ऐसे लौटेगा सांप्रदायिक सौहार्द
भारत भूषण
कवाल के बवाल ने गांवों के खेतों की सौंधी मिट्टी में जो सांप्रदायिकता का जहर बोया है उसे मिटाने में बरसों लग सकते हैं, लेकिन अगर समझदारी से काम किया जाए तो इस जहर को चंद दिनों में ही मिटाया भी जा सकता है। बस इसके लिए जिस दृढ इच्छा शक्ति की जरूरत है वह शासन और प्रशासन दोनों में होना जरूरी है। बवाल के इस शव का जितना पोस्टमार्टम किया जाएगा उतने ही चीथड़े इस शव के उडेंगे जो जगह-जगह फैलकर सड़ांध ही पैदा करेंगे। परन्तु मजबूरी यह है कि इस शव का पोस्टमार्टम किये बिना इसे दफनाया भी तो नहीं जा सकता क्योंकि इसके फिर से जिंदा होकर तबाही मचाने का खतरा बना रहेगा।
इसी कशमकश के बीच सवाल पैदा होता है कि इस शव के पोस्टमार्टम का काम खाप पंचायतों के ऊपर छोड़ा जाए या पुलिस प्रशासन के ऊपर। लेकिन हकीकत यह है कि यह काम इन दोनों में से किसी के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता है क्योंकि खाप पंचायतें जिस मानसिकता की शिकार हैं वह यह है कि पंचों की बात सिर माथे पर, लेकिन पतनाला यहीं गिरेगा। खाप पंचायतें अपने-अपने पक्ष के लोगो को बचाने के लिए पंच बनने की बजाए वकील बन जाती है। वहीं पुलिस प्रशासन की मानसिकता यह रहती है कि वह नामजद के अलावा अज्ञात शब्द के नाम पर निर्दोष लोगों को उठाकर इतिश्री करने की उतावली में रहता है।
बवाल के बाद निर्दोष लोगों के उत्पीड़न न करने की चेतावनी तो हर कोई दे रहा है, लेकिन दोषी लोगों को पकड़ने या पकडवाने की बात कहीं से सुनाई नहीं दे रही है। अपने अपने पक्ष के दोषियों को बचाने के लिए यह आवाज आनी शुरू हो गयी है कि बवाली गांव के नहीं, बाहर से आये थे। इस तरह की आवाज उठाने वाले शातिर लोग जानते हैं कि बाहर के बवालियों के नाम पर ही अपने दोषियों को बचाया जा सकता है। कड़वा सच यही है कि बवाली गांव के ही थे चाहे वे किसी भी पक्ष के रहे हों। सवाल यही है कि बवाल के इस शव का पोस्टमार्टम किस सामाजिक डॉक्टर को दिया जाए जो दोषी की तो पहचान कर ले और निर्दोष को आंच भी न आने दे।
ऐतिहासिक अनुभव बताता है कि पंच परमेश्वर का दूसरा रूप हमारे यहां जन अदालतों के रूप में मौजूद है जो कि पंचायत का ही पवित्रम रूप है। शासन प्रशासन के नैतिक समर्थन से गांव दर गांव जन अदालतें गठित कर बवाल के इस शव के पोस्टमार्टम का काम इन्हीं जन अदालतों को दिया जा सकता है। सावधानी यह बरतनी होगी कि इन जन अदालतों में दोनों पक्ष के बराबर-बराबर लोग हों और इनकी संख्या दस या ग्यारह से ऊपर न हो। इनकी अध्यक्षता कोई मजिस्ट्रेट स्तर का अधिकारी ही करे।
दूसरी सावधानी यह बरतनी होगी कि इन जन अदालतों का काम केवल इतना हो कि वे केवल दोषी की पहचान करें, किसी को दंड की सिफारिश न करें और न ही किसी जांच एजेंसी की तरह काम करें। यह काम अदालतों को ही करने दिया जाए। अज्ञात शब्द से पूरी तरह परहेज करते हुए पुलिस केवल ज्ञात दोषियों की पहचान तक ही सीमित रहे। जिलाधिकारी कौशलराज शर्मा ने भी इस संभावना को यह कहकर बल दिया है कि गांव वाले खुद ही दोषियों के नाम बता दें तो अच्छा रहे ताकि अज्ञात के नाम पर निर्दोष का उत्पीड़न न हो सके।
यहां पर एक खतरा और है कि राजनीतिक पार्टियां जन अदालतों के विचार को खारिज न कर दें तो उससे बचने का रास्ता यह हो सकता है कि सभी पार्टियों से भी यह कह दिया जाए कि वे अपने-अपने माध्यम से केवल दोषी लोगों को पहचान कर एक सूची जिला प्रशासन को सौंप दें ताकि जन अदालतों के माध्यम से आई दोषी लोगों की सूची का क्रास चैक हो सके। इनमें जो कॉमन नाम उभर कर आये उनके खिलाफ कानूनी कारवाई अमल में लाई जा सकती है जो नाम कॉमन न हो उनकी जांच कर उनके खिलाफ सबूत एकत्र कर तभी उन्हें कानूनी शिकंजे में जकड़ा जाए।
एक सावधानी यह भी बरतनी होगी कि बाहरी बवालियों के विचार को पूरी तरह खारिज किया जाए और जो भी शख्स या गुट बाहरी बवालियों की बात करे समझो कि वह दोषी लोगों को बचाना चाहता है ऐसे में उसे भी दोषी मानकर उसके खिलाफ कानून का शिकंजा मजबूत किया जाए। यह काम तभी संभव है जब यह कड़वा सच मान लिया जाए कि दोषी गांव के ही लोग थे चाहे वे किसी भी पक्ष के थे वे कहीं बाहर से नहीं आये थे। इन दोषियों को न तो आसमान ने उडाया है और न ही धरती ने निगला है वे अभी भी गांव में ही हैं और गांव में ही रहेगें। बस उनकी पहचान ही टेढ़ा काम है जिसे जन अदालतें ही पूरा कर सकती हैं। जन अदालतों की यह जिम्मेदारी पूरी होते ही इनको शांति समिति में तब्दील किया जा सकता है ताकि शांति के बीज फसल के रूप में लहलहा सकें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक हिंसा को नजदीक से देखा है।)