NJAC पर SC का निर्णय - एक वैकल्पिक दृष्टिकोण
अरुण जेटली
भारत की सर्वोच्च अदालत ने बहुमत से उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग की स्थापना हेतु किये गए 99वें संविधान संशोधन को खारिज कर दिया। पांच माननीय न्यायाधीशों की राय पढ़ने के बाद मेरे दिमाग में कुछ मुद्दे उत्पन्न होते हैं।
बहुमत की राय के पीछे के मुख्य तर्क से यह प्रतीत होता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के मूल ढांचे का एक अनिवार्य अंग है। निश्चित रूप से यह एक सही प्रस्ताव है। ऐसा कह कर बहुमत एक त्रुटिपूर्ण तर्क में अतिऋमण कर रही है। इनका तर्क है कि आयोग में क़ानून मंत्री की उपस्थिति और दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों की नियुक्ति, जिनमें भारत के मुख्य न्यायाधीश के अलावा, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता शामिल होंगे, न्यायिक नियुक्तियों में राजनीतिक हस्तक्षेप को संस्थापित करेगा। इस आधार पर नियुक्त न्यायाधीश राजनेताओं के प्रति आभार महसूस कर सकते हैं। एक राजनीतिक व्यक्ति स्पष्ट रूप से अपने राजनीतिक हित के द्वारा निर्देशित किया जाएगा। न्यायाधीशों ने 'प्रतिकूल' परिणाम भुगतने की चेतावनी दी है अगर राजनेता नियुक्ति प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं। इसलिए न्यायपालिका की राजनीतिक व्यक्तियों से सुरक्षा आवश्यक थी। यही प्रमुख कारण है जिसके चलते सर्वसम्मति से संसद और राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित संविधान संशोधन को खारिज किया गया है।
इस निर्णय का मुख्य पहलू राजनेताओं को कोसना है। एक समझदार न्यायाधीश तर्क देते हैं कि श्री लालकृष्ण आडवाणी का विचार है कि किसी आपातकालीन जैसी स्थिति के खतरे अभी भी हैं। भारत में सिविल सोसायटी मजबूत नहीं है और इसीलिये, आपको एक स्वतंत्र न्यायपालिका की जरूरत है। दूसरे तर्क देते हैं कि यह संभव है कि वर्तमान सरकार उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में वैकल्पिक लैंगिकता वाले वक्तियों की नियुक्ति के पक्ष में नहीं है। राजनेताओं को कोसना टेलीविजन के प्राइम टाइम कार्यक्रमों का पर्याय बन चुका है ।
यह फैसला भारत के बृहत् संवैधानिक संरचना को अनदेखा करती है। निर्विवाद रूप से न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के मूल ढांचे का एक हिस्सा है। इसे संरक्षित किया जाना चाहिए। लेकिन यह निर्णय इस तथ्य के ओर ध्यान नहीं देता कि संविधान की कई अन्य विशेषताएं हैं जो बुनियादी संरचना में शामिल है। संविधान का सबसे महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचा संसदीय लोकतंत्र है। भारतीय संविधान की अगली महत्वपूर्ण बुनियादी संरचना एक चुनी हुई सरकार है जो देश की संप्रभुता की आत्मा का प्रतिनिधित्व करती है। प्रधानमंत्री संसदीय लोकतंत्र में सबसे महत्वपूर्ण जवाबदेह संस्था है। विपक्ष के नेता बुनियादी संरचना का एक अनिवार्य पहलू हैं जो संसद में वैकल्पिक आवाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। क़ानून मंत्री संविधान संविधान की एक प्रमुख बुनियादी संरचना, मंत्रिपरिषद, का प्रतिनिधित्व करते हैं जो संसद के प्रति जवाबदेह है। ये सभी संस्थाएं, संसदीय संप्रभुता, एक निर्वाचित सरकार, प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता, कानून मंत्री संविधान के बुनियादी ढांचे का एक हिस्सा हैं। वे लोगों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।
जाहिर है कि बहुमत की राय का वास्ता एकमात्र बुनियादी संरचना से था - न्यायपालिका की स्वतंत्रता - जबकि एक तर्क के औचित्य पर निर्णय पारित करके कि भारत के लोकतंत्र को उसके चुने हुए प्रतिनिधियों से बचाना है, अन्य सभी बुनियादी संरचनाओं को "राजनेता" के रूप में जिक्र कर निरर्थक बता दिया गया। न्यायाधीशों के निर्णय ने एक बुनियादी संरचना, न्यायपालिका की स्वतंत्रता की श्रेष्ठता को बरकरार रखा है लेकिन संविधान के पांच अन्य बुनियादी ढांचे, संसदीय लोकतंत्र, चुनी हुई सरकार, मंत्रि परिषद, एक निर्वाचित प्रधानमंत्री और चुने हुए विपक्ष के नेता को कमजोर कर दिया है। बेंच के बहुमत ने यह बुनियादी गलती की है।
एक संवैधानिक अदालत को संविधान की व्याख्या करते वक्त संविधान के सिद्धांतों पर फैसला देना होता है। ऐसा कोई संवैधानिक सिद्धांत नहीं है कि लोकतंत्र और उसके संस्थानों को चुने हुए जनप्रतिनिधियों से बचाया जाए। भारतीय लोकतंत्र गैर निर्वाचित लोगों का निरंकुश तंत्र नहीं बन सकता है और अगर चुने हुए लोगों को दरकिनार किया गया तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। क्या चुनाव आयोग और कैग जैसी संस्थाएं योग्य विश्वसनीय नहीं हैं हालांकि वे निर्वाचित सरकारों द्वारा नियुक्त किये जाते हैं।
