'ठगों की राजनीति' के सामने संसद बेबस
अखिलेश अखिल
मोदी जी ने नोटबंदी क्या की, देश की राजनीति ही बदल गई। कालाधन और भ्रष्टाचार पर लगाम कैसे लगे इसकी ताबीज गैर सरकारी संगठन अर्थक्रांति के संस्थापक अनिल बोकिल से मिलते ही मोदी जी एक्शन में आ गए। फरमान जारी किया की पुराने नोट बंद। फिर क्या था? जो हो रहा है जनता देख रही है। पक्ष-विपक्ष दोनों मुखर हो गया। दोनों तरफ की सेना जिनमें आभासी दुनिया की सेना भी शामिल है तलवार लेकर सामने हो गयी। कल तक जो एक दूसरे पर जान छिड़कते दोस्त थे, नोटबंदी को लेकर दुश्मन बन गए। दोस्त दोस्त ना रहा।
हालांकि ये आभासी दुनिया की तलवारें 2013 से ही तैनात है। गजब का विरोधाभाष है। सभी विपक्ष वाले नोटबंदी को लेकर संसद को जाम किये हुए है, जैसे इनके बाप दादा ने संसद का निर्माण कराया हो। जैसे उनकी निजी संपत्ति हो। हर दिन करोड़ों की लागत से संसद चलने को तैयार होती है और सत्ता-विपक्ष संसद की खर्च राशि गपक जा रहे हैं। यह भी एक तरह का घोटाला ही है जो आजादी के बाद से ही चल रहा है।
संसद का क्या काम है? देश, समाज, आमजन की समस्या, कल्याण, विकास, योजनाओं, विदेश नीतियों से जुड़े मसलो पर काम करने के लिए ही संसद चलती है। आजादी के बाद इस संसद में कानून तो बहुत बने लेकिन जनता ठगी की शिकार होती रही। ना जाने कितने कानून पर यहां बहस हुई, कानून लागू भी हुए लेकिन कानून हमेशा बेचारा ही साबित होता रहा। इस संसद ने ना जाने कितने नेताओ को पाला बदलते देखा, झूठ बोलते देखा, जनता मौन ही रही। एक पार्टी में रहते चोर, भ्रष्ट नेता दूसरी पार्टी में जाते ही कैसे सबसे ईमानदार बनते दिखे उसका भी संसद गवाह है। कितने सांसद पैसे लेकर कॉर्पोरेट के लिए काम करते दिखे इसे भी संसद देखती रही है। गरीब देश का संसद कैसे आमिर नेताओ से भरती चली गयी, यह भी संसद को याद है। किसके पास कितना कालाधन है और किस पार्टी के कितने नेताओं ने जनता के साथ धोखा किया है यह भी संसद समझ रही है। झकास कपड़ों में, बड़ी-बड़ी गाड़ियों में नौकर चाकरों में, सुरक्षा कर्मियों में हमेशा पैबस्त रहने वाले नेताओं के सभी कारनामे भी इस संसद को याद है।
लेकिन आज संसद बेबस है। मूकदर्शक बनी देश की महापंचायत तरह-तरह के जन प्रतिनिधियों के हाव-भाव, चेहरे -मोहरे, चाल-चलन, बकैती को देख सुन संसद मूर्छित और बदहवास है। संसद कभी-कभी बिना मुंह खोले मंद-मंद मुस्कुरा भी लेती है नेताओं की लंपटई पर। संसद के पास सबका इतिहास है। सारे नेताओ के रिकॉर्ड है। सबकी जन्म कुंडली है। सबकी चोरी, सीनाजोरी, लंठई, गुंडई, बलात्कारी प्रवृति, घूसखोरी, कालाधन बाजारी, मौकापरस्ती, झूठी बयानबाजी, मार-पिटाई, हाथापाई और ऋनात्मक चरित्र से जुडी नेतागिरी की तमाम वाद-संबाद संसद की दीवारों में पैबस्त है।
तो क्या संसद में जो कुछ हो रहा है उसके पीछे कोई जनता दुःखी है? कौन कह सकता है? सरकार भले ही कह सकती है कि देश के कल्याण के लिए नोटबंदी की गयी है। इस नोटबंदी पर किसी को ऐतराज भी नहीं। देश के लिए इस नोटबंदी का स्वागत किया जा सकता है। लेकिन क्या इतना भर ही मामला है? सरकार के लोग बता सकते हैं कि उनकी पार्टी के लोग अब तक किस तरह के पैसे से चुनाव लड़ते रहे हैं। कहते है कि 2014 का चुनाव ही केवल भाजपा ने 37 हजार करोड़ की राशि से लड़ी थी। कहां से आया था इतना पैसा? जबाब किसी के पास नहीं है। 40 साल से कांग्रेस किस पैसे से चुनाव लड़ रही थी? कितने घोटाले हुए कांग्रेस के काल में?
क्षेत्रीय पार्टियों की कहानी किसे पता नहीं? जाति और लूट की राजनीति पर टिकी क्षेत्रीय राजनीति ही सबसे ज्यादा देश को खंडहर बनाती रही है। सभी दलों की राजनीति और उनके नेताओ के चरित्र को खंगाल लीजिये, देश के बंटाधार की जानकारी मिल जाती है। इस देश में घी खाकर गरीबी पर भाषण की कला सबके पास है। इसमें कोई पीछे नहीं। कौन बदनाम नहीं है? किसके दामन साफ़ है? नेहरू से लेकर इंदिरा, राजीव, मोरारजी देसाई, नरसिंह राव, चंद्रशेखर, गुजराल, देवगौड़ा, अटल, मनमोहन और अब मोदी जी। किसके दामन साफ़ हैं?
क्या राजनीति साफ़ दामन पर हो सकती है? क्या राजनीति बिना जाल फेके संभव है? क्या राजनीति का कोई चरित्र होता है? अगर चरित्र है तो फिर दलबदलू राजनीति कहा से आ गयी? दोहरे चरित्र वालों की ही राजनीति नहीं है। संसद को सब याद है। तो आज संसद जाम है। क्यों जाम है इसका उत्तर ना तो सत्ता पक्ष के पास है और ना ही विपक्ष के पास है। उत्तर सिर्फ आभाषी दुनिया से जुड़े लोगो के पास है। मोदी के समर्थक अपने तर्क गढ़ रहे हैं तो विपक्ष के समर्थक के अपने तर्क हैं।
खेल देखिये कि नोटबंदी के सभी समर्थक हैं फिर संसद जाम क्यों है, सब मौन है। दरअसल सब राजनितिक खेल है। भ्रष्टाचार का खेल है। मोदी के एक्शन से भाजपा के भ्रष्ट लोग भी हलकान हैं। वे भी सरकार पर अपरोक्ष दबाब बनाए हुए हैं। मोदी की राजनीति नोटबंदी पर चुनाव जीतने की है जो विपक्ष के नहीं भा रहा है। इसके अपने तर्क भी है। सब पर केस मुकदमा चल रहे हैं। कोर्ट सबको उनके किये पर नजर रखे हुए है। लेकिन यहां जेल कोई नहीं जाता। लेकिन इस सबके बावजूद सरकार चलेगी और संसद मौन ही रहेगी। यही हमारा लोकतंत्र है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता अथवा सच्चाई के प्रति सत्ता विमर्श उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)