महात्मा गांधी : मेरा जीवन ही मेरा संदेश
जस्टिस सी.एस. धर्माधिकारी
महात्मा गांधी ने अपने जीवन दर्शन को इन शब्दों 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है' से व्यक्त किया है। उनका विविध और सक्रिय व्यक्तित्व सत्य और सिर्फ सत्य पर ही आधारित था। अहिंसा इनके जीवन का दूसरा सबसे बड़ा सिद्धांत था।
भारत छोड़ो आंदोलन की पूर्व संध्या पर 8 अगस्त 1942 को बम्बई में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में महात्मा गांधी ने घोषणा की थी, 'मैं अपने जीवन की पूरी अवधि को जीना चाहता हूं और मेरे अनुसार पूरी अवधि 125 वर्षों की है। उस समय तक न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया मुक्त (आजाद) हो जायेगा। मैं नहीं मानता कि आज अंग्रेज स्वतंत्र हैं, मैं ये भी नहीं मानता कि आज अमेरिकन स्वतंत्र हैं। वे क्या करने के लिए स्वतंत्र हैं? मानवता के दूसरे पहलू को बंधक बनाने के लिए? क्या वे अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हैं? मैं अहंकारी नहीं हूं। मैं घमंडी नहीं हूं। मैं गर्व, अहंकार, धृष्टता और इन सबके बीच अंतर को भली भांति समझता हूं। लेकिन मैं यह कहता हूं कि मुझे भगवान में विश्वास है। यह एक ऐसा आधारभूत सत्य है जो मैं आपको कह रहा हूं।'
गांधी जी एक सामान्य मनुष्य थे। वे एक ऐसे सार्वभौम व्यक्ति थे जिसको आप माप, तौल से अनुमान नहीं लगा सकते। वे इन सब बातों से ऊपर थे। गांधी जी न तो एक दार्शनिक थे और न ही एक राजनीतिज्ञ। वे सत्य के सबसे बड़े साधक थे। सत्य सबको जोड़ता है क्योंकि यह केवल एक और एक ही हो सकता है। आप किसी व्यक्ति का सर काट सकते हैं पर उसके विचारों को नहीं काट सकते। अहिंसा सत्य का ही दूसरा पहलू है। अहिंसा प्रेम है जो जीवन का सार भी है।
अहिंसा के इसी सिद्धांत को अपनाते हुए गांधी जी ने बुराई और असत्य के खिलाफ प्रतिरोध शुरू किया था। उनका सत्याग्रह अपार प्रेम और करूणा से प्रेरित है। उन्होंने पाप का विरोध किया पापी का नहीं, बुराई का विरोध किया बुरा करने वाले का नहीं। उनके लिए सत्य खुद भगवान थे और इसीलिए वे भगवान के आदमी थे। सत्य न तो हमारा है और न ही तुम्हारा। यह न तो पश्चिम वालों का है और न तो पूरब वालों का।
गांधी जी की प्रार्थना एक दूसरे मनुष्य की आंतरिक शक्ति को बढ़ाने के लिए है, उनका चरखा उत्पादक श्रम की गरिमा के लिए है और उनकी छड़ी जन्म के आधार पर फैले सामाजिक असमानताओं के उन्मूलन के लिए है। वे व्यापारिक वस्तुओं के लिए बनाये गये नियम से आजादी चाहते थे। वे उत्पादक प्रणाली में तार्किकता चाहते थे जो मानवता पर आधारित हो।
गांधी एक रूढ़िवादी अर्थशास्त्री नहीं थे। उनकी योजना पूरी मानव जाति की शांति, सुरक्षा और प्रगति के लिए थी। उनका मानना था कि योजना पूरी तरह मानव आधारित होनी चाहिए। ये सारे मुद्दे सिर्फ भारत तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि वैश्विक हैं। ये सिद्धांत सार्वभौमिक हैं। उन्होंने मानवता के आचरण पर जोर दिया। उन्होंने सामाजिक बदलाव के लिए नये तरीके भी पेश किए।
सत्याग्रह को रचनात्मक कार्य अथवा आश्रम नियमों के अनुपालन के साथ जोड़े बिना नहीं समझा जा सकता। यदि गांधी जी एक समाज सुधारक और महात्मा नहीं होते, तो वे एक राजनेता और स्वतंत्रता सेनानी भी नहीं हो सकते थे। यह पूरी गरिमा के साथ सत्य की खोज है, जो गांधी जैसे व्यक्ति का सृजन करती है।
