'नीतीश की जय' या 'विनाशकाले विपरीत बुद्धि'
प्रवीण कुमार
भाजपा द्वारा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को जब प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाए जाने की घोषणा की गई थी तो बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था, 'विनाश काले विपरीत बुद्धि'। कभी भाजपा नीत एनडीए के घटक दल रहे जेडीयू के नेता नीतीश कुमार ने तब कहा था कि विभाजनकारी तत्वों को देश स्वीकार नहीं करेगा। हालांकि नीतीश के कहे अनुसार, देश का जो भी बेड़ा गर्क हो रहा हो, लेकिन नरेंद्र मोदी के संदर्भ में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वह प्रधानमंत्री बने बैठे हैं और देश ने पूरे मनोयोग से उन्हें स्वीकार भी किया है।
कहने का मतलब यह कि नीतीश कुमार ने तब जो भविष्यवाणी की थी वह पूरी तरह से गलत साबित हुई और अब जबकि राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी एकजुटता दिखाने का वक्त था तो वही नीतीश कुमार भाजपा नीत एनडीए और नरेंद्र मोदी की गोद में जा बैठे हैं। विपक्षी उम्मीदवार के नाम का ऐलान होने तक भी इंतजार करना नीतीश ने उचित नहीं समझा और एनडीए के राष्ट्रपति उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को समर्थन देने की घोषणा कर डाली। जिस लालू और कांग्रेस से मिलकर बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन का वटवृक्ष खड़ा किया उसकी बुनियाद हिलाने में बिना सोचे-समझे कोई देरी नहीं की। हकीकत में इसे ही कहते हैं 'विनाशकाले विपरीत बुद्धि', मतलब जब विनाश का वक्त करीब आता है तो कहते हैं कि बुद्धि काम करना बंद कर देती है। यदि हम इसकी व्याख्या करें तो इसका अर्थ ये निकलता है कि जब इंसान का विनाश निकट आता है तो उसकी बुद्धि उसका साथ छोड़ देती है अर्थात् विनाश तो पहले से ही सुनिश्चित होता है बस उसे बुद्धि से सहयोग प्राप्त होना होता है और उसका विनाश आसानी से संपन्न हो जाता है। व्यक्तिगत तौर पर मैं कर्म को सर्वोपरि मानता हूं लेकिन मैं ये भी मानता हूं कि बुद्धि के निष्क्रिय हो जाने से ही ऐसी स्थिति आती है। जब लोग अपने हितैषियों की बात मानना बंद कर दें, अपनी सोच को सर्वोपरि मानने लगें, अपने निकटस्थ लोगों को चोट पहुंचाने लगें तो उन्हें समझ लेना चाहिए कि कुछ गड़बड़ है।
इंसान बहुत बार नकारात्मक सोच का शिकार हो जाता है और उसे पूरी कायनात उसके विरोध में षड्यंत्र करती नजर आती है। यदि कोई कार्य विफल हो जाता है तो उसके कारणों को खोजने के बजाये वह भाग्य को दोषी ठहराने लगता है और ऐसे में कोई उसे सही सलाह देने का प्रयास भी करता है तो उसे लगता है कि वह मुझे गलत सलाह दे रहा है या हमारे खिलाफ कोई साजिश रच रहा है। इस तरह से वह अपने हितैषियों से दूर होता चला जाता है और इसी दरम्यान दुश्मन सक्रिय हो जाते हैं। दुश्मन उसके चारों ओर एक कॉकस बनाकर उसे घेर लेते हैं और सलाह देने लगते हैं तो उसे लगता है कि यह तो बहुत सही सलाह दे रहा है। एक प्रकार से वह दुष्चक्र में घिर जाता है जो कि विनाश के समीप ले जाने में उसकी मदद करता है और इसी पूरी प्रक्रिया को समझाने की कोशिश में तुलसीदास एक पंक्ति में लिख गए- 'विनाशकाले विपरीत बुद्धि'।
राष्ट्रपति पद के लिए जब पूरा विपक्ष एक साझा उम्मीदवार उतारने की कोशिश में था, उसी बीच उसकी एक बेहद अहम कड़ी नीतीश कुमार ने एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को समर्थन देकर सबको चौंका दिया। सियासी गलियारों से लेकर आमजन के बीच इस सवाल का जवाब पाने को बेताबी है कि आखिर नीतीश ने क्यों एनडीए उम्मीदवार को समर्थन देने का फैसला किया है। अगर रामनाथ कोविंद बिहार का राज्यपाल रहते राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाए गए हैं तो मीरा कुमार तो बिहार की बेटी हैं और लोकसभा की अध्यक्ष भी रह चुकी हैं। रामनाथ कोविंद अगर महादलित हैं तो मीरा कुमार भी दलितों की कद्दावर नेता हैं और इससे भी ऊपर आप बिहार में महागठबंधन की सरकार के नेता हैं जिसकी बुनियाद कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव ने रखी। कम से कम इतना तो आंखों में पानी रखते कि मीरा कुमार बिहार की बेटी के साथ महिला भी हैं और कांग्रेस की नेता भी।
