चुनौतियों के भंवर में भारतीय अर्थव्यवस्था
कृष्ण किशोर पांडेय
भारत की अर्थव्यवस्था के बारे में विश्व बैंक या अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां कुछ भी रिपोर्ट दे दें लेकिन असलियत लोगों के सामने है। अर्थव्यवस्था के किसी भी अंग पर विचार किया जाए तो ऐसा लगता है कि अगर जल्दी से सुधार की दिशा में कदम नहीं उठाए गए तो गिरावट के जो लक्षण अभी मौजूद हैं वे और मजबूत होते जाएंगे और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना आसान नहीं होगा। भाजपा के ही चार आर्थिक विशेषज्ञों यशवंत सिन्हा, अरूण शौरी, सुब्रमण्यम स्वामी और एस. गुरुमूर्ति ने अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति पर बहुत कुछ कहा है लेकिन सरकार सच मानने या सच सुनने को तैयार नहीं है। जाहिर है कि अर्थव्यवस्था का असर राजनीति पर भी हो रहा है। पिछले कुछ दिनों में कर्इ विश्वविद्यालयों में छात्र संघ के चुनाव हुए हैं जहां अधिकांश नतीजे भाजपा समर्थित एबीवीपी के खिलाफ गए हैं। इतना ही नहीं, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं, लेकिन जो खबरें आ रही हैं उनसे ऐसा लगता है कि दोनों राज्यों में भाजपा के सामने कड़ी चुनौती है और उसका असली कारण यह है कि आर्थिक स्थिति से जनता बहुत परेशान है। अब इनमें से अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलुओं पर एक-एक कर विचार करना जरूरी है।
जीएसटी की उलझनें
सबसे पहले जीएसटी की बात लें क्योंकि इसके बारे में बहुत गलतफहमियां पैदा हुई हैं। जीएसटी दुनिया के अधिकांश देशों में लागू है। इसका मकसद यह होता है कि छोटे, मध्यम या बड़े सभी कारोबारियों के लिए टैक्स अदा करने की प्रणाली इस तरह की बनाई जाए ताकि उन्हें परेशानी न हो। इसमें खासकर दो बातों का ध्यान दिया जाता है। एक तो यह कि देशभर में और लगभग सभी वस्तुओं और सेवाओं के लिए समान कर प्रणाली लागू की जाए। थोडे बहुत अंतर के साथ एक ऐसी कर प्रणाली विकसित की जाए जिसमें न्यूनतम और अधिकतम टैक्सों के बीच बहुत ज्यादा अंतर न हो। भारत में इसे लागू होने को लेकर सबसे बड़ी समस्या इसीलिए पैदा हुई कि भारत का जीएसटी अन्य देशों में लागू जीएसटी के तौर-तरीके से भिन्न है। भारत में जीएसटी की कल्पना डॉ. मनमोहन सिंह सरकार के समय ही की गई थी। उसपर विधिवत काम शुरू हुआ मोदी की सरकार में। राज्यों के वित्त मंत्री और केंद्र सरकार के मंत्रियों तथा अधिकारियों के बीच बातचीत का लंबा दौर चला। विपक्ष और सरकार के बीच विवाद का असली मुद्दा यह था कि विपक्ष इस बात पर जोर दे रहा था कि टैक्स की अधिकतम सीमा 18 प्रतिशत तक होनी चाहिए लेकिन सरकार उसपर राजी नहीं हुई और लंबे विचार विमर्श के बाद यह तय हुआ कि अधिकतम टैक्स 28 प्रतिशत होगा। टैक्स के इतने ज्यादा स्लैब बनाए गए और पूरी प्रणाली इतनी जटिल बना दी गई कि छोटे और मध्यम दर्जे के कारोबारी बहुत परेशान हो गए। इतना ही नहीं, टैक्स की दरों को लेकर भी बहुत सारी भ्रांतियां अभी तक मौजूद हैं। सरकार की तरफ से कुछ छूटों की घोषणा की गई है और यह आश्वासन भी दिया गया है कि इसको और सरल बनाने का उपाय किया जाएगा। लेकिन असलियत यह है कि लोग सरकार के आश्वासनों पर विश्वास करने से हिचक रहे हैं। लोगों को ऐसा लग रहा है कि यह सरकार सिर्फ आश्वासन ही दे सकती है। कई मामलों में तो ऐसा हो रहा है कि सरकार उसे 2022 में पूरा करने की घोषणा कर रही है। लोग पांच साल तक इंतजार करने को तैयार नहीं हैं। बहुत सारे लोग तो यह भी कह रहे हैं कि जब साढे तीन साल में कुछ भी नहीं हुआ तो अगले पांच साल तक कैसे इंतजार