गांधी जी अपने जीवन में पहले बनी किसी विचारधारा के साथ कभी भी दृढ़ नहीं रहते थे। आवश्यकता पड़ने पर वे अपना आग्रह हमेशा छोड़ देते थे। उनकी इस 'अदृढ़ता' या लचीलेपन के कारण उनके विरोधी उन्हें 'अस्थिर राजनीतिज्ञ' कहते थे। मेरा यह मानना है कि उनका यह लचीलापन उनके सतत विकासमान व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति था, जिनके लिए 'दृढ़ता' उतनी महत्वपूर्ण नहीं थी, जितना कि यह महत्वपूर्ण था कि किसी निर्दिष्ट समय पर सत्य की भीतरी आवाज को समझें।
गांधी जी ने अहिंसा के एक प्राचीन, परन्तु शक्तिशाली सिद्धांत को आधार बनाया और उसे विश्वभर में, विशेषकर राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में, लोकप्रिय बनाया। परन्तु, अहिंसा का अर्थ अत्यन्त व्यापक है, वह हिंसा न करने मात्र तक सीमित नहीं है। अहिंसा अधिक रचनात्मक, अधिक सार्थक और अधिक गतिशील है और गांधी जी उसे लोगों के कल्याण के दायित्व के साथ जोड़ कर देखते थे। उनकी महान उपलब्धि यह थी कि वे स्वयं के उदाहरण से दिखलाते थे कि अहिंसा को न केवल राजनीतिक जीवन में कारगर ढंग से लागू किया जा सकता है, बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी में भी वह उतनी ही सार्थक है। उनका समूचा जीवन सत्य के साथ उनके प्रयोग से सबद्ध रहा।
गांधी जानते थे कि मानव गरिमा को परोपकार पर संरक्षित नहीं किया जा सकता। पारस्परिकता और खुशहाली जीवन का सार है। इसलिए केवल एस+जी यानी साइंस+गांधी की धारणा ही धरती को बचा सकती है। गांधी जी शांति और भाईचारे के देवदूत थे। आधुनिक परमाणु हथियार न केवल विश्व शांति के प्रति एक खतरा हैं, बल्कि वे धरती को नष्ट कर देंगे। गांधी जी ने विकास के पारिस्थितिकी विषयक टिकाऊ मॉडल का प्रचार करने के अलावा, अहिंसा पर आधारित सामाजिक-आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण और लोक शक्ति के निर्माण, जन-सहयोग पर आधारित साम्प्रदायिक सद्भाव पर बल दिया, न कि केवल राजसत्ता को एक विकल्प समझा।
कुछ लोग यह समझते हैं कि करुणा या अहिंसा कार्य के प्रति एक युक्तिसंगत प्रेरणा के बजाय एक परोक्ष भावानात्मक कार्यवाही है। वे भूल जाते हैं कि गांधी जी इसे जिम्मेदारी की भावना के साथ जोड़ते हैं। वे महज एक मूकदर्शक नहीं थे, बल्कि एक सक्रिय कार्यकर्ता थे। वे पहले अनुपालन करते थे और फिर प्रचार करते थे। उक्त संदर्भ में वे एक सही नेता थे। जब कभी जीवन में कोई संकट आता था, तो वे हमेशा आगे रहते थे और सत्ता या संपदा की इच्छा नहीं रखते थे। बलिदान उनके जीवन का केन्द्र बिन्दु था। वे सामान्य जरूरतों पर आधारित जीवन जीते थे, क्योंकि वे जानते थे कि जरूरतें समाप्त हो जायेंगी, परन्तु लालच का अंत नहीं होगा।
गांधी जी समझते थे कि 'आने वाले समय में लोग इस आधार पर मूल्यांकन नहीं करेंगे कि हमने किस पंथ का प्रचार किया,या हमने कौन सा बिल्ला लगाया, या कौन सा नारा दिया, बल्कि हमारी पहचान हमारे द्वारा किए गए कार्यों, उद्यम,बलिदान, ईमानदारी और चरित्र की पवित्रता के साथ की जायेगी।' वे यह भी जानते थे कि जो व्यक्ति स्वतंत्रता की मांग करता है, उसे बहुत सारे खतरे उठाने पड़ते हैं। यही उनके जीवन का सार था, और इसीलिए वे कह पाये कि 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है'। (पीआईबी से साभार)
(लेखक बम्बई उच्च न्यायालय के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं। वे वर्तमान में गांधी अध्ययन संस्थान, वर्धा और गांधी अनुसंधान प्रतिष्ठान, जलगांव के अध्यक्ष हैं।)