दरअसल, नीतीश कुमार भी अब नरेंद्र मोदी और अमित शाह की तरह हर मुद्दे को सियासत के तराजू से तौलने लगे हैं। उनके लिए न तो बिहार की अस्मिता मायने रखता है, न महिला सशक्तिकरण की कोई अहमियत है और न ही राजनीतिक प्रतिबद्धता को निभाना चाहते हैं। मोदी और शाह की तरह उनके मन और मस्तिष्क में भी जीत के अहंकार की मोटी परत जमती जा रही है और सत्ता व पद के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि जिस लालू प्रसाद यादव और उनके मंत्री बेटों के साथ नीतीश को तालमेल बिठाकर सरकार चलानी पड़ रही है वह कोई आसान काम नहीं है, लेकिन यही तो आपकी राजनीतिक बुद्धिमता है और इसीलिए तो जनता की आप पसंद बने थे। लालू के दोनों बेटों को मंत्री बनाने से पहले ही यह सोचना चाहिए था कि यह बिहार के विकास के लिए ठीक नहीं होगा। तब तो मुख्यमंत्री बनने के लिए जो भी समझौता करना पड़ा आपने किया तो उससे निपटने की ताकत भी एक मुख्यमंत्री में होनी चाहिए। लालू के कुनबे की अराजकता से परेशान होकर फिर से मोदी और भाजपा नीत एनडीए के खेमे में इस उम्मीद से ताक-झांक करना कि इससे लालू और कांग्रेस को उनकी औकाद में रहेंगे यह नीतीश की बड़ी राजनीतिक भूल होगी। इससे साफ जाहिर होता है कि नीतीश दो नावों पर एक साथ सवारी करना चाहते हैं। ऐसे में इसके दुष्परिणाम से नीतीश या तो अनभिज्ञ हैं या फिर जानबूझकर ये गलती कर रहे हैं।
दरअसल, बिहार में महादलित वोट बैंक निर्णायक भूमिका में है। संयोग से रामनाथ कोविंद महादलित श्रेणी से ही आते हैं। बिहार में लालू प्रसाद यादव के यादव-मुस्लिम गठजोड़ पर नीतीश कुमार के भारी होने की वजह महादलित वोट बैंक का उनके साथ जाना ही रहा है। नीतीश के लिए महादलित वोटों का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि उन्होंने 2014 में अपनी जगह जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने का दांव चला था। मांझी भी महादलित श्रेणी से ही आते हैं। बाद में जब मांझी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हद पार करने लगीं तो नीतीश को उन्हें हटाने का फैसला लेना पड़ा। मांझी ने इस फैसले को महादलितों का अपमान करार दिया था। एक हद तक वह वोट बैंक नीतीश से खिसका भी। 2015 के आम चुनाव में नीतीश कुमार महागठबंधन के जरिए दोबारा सत्ता में तो आ गए लेकिन वह बैसाखी के सहारे अपनी ताकत बनाए रखने के बजाय अकेले अपने दम पर मजबूत दिखना चाहते हैं। इसके लिए एक बार फिर से उनकी नजर महादलित वोट बैंक पर है। नीतीश को लगता है कि कोविंद का समर्थन कर महादलितों से नजदीकियां बढ़ाई जा सकती हैं जिसका फायदा उन्हें भविष्य में मिलेगा।
दूसरा, बिहार चुनाव जीतने के बाद गैर भाजपाई दलों के बीच नीतीश कुमार सबसे बड़ा चेहरा बन कर उभरे हैं। उसी के मद्देनजर जब-तब उन्हें 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी के मुकाबले प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की बात चलती रहती है, लेकिन नीतीश इस बात को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हैं। कांग्रेस ने अब तक इस मुद्दे पर अपना नजरिया स्पष्ट नहीं किया है। सियासी गलियारों में कहा जा रहा है कि कांग्रेस राहुल का मोह नहीं छोड़ पा रही है, नीतीश को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मान लेने का मतलब एक तरह से राहुल गांधी का हथियार डाल देना होगा। कांग्रेस के इस रवैये से नीतीश आहत हैं और वह खास मौकों पर कांग्रेस से अपनी दूरी बनाकर दबाव की राजनीति के रूप में काम कर रहे हैं। कोविंद को समर्थन का ऐलान उनकी इसी रणनीति का हिस्सा है।
नीतीश के राजनीतिक भविष्य के लिए यह भी स्थापित होना जरूरी है कि उन्होंने मुख्यमंत्री बने रहने के लिए लालू प्रसाद यादव या कांग्रेस के सामने कोई समर्पण नहीं किया है बल्कि महागठबंधन की सरकार के मुख्तार वह खुद हैं। साझा सरकार होने के बावजूद तमाम बड़े मौकों पर अपना अलग रणनीतिक स्टैंड लेकर नीतीश यह स्थापित करने में पीछे नहीं रहे हैं कि लालू यादव या कांग्रेस उनके मास्टर नहीं हैं। नोटबंदी से लेकर राष्ट्रपति चुनाव तक पर नीतीश के फैसले इसकी मिसाल हैं। नीतीश को यह भी लगता है कि लालू यादव और उनका पूरा परिवार इस वक्त जिस तरह से सीबीआई से लेकर आयकर विभाग के घेरे में है, सरकार को गिराने जैसा कोई जोखिम लालू नहीं लेना चाहेंगे।
कहने का मतलब यह कि, लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक और पारिवारिक मजबूरी का फायदा उठाते हुए अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता को ताक पर रखकर सिर्फ 'नीतीश की जय' के लिए जिस तरह के सियासी मार्ग पर नीतीश कुमार आगे बढ़ रहे हैं वह उनके लिए 'विनाशकाले विपरीत बुद्धि' जैसा ही साबित होने वाला है। क्योंकि नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता, सुशासन बाबू, बिहार की अस्मिता, बिहार के विकास पुरूष और मोदी के खिलाफ 2019 में पीएम पद के लिए सशक्त संभावित चेहरा इन सबकी साख पर बट्टा लगाने की बड़ी गलती वाले सियासी राह पर आगे बढ़ चुके हैं। मोदी और शाह की नजर में बिहार अब प्राथमिकता में है। नीतीश को राजनीतिक रूप से कमजोर करना प्राथमिकता में हैं। रामनाथ कोविंद को नीतीश का समर्थन नोटबंदी के बाद इसकी दूसरी कड़ी है।