ऐसे किसी व्यक्ति के रूप में जिसने संसद की तुलना में अदालत में अधिक साल बिताये हों, मैं भारतीय लोकतंत्र के बारे में बात करने को विवश हूँ। दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र में कोई सिद्धांत नहीं है कि लोकतंत्र की संस्थाओं को निर्वाचित संस्थाओं से बचाया जाये। दिया गया स्पष्टीकरण एक मजबूत नींव पर दिया जाना चाहिए था। अगर एक नेता यह महसूस करता है कि आपातकालीन स्थिति का खतरा है, तो ऐसी कोई मान्यता नहीं है कि केवल सर्वोच्च न्यायालय ही इसे बचा सकता है। सत्तर के दशक के मध्य में जब आपातकाल घोषित किया गया था, वह मेरे जैसे लोग थे - राजनीतिज्ञ, जिन्होंने लड़ाई लड़ी और जेल गये। यह सर्वोच्च अदालत थी, जिसे झुकना पड़ा और इसलिए अदालत के लिए यह मान लेना कि वह अकेले राष्ट्र को आपातकाल से रक्षा कर सकती है, अतीत में झुठला दिया गया है।
वैकल्पिक लैंगिकता का प्रतिनिधित्व करनेवाले लोगों के लिए, दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसे अपराधमुक्त कर दिया था। मैं वर्तमान सरकार का एक हिस्सा हूं, लेकिन मैंने सार्वजनिक रूप से दिल्ली उच्च न्यायालय की राय का समर्थन किया था। यह सर्वोच्च न्यायालय ही थी, जिसने इसे फिर से अपराध घोषित किया था। वैकल्पिक लैंगिकता के अनुयायी वर्ग को न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त किए जाने की धारणा को केवल सुप्रीम कोर्ट द्वारा संरक्षित किया जा सकता है, फिर से इतिहास द्वारा गलत साबित हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय की राय अंतिम है। यह अमोघ नहीं है।
यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 के प्रावधान की व्याख्या करती है। अनुच्छेद 124 सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति से सम्बंधित है और अनुच्छेद 217 उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति से सम्बंधित है। दोनों अनुच्छेद भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति किए जाने के अधिकार प्रदान करते हैं। संविधान का अधिदेश था कि भारत के मुख्य न्यायाधीश मात्र एक परामर्शदाता हैं। राष्ट्रपति नियुक्ति प्राधिकारी हैं। व्याख्या का बुनियादी सिद्धांत यह है कि एक क़ानून की एक विस्तारित अर्थ देने के लिए व्याख्या की जा सकती है, लेकिन प्रत्येक विपरीत मतलब के लिए उन्हें फिर से नहीं लिखा जा सकता है।
दूसरे न्यायाधीश के मामले में, न्यायालय ने मुख्य न्यायाधीश को नियुक्ति प्राधिकारी और राष्ट्रपति को एक 'परामर्शदाता' घोषित कर दिया है। तीसरे न्यायाधीश के मामले में, न्यायालय ने न्यायाधीशों के कालेजियम के रूप में मुख्य न्यायाधीश की व्याख्या की है। राष्ट्रपति की प्रधानता को मुख्य न्यायाधीश या कालेजियम की प्रधानता के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया। चौथे न्यायाधीश के मामले में (वर्तमान में) अनुच्छेद 124 और 217 की व्याख्या में नियुक्ति के मामले में मुख्य न्यायाधीश की 'विशिष्टता' को अंतर्निहित कर दिया गया है और राष्ट्रपति की भूमिका को लगभग पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया है। कानून की व्याख्या का कोई सिद्धांत दुनिया में न्यायिक संस्थाओं को संविधान सभा के उलट संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करने का अधिकार क्षेत्र नहीं देता है। इस फैसले में यह दूसरी बुनियादी गलती है। न्यायालय केवल व्याख्या कर सकती है - यह एक क़ानून को दुबारा लिखने का तीसरा प्रकोष्ठ नहीं हो सकता।
99वें संविधान संशोधन को खारिज करके न्यायालय ने फिर से कानून बनाने का फैसला किया। अदालत ने 99वें संविधान संशोधन को खारिज कर दिया। अदालत को ऐसा करने का अधिकार है। इस संशोधन को खारिज करते हुए, निरस्त अनुच्छेद 124 और 217 के प्रावधानों को फिर से क़ानून बना दिया गया जो केवल विधायिका कर सकती है। इस फैसले मैं यह तीसरी बुनियादी गलती है।
चौथा सिद्धांत जिस आधार पर यह फैसला गलत साबित होता है, कॉलेजियम प्रणाली, जोकि न्यायिक कानून का एक उत्पाद है, की चर्चा करते हुए कहा गया कि यह दोषपूर्ण है। इसके सुधार के लिए एक सुनवाई तय की गई। न्यायालय ने फिर तीसरे प्रकोष्ठ होने के भूमिका की धारणा बना ली। यदि न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया के साथ कोई समस्या है, तो क्या उन विधायी परिवर्तनों को विधायिका के बाहर विकसित किया जाना है?
ऐसे व्यक्ति के रूप में, जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता और भारतीय संसद की संप्रभुता के बारे में समान रूप से चिंतित है, मेरा मानना है कि दोनों जरूरी है और दोनों का सह-अस्तित्व होना चाहिए। न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान की एक महत्वपूर्ण बुनियादी संरचना है। इसे मजबूत बनाने के लिए, किसी को संसदीय संप्रभुता को कमजोर करने की जरूरत नहीं है जो न केवल एक आवश्यक बुनियादी संरचना है, वरन हमारे लोकतंत्र की आत्मा है।
(लेखक के फेसबुक पोस्ट पर व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं)