गांधी की नजर में लोकमान्य तिलक
लोकमान्य तिलक की नौवीं पुण्यतिथि पर 2 अगस्त 1929 को अहमदाबाद स्थित गुजरात विद्यापीठ में महात्मा गांधी जब भाषण देने पहुंचे तो शुरूआत में ही उनसे 'शठं प्रति शाठ्यम' जो तिलक का सिद्धांत माना जाता है के बारे में सवाल कर दिया गया। गांधी जी ने इसी ठेठ सवाल से अपना भाषण शुरू करते हुए कहा, आपका यही सवाल है न कि लोग 'शठं प्रति शाठ्यम' को तिलक महाराज का सिद्धांत मानते हैं तो हमें उनके जीवन में इस सिद्धांत की प्रतीति कहां तक होती है? हमें इस प्रश्न की छानबीन से बहुत कुछ नहीं मिल सकता। इस बारे में तिलक महाराज के साथ मेरा थोड़ा बहुत पत्र व्यवहार अवश्य हुआ था। उनके जीवन के नम्र विद्यार्थी और गुणों के एक पुजारी के नाते मैं कह सकता हूं कि तिलक महाराज में विनोद की शक्ति थी। विनोद के लिए अंग्रेजी में ह्यूमर शब्द है। अब तक हम इस अर्थ में विनोद का उपयोग नहीं करते, इसी से अंग्रेजी शब्द देकर अर्थ स्पष्ट करने की जरूरत पड़ी। वे राष्ट्र का इतना बोझ उठाते थे कि अगर उनमें यह विनोद शक्ति न होती तो वे पागल हो जाते। अपनी विनोदप्रियता के कारण वे स्वयं अपनी रक्षा तो कर ही लेते थे, दूसरों को भी विषम स्थिति में से बचा लेते थे। दूसरे, मैंने यह देखा कि वाद-विवाद करते समय वे कभी-कभी जानबूझकर अतिशयोक्ति से भी काम ले लेते थे।
प्रस्तुत प्रश्न के संबंध में मेरा उनका जो पत्र व्यवहार हुआ था, वह मझे ठीक-ठाक याद नहीं है, आप लोग उसे देख जाएं। 'शठं प्रति शाठ्यम' तिलक महाराज का जीवन मंत्र नहीं था। अगर ऐसा होता तो वे इतनी लोकप्रियता प्राप्त न कर पाते। मेरी समझ में, संसार भर में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है, जिसमें किसी भी मनुष्य ने इस सिद्धांत पर अपने जीवन का निर्माण किया हो और फिर भी वह लोकमान्य बन सका हो। यह सच है कि इस बारे में मैं जितनी गहराई से सोचता हूं, वे उस पर उतनी बारीकी से ध्यान नहीं देते थे- हम शठ के प्रति शाठ्य का कदापि उपयोग कर ही नहीं सकते।
गीता रहस्य में एक-दो स्थानों में, सिर्फ एक ही दो स्थानों में इस बात का थोड़ा समर्थन मिलता जरूर है। लोकमान्य मानते थे कि राष्ट्रहित के लिए अगर कभी शाठ्य से- दूसरे शब्दों में 'जैसे को तैसा' के सिद्धांत से काम लेना पड़े तो ले सकते हैं। साथ ही वे यह भी अवश्य मानते थे कि शठ के सामने भी सत्य का प्रयोग करना अच्छा है, यही सत्य सिद्धांत है, मगर इस संबंध में वे कहते थे कि साधु लोग ही इस सिद्धांत पर अमल कर सकते हैं। तिलक महाराज की व्याख्या के अनुसार साधु लोगों का अर्थ बैरागी नहीं, बल्कि उन लोगों से होता है जो दुनिया से अलिप्त रहते हैं, जो दुनियादारी के कामों में भाग नहीं लेते। इससे यह अर्थ नहीं निकलता कि अगर कोई दुनिया में रहकर इस सिद्धांत का पालन करे तो वह अनुचित होगा- वह न कर सके तो यह दूसरी बात होगी और वे मानते थे कि उस हालत में शाठ्य का उपयोग करने का उसे अधिकार है। लेकिन अगर ऐसे महान पुरूष के जीवन का मूल्य विवादास्पद बातों के आधार पर न ठहराएं। लोकमान्य का जीवन भारत के लिए, समस्त विश्व के लिए एक बहुमूल्य विरासत है। उसकी पूरी कीमत तो भविष्य ही निश्चित करेगा। इतिहास ही उसकी कीमत का अंदाजा लगाएगा, वही लगा सकता