किया जाए। लोगों की परेशानी बढ़ती जा रही है और कहीं से भी उन्हें कोई आशा की किरण दिखाई नहीं दे रही है। फिर वे सिर्फ आश्वासनों के भरोसे कब तक बैठे रहेंगे। खासकर जीएसटी के बारे में कारोबारियों का एक सवाल है कि इसको लागू करने की इतनी जल्दबाजी क्या थी? अगर पूरी तैयारी के साथ इसे लागू किया जाता तो बार-बार बदलाव करने की जरूरत नहीं पड़ती। बार-बार बदलाव करने और आगे बदलाव का आश्वासन देने से ही यह साबित हो जाता है कि लागू करने के पहले गंभीर विचार नहीं किया गया। कुल मिलाकर जीएसटी कारोबारियों को मदद पहुंचाने के बजाय उनके लिए बहुत बड़ी समस्या बनकर खड़ा हो गया है।
नोटबंदी की दुश्वारियां
जहां तक नोटबंदी का सवाल है, एक साल पूरा हो गया है। इस एक साल में सरकार के सारे दावे फेल हो गए। सरकार का दावा यह था कि इतना बड़ा कदम अर्थव्यवस्था से कालेधन को समाप्त करने के लिए उठाया गया। अब तो रिजर्व बैंक ने भी खुलासा कर दिया कि 500 और 1000 के नोट जो जारी किये गए थे अर्थात जो प्रचलन में थे वे लगभग 99 प्रतिशत वापस आ गए। तो फिर कालाधन गया कहां। अभी हाल में एक और खुलासा हुआ है कि कुछ कंपनियों के नाम पर खाते खोले गए, उनमें पैसे जमा कराए गए और नोटबंदी खत्म होने के बाद वो पैसे वापस निकाल लिए गए। बहुत सारे मामलों में जो नोट बरामद हुए उनमें 50 प्रतिशत तक की छूट दी गई। मतलब कि कुछ मामलों में 50 प्रतिशत नोट पर टैक्स की रकम जमा कर देने के बाद भी एक बहुत बड़ी रकम बच गई। इसका मतलब यह निकला कि कालेधन को सफेद करने का लोगों को मौका मिल गया। इस पूरे प्रयोग का जो खामियाजा जो देश को भुगतना पड़ा वह एक अलग मामला है। लाखों लोगों को नौकरियों से निकाल दिया गया। सरकार तथा निजी सभी क्षेत्रों में रोजगार का अभाव हो गया है। एक साल तक पैसे की कमी महसूस करने के बाद अब लोगों को थोड़ी बहुत राहत महसूस हो रही है। लेकिन जहां तक रोजगार सृजन का मामला है, वह अभी भी सुधरा नहीं है। सरकार ने यह भी घोषणा की है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैकों को अलग से पूंजी दी जाएगी लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार नहीं हुआ तो सिर्फ पूंजी दे देने से क्या फायदा होगा। आशंका यह रहेगी कि जैसे बहुत बड़ी मात्रा में लोग दिवालिया घोषित होने लगे और बैंकों के सामने बैड लोन की समस्या खड़ी हो गई। वैसी समस्या आगे भी खड़ी होगी। बेरोजगारी बढ़ने से सामाजिक समस्याएं भी पैदा होती हैं। अपराध बहुत ज्यादा बढ़ गए हैं। चोरी, डकैती, धोखाधड़ी, हत्या, रेप आदि अपराधों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। बेरोजगारी की हालत इतनी खराब है कि डॉक्टर, इंजीनियर, तकनीकी कौशल हासिल करने वाले और सभी पढ़े-लिखे लोग रोजगार न मिलने से बहुत परेशान दिखाई दे रहे हैं। यहां इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि इस संबंध में सरकार का रवैया लोगों की तकलीफ को और भी ज्यादा बढ़ा रहा है। ऐसा नहीं लगता कि सरकार को लोगों के प्रति सच्ची सहानुभूति है। वह अपने गलत निर्णयों को सही ठहराने में ही लगी हुई है। लगातार बड़े-बड़े घोटाले सामने आ रहे हैं। ऐसा लगता है कि अगर किसी विपक्षी नेता के खिलाफ कोई मामला बनता हो तो सरकार उसकी जांच कराने में पूरी दिलचस्पी दिखाती है लेकिन अगर भाजपा का कोई नेता फंसता है या फंसता दिखता है तो वहां सरकार की दिलचस्पी कम हो जाती है। कहने में तो यह बात कड़वी जरूर लगेगी लेकिन यह साफ दिखने लगा है कि सरकार अपनी साख खोती जा रही है। सरकार पर जनता का विश्वास कम होना अपने आप में खतरनाक स्थिति है।
संकट में किसानी और उद्योग
