगत मांग कर रहे हैं।
नहीं पसीजा देश के प्रधानसेवक का दिल
पारंपरिक सारंग जैसे वस्त्र और पगड़ी पहने इन किसानों ने मानव खोपड़ियों को खुद से बांधा है ताकि वे खुद को मृतक किसानों से जोड़ सकें। उन्होंने अपने दांतों के बीच जिंदा चूहे रखकर प्रदर्शन किये, अपने आधे सिर मुंडाकर प्रदर्शन किए, महिलाओं की पारंपरिक साड़ियां पहनकर प्रदर्शन किए, कपड़े उतारकर नग्न प्रदर्शन किया और शव यात्रा निकालकर प्रतीकात्मक अंत्येष्टि तक की. प्रदर्शनकारी अन्नदाताओं ने मिट्टी पर रखकर खाना खाया, अपना मूत्र पीकर प्रदर्शन किया तथा आगे मल खाने की धमकी दी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात नहीं करने देने से नाराज होकर उनके आवास के बाहर नग्न प्रदर्शन तक किया। लेकिन देश के प्रधानसेवक का दिल नहीं पसीजा। तो अन्नदाता को लेकर मोदी सरकार की कृषि नीति और मंशा पर सवाल उठना लाजिमी है।
प्रधानसेवक की करनी-कथनी में गहरा फर्क
लालकिले की प्राचीर से खुद को देश का प्रधानसेवक की उपाधि से विभूषित करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की करनी और कथनी में गहरा फर्क है। यह हम नहीं कह रहे, बल्कि खेती-किसानी को लेकर मोदी सरकार के उपेक्षित रवैये से यह साफ जाहिर होता है। मन की बात, जनसभाओं और विदेशी यात्राओं के दौरान जहां भी मौका मिलता है, देश के किसानों की दशा और दिशा को बेहतर करने के लिए बड़ी-बड़ी बातें करने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं चूकते लेकिन जब उन्हीं बातों को जमीन पर उतारने की बारी आती है तो चुप्पी साध जाते हैं। गांधी और पटेल के नाम पर राजनीतिक करने वाले पीएम मोदी अगर तमिलनाडु के इन किसानों की दर्द भरी दास्तां थोड़ा समय निकालकर सुन लेते तो इन अन्नदाताओं का कितना भला होता शायद इसका अंदाजा आपके लोगों ने नहीं लगा पाया।
प्रधानमंत्री जी! गुजरात के सूरत शहर में धूमधड़ाके के साथ 25000 बाइक सवारों की टोली के बीच 12 किलोमीटर लंबा रोड शो करने का वक्त आपके पास है, कार्यक्रम में अनाप-शनाप हुए खर्च को सहन करने की ताकत आपमें है, लेकिन उस 37 दिनों से चल रहे आंदोलन में शामिल अन्नदाताओं के लिए 10 मिनट का वक्त आपके पास नहीं है। तो क्या, अन्नदाता के प्रति आपकी बेरूखी यह कहने के लिए पर्याप्त नहीं है कि किसानों के लिए जैसा आप बोलते हैं, आपकी सोच और सरकार की नीति में कहीं भी फिट नहीं बैठती है?