जेएनयू के बहाने दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ
हर्षवर्धन त्रिपाठी
देशद्रोह के मामले में जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार करके दक्षिणपंथ ने बड़ी गलती की है जिसको सुधारने का कोई सही रास्ता शायद दक्षिणपंथ और उसकी सरकार को सूझ नहीं रहा है। शायद इसीलिए राष्ट्रीय ध्वज को देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में फहराने का निर्देश देकर उनमें भरोसा रखने वालों को ये भरोसा दिलाने की कोशिश की गई है कि सरकार दक्षिणपंथ से जरा भी सरकने वाली नहीं है। ये भरोसा दिलाने की जरूरत शायद इसलिए पड़ गई क्योंकि, कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद दबी जुबान में चल रही अफवाह को आवाज देने लगे थे कि कि जम्मू कश्मीर में सरकार बनाने के लिए ही उमर खालिद और दूसरे आतंकवाद समर्थक गतिविधियां चलाने वाले छात्रों को गिरफ्तार नहीं किया जा रहा है।
सरकार की तरफ से अनौपचारिक तौर पर ये खबरें खूब आ रही हैं कि देश के अलग-अलग हिस्सों में आतंकवादियों के समर्थन में और भारत के खिलाफ नारे लगाने वालों को पकड़ने के लिए ढेर सारी टीमें बनाई गई हैं। लेकिन, ये भरोसा कोई क्यों करेगा कि जिस मोदी सरकार की नजर हर जगह है। वो उमर खालिद और उसके साथियों पर नजर नहीं रख सकी। वो भी तब, जब उमर खालिद के आतंकवाद समर्थक और भारत विरोधी नारे के आधार पर ही जेएनयू की पूरी बहस शुरू हुई है। इसी उमर खालिद की राष्ट्र विरोधी गतिविधि और उमर खालिद के साथ खड़े दिखने की वजह से कन्हैया को गिरफ्तार किया गया। फिर कन्हैया कुमार की राष्ट्रद्रोह में गिरफ्तारी तक हो जाना और उमर खालिद का पुलिस की पकड़ से बाहर होना सिर्फ दिल्ली पुलिस की असफलता कौन मानेगा।
मानना भी नहीं चाहिए। दक्षिणपंथ की गलती ये रही कि कन्हैया कुमार को गिरफ्तार करके पूरे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पर जाने-अनजाने सवाल खड़ा कर दिया। हालांकि, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने प्रेस रिलीज जारी करके साफ किया है कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा पर किसी तरह का कोई सवाल नहीं उठना चाहिए। लेकिन, ये सफाई तब आई जब जेएनयू में काम करने वाले विद्यार्थी परिषद के तीन कार्यकर्ताओं ने परिसर के माहौल में खुद को अलग-थलग देखकर परिषद से खुद को अलग कर लिया। परिषद सफाई में ये कह रहा है कि ये कार्यकर्ता बिल्कुल नए हैं। लेकिन, जब सीधे-सीधे पाले खिंच गए हों उसमें तीन की संख्या घटती है तो नुकसान होता है।
सरकार की कोशिश थी कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई इस आतंकवाद समर्थक और देश विरोधी घटना के बहाने पूरे वामपंथ की देश निष्ठा पर सवाल खड़ा किया जा सके। सवाल खड़ा हो भी चुका है। बौद्धिक वर्ग में भले ही लड़ाई बराबरी की दिख रही हो, लेकिन जमीन पर देश विरोधी के तौर पर वामपंथियों की पहचान साबित तौर पर होने का खतरा बढ़ गया है। ये बात और ठीक से साबित हो चुकी होती अगर, दिल्ली पुलिस ने बिना किसी पक्के सबूत के राष्ट्रद्रोह के आरोप में एआईएसएफ के कन्हैया कुमार को गिरफ्तार न किया होता। इस गिरफ्तारी के बाद दोनों तरफ से जो वीडियो आए उसमें पहले फर्जी वीडियो के जरिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं को पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाते हुए दिखाया गया। जो फर्जी साबित हुआ और राष्ट्रवाद समर्थकों ने वामपंथ के खिलाफ बड़ा मोर्चा खोल दिया। लेकिन, इसके बाद जिस एक वीडियो में उमर खालिद के साथ कन्हैया के नारे लगाने को राष्ट्रद्रोही होने का सबसे बड़ा आधार माना जा रहा था वही भी पूरी तरह से गलत साबित हो गया।
