पूर्वोत्तर और आदिवासी क्षेत्रों की किस्मत बदलेगा ‘हरा सोना’
सत्यप्रकाश
बांस को घास घोषित करने के केंद्र सरकार के फैसले से पूर्वोत्तर तथा देशभर के जनजातीय क्षेत्रों में होने वाला यह ‘हरा सोना’ आदिवासियों और किसानों की किस्मत बदलेगा और करोडों नौकरियां भी पैदा करेगा। सरकार ने यह ऐतिहासिक कदम उठाते हुए लगभग 90 वर्ष पुराने भारतीय वन अधिनियम 1927 में बदलाव करने के लिए अध्यादेश जारी किया है जिससे बांस को ‘वृक्ष’ की बजाय ‘घास’ माना जाएगा। इसके बाद बांस के आर्थिक इस्तेमाल के लिए सरकार से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
वनस्पति विज्ञान बांस को स्पष्ट रूप से घास मानता है। पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा है कि भारत विश्व में बांस का सबसे बड़ा उत्पादक देश है और यह पूर्वोत्तर में इसकी खेती बहुतायत में होती है। सरकार का बांस को घास घोषित करने का निर्णय पूर्वोत्तर राज्यों की अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन लेकर आएगा। इससे क्षेत्र में बांस आधारित उद्योग धंधें शुरू होंगे और बड़े स्तर पर लोगों को रोजगार मिलेगा। पूर्वोत्तर में दो करोड़ से ज्यादा लोग बांस आधारित गतिविधियों से जुड़े हुए हैं। मात्र एक टन बांस से 315 लोगों को रोजगार दिया जा सकता है।
‘हरा सोना’ माने जाने वाला बांस पूर्वोत्तर क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। हालांकि पूर्वोत्तर और आदिवासी जनजीवन में बांस की महत्वपूर्ण भूमिका है। बांस उच्च मात्रा में ऑक्सीजन गैस का उत्सर्जन करता है और कार्बनडाइऑक्साइड को सोखता है। बांस में उच्च तीव्रता के विकिरण (रेडिएशन) को सोखने की अद्भुत क्षमता है, इसलिए यह मोबाइल टॉवरों के दुष्प्रभाव को रोकने में काफी मददगार साबित हो सकता है। बांस प्रदूषण रहित ईंधन भी है क्योंकि यह जलने पर बहुत कम कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन करता है। लोक-शिल्प का एक बड़ा हिस्सा बांस पर निर्भर है।
पूर्वोत्तर और मध्य भारत बांस के वन, बांस की देसी प्रजाति और इसकी खेती के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध रहे हैं। भारतीय संस्कृति में भी बांस का विशेष महत्व रहा है। पर्व-त्योहार, रीति-रिवाजों में बांस का इस्तेमाल किसी न किसी रूप में होता है। लोक-शिल्प के विकास में बांस का योगदान है। ग्रामीण आबादी बांस से घरेलू उपयोग की बहुत-सी चीजें बनाती है। बांस की जड़ जमीन को इतनी मजबूती से पकड़ती है कि तेज आंधी भी इसे उखाड़ नहीं पाती। बांस की जड़ मिट्टी को कटाव से बचाती है और इस खूबी के कारण ही यह बाढ़ वाले इलाके के लिए वरदान है।
बांस को लेकर कोई व्यापक सर्वेक्षण तो नहीं हुआ है, लेकिन इसके पेड़ लगातार घटते जा रहे हैं। स्थिति को देखते हुए वर्ष 2006 में केंद्र सरकार ने बांस की खेती को बढ़ावा और संरक्षण देने के लिए महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय बांस मिशन (एनबीएम) योजना की शुरुआत की। बांस का इस्तेमाल लगभग 1500 तरीकों से किया जा सकता है। देश के आदिवासी हिस्सों में इससे कई तरह की घरेलू दवाइयां बनायी जाती हैं। च्यवनप्राश बनाने के लिए जरूरी तत्व ‘वंशलोचन’ बांस के तने से ही प्राप्त होता है। चीन में बांस की कोपलें लोगों की पसंदीदा सब्जी है और वहां के शर्मीले पशु पांडा का प्रिय भोजन भी बांस है। एशिया में बांस का सर्वाधिक उपयोग धार्मिक व सामाजिक कार्यक्रमों में होता है।
बांस एक तरह का घास है जो वृक्षीय घास या काष्ठीय घास के नाम से जाना जाता है। भारत में बांस को गरीबों की लकड़ी, चीन में लोगों का दोस्त, वियतनाम में भाई के रूप में जाना जाता है। बांस का वास्तविक नाम ‘मम्बू’ था, मलयालम भाषा में इसे ‘बम्बू’ नाम दिया गया। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में प्राप्त पांडुलिपि बांस के पत्तों पर ही लिखी गईं। पहले हवाई जहाज का मॉडल बांस से ही बनाया गया था। जापान में दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हुए परमाणु विस्फोट के बाद प्रभावित जगह पर सब कुछ नष्ट हो चुका था तो वहां सबसे पहला बांस का पौधा उगा था। बांस सबसे तेजी से बढ़ने वाला पौधा है। कुछ बांस तो 24 घंटे में दो से तीन इंच तक बढ़ जाते हैं। बिजली कड़कने से बांस की लंबाई और बढ़ती है। दुनिया में एक अरब लोग बांस से बने मकानों में रहते हैं।
एक अध्ययन के मुताबिक, बांस देश के पांच करोड़ परिवारों को को रोजगार दे सकता है। देश में बांस की लगभग 66 प्रतिशत पैदावार पूर्वोत्तर के राज्यों में होती है। दुनियाभर में बांस की 1500 प्रजातियां हैं। इनमें मात्र 137 प्रजातियां भारत में पायी जाती है। यूनेस्को ने बांस को बढ़ावा देने के लिए वर्ष 2010 को अंतरराष्ट्रीय बांस वर्ष घोषित किया था।