अर्थव्यवस्था एक तरह से बेलगाम घोड़े की तरह अपनी चाल में चल रही है। अचानक महंगाई बढ़ना, बाजार में ग्राहकों का अभाव पैदा होना, कल-कारखानों में उत्पादकता में कमी आना और कृषि क्षेत्र का उत्पादन भी प्रभावित होना यह सब अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह साबित हो रहे हैं। किसानों की स्थिति दिन पर दिन खराब होती जा रही हैं। किसानों को पूरी उम्मीद थी कि उनके कर्जे माफ कर दिए जाएंगे। कुछ राज्यों में कर्जमाफी की दिशा में कदम उठाए गए लेकिन वहां भी चालाकी दिखाई गई। कुछ ऐसे नियम बनाए गए कि कुछ ही लोगों को कर्जमाफी का फायदा मिला। इससे समस्या का समाधान नहीं हुआ बल्कि असंतोष और गहरा हो गया। किसानों की कर्जमाफी एक ऐसा मामला है जिसका उत्पादन से सीधा संबंध है। अगर किसान कर्ज में डूबा रहेगा तो फिर अगली फसल की तैयारी कैसे करेगा। कृषि के लिए सारे उपकरण महंगे होते जा रहे हैं। खाद, बीज, सिंचाई और अन्य उपकरण सबकी दरें बढ़ती जा रही हैं। किसान की दूसरी समस्या यह है कि उसको अपने उत्पादन का सही दाम भी नहीं मिल पाता। किसान को अपनी फसलों की कीमत बहुत कम मिलती है और जो उपभोक्ता उन्हें खरीदता है वह भी घाटे में रहता है। बीच का सारा मुनाफा बिचौलियों के पास जाता है। भारत में कृषि एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें बहुत लोगों को रोजगार मिलता है और मिल सकता है। अगर कृषि लाभदायक हो तो बहुत सारे बेरोजगार लोग उसकी तरफ जाएंगे और उन्हें रोजगार का नया अवसर मिलेगा। अभी तो हालत यह है कि कृषि क्षेत्र में जो मजदूर काम कर रहे हैं वे भी गांव छोड़कर शहर की ओर जाने का कार्यक्रम बना रहे हैं। दूसरी तरफ सरकार का रवैया अभी भी ऐसा नहीं लगता कि वह इस क्षेत्र को संभालने के लिए कुछ करना चाहती है।
जहां तक उद्योगों का सवाल है, तो वर्तमान परिस्थिति में बड़े उद्योग खोलने के लिए पूंजी का अभाव है। बैंक भी बड़ी मात्रा में कर्ज देने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसी हालत में छोटे और मंझोले दर्जे के उद्योगों पर ज्यादा जोर देने की है। आज सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि बेरोजगार लोगों को छोटी-छोटी पूंजी देकर छोटे उद्यम लगाने या अपना कारोबार विकसित करने के लिए प्रेरित किया जाए। एक बात बिलकुल साफ है कि जितने ज्यादा लोगों को रोजगार मिलेगा, अर्थव्यवस्था को उतनी ही ज्यादा मजबूती मिलेगी। इसके विपरीत अगर बेरोजगारी बढ़ती रही तो सिर्फ अर्थव्यवस्था ही कमजोर नहीं होगी, बल्कि जहां-तहां कानून व्यवस्था की समस्याएं पैदा होंगी और अपराध भी बढ़ेंगे। वक्त आ गया है कि सरकार अपनी डींग हांकने की बजाय अर्थशास्त्रियों से विचार विमर्श करे और अर्थव्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाने के लिए तात्कालिक उपाय तलाश किए जाएं। अर्थव्यवस्था की वर्तमान हालत का असर हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा के चुनावों पर पड़ता हुआ भी दिखाई दे रहा है। सरकार ने बार-बार यही कहा है कि उसने जो कुछ किया वह भ्रष्टाचार मिटाने के लिए किया और वह आगे भी इस दिशा में काम करेगी। लेकिन लोगों को इस बात पर भरोसा नहीं हो रहा कि भ्रष्टाचार रूका है या उसमें कोई उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है। उत्पादन बढ़ाना और बेरोजगारी दूर करना यह आज हमारी अर्थव्यवस्था का लक्ष्य होना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक व आर्थिक मामलों के जानकार हैं। इस आलेख में लेखक द्वारा दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)