कन्हैया कुमार जब नारे लगा रहा था तो उसका साथ उमर खालिद दे रहा था। लेकिन, वो नारे देश विरोधी नहीं थे। ये नारे वो थे जो वामपंथी छात्र संगठन नियमित तौर पर लगाते रहे हैं। इससे ये तो तय हुआ कि दिल्ली पुलिस ने गलत बुनियाद पर कन्हैया को गिरफ्तार कर लिया है। लेकिन, इसी वीडियो से ये भी तय हो रहा है कि उमर खालिद और कन्हैया कुमार का गठजोड़ तगड़ा है। यानी वामपंथ और आतंकवाद समर्थक देश विरोधियों का गठजोड़ तगड़ा है। अब वामपंथ इस वीडियो को ज्यादा से ज्यादा प्रचारित करके सरकार को गलत साबित करने की कोशिश में लगा है। ये वामपंथ के लिए बहुत बड़ी गलती साबित होती जा रही है। क्योंकि, खुद वामपंथी नेता भी कम से कम देशद्रोह के मुद्दे पर उमर खालिद के साथ सार्वजनिक तौर पर खड़े नहीं हो रहे हैं। अगर खड़े हुए तो नामोनिशान मिट जाएगा। ये खतरा शायद वामपंथ समझ नहीं पा रहा है।
सरोकार-सरोकार चिल्लाते वामपंथी हिंदुस्तान में कब सिर्फ दिखावे भर के सरकार विरोधी भर रह गए ये उन्हें भी नहीं पता चला। वामपंथियों को ये भी नहीं समझ आया कि वो हर बात पर मोदी का विरोध करते रहे। नरेंद्र मोदी चुपचाप देश के लोगों में ज्यादा से ज्यादा अपनी बात पहुंचाने में लगे रहे। अभी भी कई बड़े पत्रकार, लेखक दक्षिणपंथ-वामपंथ की इस लड़ाई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पुराना हिसाब चुकता कर लेना चाह रहे हैं। जिससे ये साबित हो कि पत्रकार चाहें, तो किसी नेता की मिट्टी पलीद कर सकते हैं। कांग्रेसी सरकार चलाने के मौके पाते रहें तो उन्हें इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि मीडिया भ्रम फैलाता रहे कि सरकार उन्हीं की वजह से चल रही है। भाजपाई नेता ऐसा नहीं कर पाते हैं। उसकी बड़ी वजह ये होती है कि बड़ी मुश्किलों से, मेहनत से उन्हें सत्ता मिलती है। भले ही मीडिया उनके साथ रहे, तो भी। इसी फर्क की वजह से भाजपा नेता, सरकार मीडिया को ज्यादा श्रेय देने को तैयार नहीं होता। इसीलिए वामपंथ को ये गलती कतई नहीं करनी चाहिए कि वो सिर्फ बौद्धिक लड़ाई के जरिए दक्षिणपंथी सरकार की कमियां निकाले।
भुखमरी से आजादी जैसे नारे पढ़ते वक्त तक जेएनयू और कुछ विश्वविद्यालयों में हो सकता है कि वामपंथ की छात्र राजनीति चमकाए रहें। लेकिन, सच्चाई यही है कि विश्वविद्यालय से निकलने के बाद वही नौजवान समझ जाता है कि अपनी जेब भरी रहेगी तभी भुखमरी से आजादी से मिल सकेगी। और वो सिर्फ नारों से नहीं होगा। इसलिए वामपंथ को अब इस बड़ी गलती को सुधारने की जरूरत है। खोखले नारों की बुनियाद पर अब देश के नौजवान को बहकाना मुश्किल है। ये वामपंथ को समझना होगा। वामपंथ, कांग्रेस के साथ संसद ठप कर रहा है। नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषणों को निकालकर उसके होने-न होने पर जनमत तैयार करना चाहता है। लेकिन, एक ऐसा आंदोलन नहीं दिखा जो वामपंथ ने सरोकारों पर इस सरकार के खिलाफ चलाया हो।
वामपंथ की गलतियां बड़ी होती जा रही हैं। वो तो दक्षिणपंथी सरकार ने गलती कर दी कन्हैया कुमार को गिरफ्तार करके। मृतप्राय सीपीआई को एक राष्ट्रीय नेता दे दिया। लेकिन, पूरी उम्मीद है कि वामपंथ इससे बड़ी गलती करके इस मौके को गंवा देगा और दक्षिणपंथ-वामपंथ की ये लड़ाई सड़कों पर, विश्वविद्यालय परिसरों में अभी और बढ़ेगी। क्योंकि, दक्षिणपंथ को ये लग रहा है कि यही मौका वामपंथ को पूरी तरह से खत्म कर देने का है। तो वामपंथ को लग रहा है कि अब खोने को बचा क्या है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता अथवा सच्चाई के प्रति सत्ता विमर्श उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)