है। जीवित मनुष्य का ठीक-ठाक मूल्य, उसका सच्चा महत्व, उसके समकालीन कभी निश्चित कर ही नहीं सकते। उनसे कुछ न कुछ पक्षपात तो हो ही जाता है, क्योंकि इस काम के कर्ता भी रागद्वेषपूर्ण लोग ही होते हैं। सच पूछा जाए तो इतिहासकार भी राग-द्वेष-रहित नहीं पाए जाते। गिवन प्रामाणिक इतिहासकार माना जाता है, मगर मुझे तो पन्ने-पन्ने पर उसके पक्षपात का अनुभव होता रहता है। मनुष्य विशेष या संस्था विशेष के प्रति राग अथवा द्वेष से प्रेरित होकर उसने बहुतेरी बातें लिखी होंगी। समकालीन व्यक्ति के मन में विशेष पक्षपात होना संभव रहता है। लोकमान्य के महान जीवन का उपयोग तो यह है कि हम सदा उनके जीवन के शाश्वत सिद्धांतों का स्मरण और अनुकरण करें।
तिलक महाराज का देशप्रेम अटल था। साथ ही उनमें तीक्ष्ण न्यायवृति भी थी। इस गुण का परिचय मुझे अनायास ही मिल गया था। सन् 1917 की कलकत्ता महासभा के दिनों में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की सभी में भी वे आए थे। महासभा के काम से उन्हें फुरसत तो कैसे हो सकती थी। फिर भी वे आए और भाषण करके चले गए। मैंने वहीं देखा कि राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति उनमें कितना प्रेम था। मगर इससे भी बढ़कर जो बात मैंने उनमें देखी, वह थी अंग्रेजों के प्रति उनकी न्यायवृति। उन्होंने अपना भाषण ही यों शुरू किया था- 'मैं अंग्रेजी शासन की खूब निन्दा करता हूं, फिर भी अंग्रेज विद्वानों ने हमारी भाषा की जो सेवा सी है, उसे हम भुला नहीं सकते।' उनका आधा भाषण इसी भावना से भरा था और अंत में उन्होंने कहा था कि अगर हमें राष्ट्रभाषा के क्षेत्र में काम करना है और उसको उन्नत करना है तो हमें भी अंग्रेज विद्वानों की भांति ही परिश्रम और अध्ययन करना चाहिए। उन्होंने कहा था कि हमारी लिपि की रक्षा और हमारे व्याकरण की व्यवस्था के लिए हमें एक बड़ी हद तक अंग्रेज विद्वानों की भांति ही परिश्रम और अध्ययन करना चाहिए। उन्होंने कहा था कि हमारी लिपि की रक्षा और हमारे व्याकरण की व्याख्या की व्यवस्था के लिए हम एक बड़ी हद तक अंग्रेज विद्वानों के आभारी हैं। जो पादरी आरंभ में आए थे, उनमें दूसरों की भाषा के लिए प्रेम था। गुजराती में टेलर-कृत व्याकरण कोई साधारण वस्तु नहीं है। लोकमान्य ने तब इस बात का विचार नहीं किया था कि अंग्रेजों की स्तुति करने से मेरी लोकप्रियता घटेगी। लोगों का तो यही विश्वास था कि वे अंग्रेजों की केवल निंदा ही कर सकते हैं।
तिलक महाराज में जो त्यागवृति थी, उसका सौवां या हजारवां भाग भी हम अपने में नहीं बता सकते। और उनकी सादगी? उनके कमरे में न तो किसी तरह का फर्नीचर होता था, न कोई खास सजावट। अपरिचित आदमी तो सोच भी नहीं सकता था कि वह किसी बड़े आदमी का निवास स्थान है। रग-रग में भिदी हुई उनकी इस सादगी का हम अनुसरण करें तो कैसा हो? उनका धैर्य तो अद्भुत था ही। अपने कर्तव्य में वे सदा अटल रहते थे और उसे कभी भूलते ही न थे। धर्मपत्नी की मृत्यु का संवाद पाने पर भी उनकी कलम चलती ही रही। हम एक और तो खूब आनंद भोगते रहना चाहते हैं और दूसरी ओर स्वराज्य भी लेना चाहते हैं। ये दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं। इन दिनों देश में पाखंड, स्वच्छंदता और स्वेच्छाचार