बढ़ती महंगाई : पलट दो सरकार को उलटा
प्रवीण कुमार
बीते एक महीने के आंकड़ों पर गौर करें तो चीनी, आटा, गेहूं, दाल ब्रेड से लेकर छोले, मूंगफली और चॉकलेट तक सभी चीजें महंगी हो गई हैं। आम बजट के बाद भी कुछ चीजों के दाम बढ़े हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के चुनाव में महंगाई कोई मुद्दा नहीं है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले चरण में वेस्ट की 73 सीटों पर मतदान के दिन तक नेता जात-पांत, सांप्रदायिक मुद्दे और स्थानीय मुद्दों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते दिखे।
इस संबंध में विपक्षी पार्टियों से आप सवाल करेंगे तो वह सत्ताधारी पार्टी पर निशाना साधता है। दूसरी तरफ केंद्र की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी कहती है कि यूपीए सरकार के मुकाबले महंगाई कम हुई है। अब कोई भी पार्टी प्रतिबद्धता के साथ अपने चुनाव घोषणा पत्र में महंगाई को मुद्दा नहीं बनाता है। कहने का मतलब यह कि बढ़ती महंगाई का मुद्दा धीरे-धीरे राजनीति के परिदृश्य से गायब हो चला है। ऐसे में एक मतदाता, एक मेहनतकश जो आम आदमी भी है को यह समझना होगा कि उससे और उसके लिए बनी राजनीति और सरकार उसे संविधानप्रदत्त बुनियादी अधिकारों से वंचित न करने पाए।
याद कीजिए 2014 के लोकसभा चुनाव को जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी यूपीए सरकार में महंगाई को मुद्दा बनाकर यह कहते नहीं थकते थे कि 'मोदी सरकार आई महंगाई गई'। भाजपा ने इस मुद्दे पर जनभावनाओं को भुनाया और जब देश में बहुमत की सरकार बन गई तो उसके बाद सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी, रेनकोट, जन्मपत्री जैसे मुद्दों में उलझाकर आम आदमी की जिन्दगी को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले महंगाई के मुद्दे को नेपथ्य के हवाले कर दिया।
दरअसल 6-7 दशक की राजनीतिक अनुभवों ने देश के राजनीतिज्ञों को यह समझा दिया है कि चुनाव मुद्दों से नहीं बल्कि समीकरणों से जीता जाता है। यह समीकरण गठबंधन की राजनीति के चलते दलीय भी हो सकता है और जातिगत भी। हर दल सस्ते और भावुकतापूर्ण नारों के साथ इसी समीकरण को धार देने में जुटा रहता है। इसलिए मुद्दे उभरते हैं अथवा उभारे जाते हैं लेकिन समय के साथ उन्हें नेपथ्य में जाते भी देर नहीं लगती है।
भारतीय रिजर्व बैंक का कहना है कि वित्त वर्ष 2017-18 में औसतन खुदरा मुद्रास्फीति 4.5 फीसदी रह सकती है, लेकिन उसे महंगाई दर के इससे ऊपर जाने का जोखिम भी दिख रहा है। इसका मतलब यह भी है कि रिजर्व बैंक के लिए ब्याज दरों में और कटौती करना संभव नहीं रह गया है और महंगाई 4.5 फीसदी के बजाय पांच फीसदी रहती है तो इसका मतलब यह है कि अगले वित्त वर्ष में वह ब्याज दरों में बढ़ोतरी भी कर सकता है।
सच पूछा जाय तो आम आदमी की जिन्दगी से ताल्लुक रखने वाले इस महंगाई को मुद्दा बनाकर सत्ता में आने वाली मोदी सरकार के लिए अब यह मुद्दा नहीं रह गया है। अगर गलती से कोई यह सवाल करता है तो सरकार और भाजपाई प्रवक्ता इसका जवाब देने के बजाय यूपीए सरकार की महंगाई से तुलना करने लगते हैं।
तो बड़ा सवाल यह कि आखिर देश का आम मतदाता कब ईवीएम की बटन दबाने के पहले खुद की जिन्दगी के बारे में सोचेगा? क्या उसे यह बात नहीं सोचनी चाहिए कि बढ़ती महंगाई उसकी थाली की रोटियों में लगातार कटौती करती जा रही है? क्या वह यह नहीं सोचेगा कि इस महीने बच्चों की स्कूल-फीस देने के लिए हो सकता है उसे घर का कोई सामान गिरवी रखना पड़े? क्या महंगाई का राजनीति के परिदृश्य से बाहर चले जाने को उसकी अंतिम विदाई मान लिया जाए?
नहीं, ऐसा कभी नहीं होना चाहिए। दरअसल सरकार चाहे कोई भी पार्टी बनाए, वास्तव में वे पूंजीपतियों की बेलगाम लूट और मुनाफे की परिस्थितियां ही तैयार करती हैं। आम मेहनतकश जनता उनकी निगाह में इंसान नहीं जानवर होते हैं जिसे रोटी, कपड़ा, मकान, इलाज और शिक्षा की जरूरत नहीं होती। बस पेट भरने के लिए मुट्ठी भर अनाज काफी होता है और वह भी गरीबी रेखा वाली शर्त पूरी करने के बाद। एक मेहनतकश अवाम के लिए इस नारकीय स्थिति से मुक्ति पाने का बस एक ही रास्ता बचता है जिसका उल्लेख अपने नाटक 'मदर' में बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (महान जर्मन कवि और नाटककार) ने किया है। जरा गौर से पढ़िए और समझिए...
ग़र थाली आप की ख़ाली है
ग़र थाली आपकी ख़ाली है
तो सोचना होगा कि खाना कैसे खाओगे
ये आप पर है कि पलट दो सरकार को उलटा
जब तक कि खाली पेट नहीं भरता
अपनी मदद आप करो
किसी का इन्तजार ना करो
यदि काम नहीं है और आप हो गरीब
तो खाना कैसे होगा ये आप पर है
सरकार आपकी हो ये आप पर है
पलट दो उलटा सर नीचे और टांगें ऊपर
आप पर है कि पलट दो सरकार को उलटा
तुम पर हंसते हैं कहते हैं तुम गरीब हो
वक़्त मत गंवाओ अपने आप को बढ़ाओ
योजना को अमली जामा पहनाने के लिए
गरीब-गुरबा को अपने पास लाओ
ध्यान रहे कि काम होता रहे
होता रहे-होता रहे
जल्दी ही समय आयेगा जब वो बोलेंगे
कमजोर के आस-पास हंसी मंडरायेगी
हंसी मंडरायेगी, हंसी मंडरायेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये लेखक के निजी विचार हैं।)