का बाजार गर्म है। अगर हम स्वराज्य लेना चाहते हैं तो स्वराज्य ही हमारा ध्यान मंत्र होना चाहिए। स्वेच्छाचार कदापि नहीं। क्या हम तिलक महाराज के जीवन के भोग-विलास में बीते एक भी क्षण पर अंगुली रख सकते हैं? उनमें जबरदस्त सहिष्णुता थी। यानी वे चाहे जितने उद्दंत आदमी से भी काम करवा लेते थे। लोकनायक में यह शक्ति होनी चाहिए। इससे कोई हानि नहीं होती। अगर हम संकुचित हृदय के बन जाएं और सोच लें कि फलां आदमी से काम लेंगे ही नहीं, तो या तो हमें जंगल में जाकर बस जाना चाहिए या घर बैठकर गृहस्थ का जीवन बिताना चाहिए और इसमें भी शर्त यही है कि हम खुद अलिप्त रह सकें।
मुंह से तिलक महाराज का बखान करके ही हम अपने कर्तव्य की इति न मान बैठें। काम, काम और काम ही हमारा जीवन सूत्र होना चाहिए। हम स्वराज्य-यज्ञ को चालू रखना चाहते हैं तो हम निकम्मे साहित्य को पढ़ना बंद कर दें, निरर्थक बातें करना छोड़ दें और अपने जीवन का एक-एक क्षण स्वराज्य के काम में बिताने लगें। आप पूछेंगे कि क्या पढ़ाई छोड़कर यह काम करें? सन् 1921 में भी विद्यार्थियों के साथ यह लेकर मुझे विवाद करना पड़ता था। तिलक महाराज ने क्या किया था? उन्होंने जो बड़े-बड़े ग्रंथ लिखे, वे बाहर रहकर नहीं, जेल में लिखे थे। गीता रहस्य और आर्क्टिक होम वे जेल में ही लिख पाए थे। बड़े-बड़े मौलिक ग्रंथ लिखने की शक्ति होते हुए भी उन्होंने देश के लिए उसका बलिदान किया था। उन्होंने सोचा, घर के चारों ओर आग भभक उठी है, इसे जितनी बुझा सकूं उतनी जल्दी बुझाऊं। उन्होंने अगर हजार घड़े पानी उसपर डाला तो हम एक ही घड़ा डालें, मगर डालें तो सही। पढ़ाई आदि आवश्यक होते हुए भी गौण बातें हैं। अगर स्वराज्य के लिए इनका उपयोग होता हो तो करना चाहिए, अन्यथा इन्हें तिलांजलि दे देनी चाहिए। इससे न हमारा नुकसान होगा न संसार का।
तिलक महाराज अपने जीवन द्वारा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण छोड़ गए हैं। जिनके जीवन में से इतनी सारी बातें ग्रहण करने योग्य हों, जिनकी विरासत इतनी जबरदस्त हो, उनके संबंध में उक्त प्रश्न को लेकर बैठे रहने की गुंजाइश ही नहीं रहती। हमारा धर्म तो गुणग्राही बनने का है। आज हमें जो काम करना है, वह मुर्दार आदमियों के किए हो नहीं सकता। स्वराज्य का काम कठिन है। भारत में आज एक लहर बह रही है। उसमें खिंचकर हम भाषण करते हैं, उपद्रव मचाते हैं, तूफान खड़े करते हैं, चाहे जिस ढंग से संस्था में घुस जाते हैं और फिर उन्हें नष्ट करते हैं और धारासभाओं में जाकर भाषण करते हैं। तिलक महाराज के जीवन में ये बातें हमारे देखने में भी नहीं आतीं।
उनके जीवन में जो गुण अनुकरणीय हैं, सो तो मैं ऊपर कह ही चुका हूं। मगर आप इतना करेंगे तो आपका इस राष्ट्रीय विद्यापीठ में रहकर अध्ययन करना सार्थक होगा, अन्यथा आप पर जो खर्च हो रहा है, वह व्यर्थ जाएगा। अगर इतना कर्तव्य कर्म कर न करें तो इन भाषणों और पाठ्यक्रम के निबंध-वाचन आदि के होते हुए हम जहां थे, वहीं बने रहेंगे और आज के उत्सव में जो दो घंटे बीते हैं, वे भी निरर्थक सिद्ध होंगे। मुझे आशा है, ऐसा न होगा।
(2 अगस्त 1929 को गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद में दिया गया भाषण : गांधी मार्ग से साभार)