प्रधानसेवक का राजधर्म?
प्रवीण कुमार
भारत के पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा में वामपंथ को हराकर भाजपा को जीत हासिल किए महज 48 घंटे ही बीते थे कि दक्षिणपंथी संगठनों (भाजपा की टोपी पहने लोग) ने जेसीबी मशीन लगाकर लेनिन की मूर्ति को जमींदोज कर जीत का जश्न मनाया और दिखाने की कोशिश की कि वही हिटलर के असली वंशज हैं जो प्रतिमाओं को तोड़कर, किताबों को जलाकर, लेखकों को मारकर प्रतिस्पर्धी विचारों को खत्म कर देंगे। देश के प्रधानसेवक नरेंद्र दामोदर दास मोदी सरदार भगत सिंह का बहुत सम्मान करते हैं और सरदार भगत सिंह लेनिन का सम्मान करते थे। लिहाजा प्रधानसेवक की यह जिम्मेदारी बनती थी कि वह सरदार भगत सिंह के प्रेरणास्रोत लेनिन की मूर्ति के बेहतर रखरखाव का इंतजाम करते। प्रधानसेवक एक बार फिर से राजधर्म निभाने में चूक गए। एक बार फिर नरेंद्र मोदी का राजधर्म सवालों के घेरे में आ गया है।
अगर याद हो तो फरवरी-मार्च 2002 में जब गुजरात दंगे की आग में झुलस रहा था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह दी थी। दंगे की आग शांत होने के बाद 4 अप्रैल 2002 को प्रधानमंत्री वाजपेयी अहमदाबाद पहुंचे थे। दंगा पीड़ित इलाकों का निरीक्षण करने के बाद जब वाजपेयी प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे तो बगल में नरेंद्र मोदी भी बैठे थे। एक महिला पत्रकार ने अंग्रेजी में सवाल किया कि मुख्यमंत्री के लिए आपका क्या संदेश है। वाजपेयी ने छूटते ही कहा था, 'मुख्यमंत्री के लिए एक ही संदेश है कि वे राजधर्म का पालन करें। राजधर्म! यह शब्द काफी सार्थक है। मैं उसी का पालन करने का प्रयास कर रहा हूं। राजा के लिए, शासक के लिए प्रजा-प्रजा में भेदभाव नहीं हो सकता। न जन्म के आधार पर, न जाति के आधार पर, न धर्म-सम्प्रदाय के आधार पर।' अफसोस कि आज देश में कोई दूसरा अटल नहीं। राजधर्म का पालन करने की नसीहत देने वाले असल अटल की वाणी मूक हो गई है। इसलिए प्रधानसेवक नरेंद्र मोदी को खुद ही एक पल के लिए सरदार भगत सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी का स्मरण करना चाहिए और राजधर्म का पालन करना चाहिए।
लेनिन दुनिया के हर उस व्यक्ति के आदर्श हैं जो अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ने की सोच रखता है। भारत के महान क्रान्तिकारी शहीद भगत सिंह भी लेनिन को इसीलिए अपना आदर्श मानते थे और उन्हें बहुत पढ़ते थे। उनकी जेल डायरी लेनिन के उद्धरणों से भरी पड़ी है। फांसी पर जाने से पहले भी वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनकी फांसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रान्तिकारी से मिल तो ले। फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले- ठीक है अब चलो। 24 जनवरी, 1930 को लेनिन दिवस के अवसर पर लाहौर षड्यन्त्र केस के विचाराधीन कैदी अपनी गरदनों में लाल रूमाल बांधकर अदालत में पहुंचे थे। तब वे काकोरी-गीत गा रहे थे। मजिस्ट्रेट के आने पर उन्होंने ‘समाजवादी क्रान्ति ज़िन्दाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के नारे भी लगाये थे। ये था भगत सिंह का लेनिन प्रेम और भगत सिंह के उस प्रेम पर 'साम्राज्यवादी बुलडोजर' चलाने में भारतीय जनता पार्टी के सिपाहियों ने तनिक भी देर नहीं लगाई।
इतिहास पर गौर करें तो दुनिया में प्रतीकों या मूर्तियों को गिराने की सबसे पुरानी मिसाल सन् 1357 की है, जब इटली के टोस्काना सूबे के सिएना शहर में बीच चौराहे पर लगी वीनस की नग्न मूर्ति को लोगों ने हटा दिया था। वीनस रोम वासियों की देवी थी जिसे खूबसूरती और सेक्स की देवी मानकर पूजा जाता था। वीनस का बेहद खूबसूरत बुत सिएना में एक फव्वारे पर लगा था। लेकिन एक जंग में हारने के बाद उन्हें लगा कि इस नग्न मूर्ति के चलते ही भगवान उनसे नाराज हो गए और उन्हें हार का सामना करना पड़ा। बस! देखते ही देखते स्थानीय लोगों ने इस मूर्ति को हटा दिया। कहने का मतलब यह कि ऐतिहासिक प्रतीकों को गिराना या बनाना दोनों ही इंसानी सोच में आए बदलाव के प्रतीक हैं। भारत में इसे आप असहिष्णुता पर छिड़ी बहस से जोड़ सकते हैं। आजकल भारत में सड़कों के नाम बदल रहे हैं, इतिहास की किताबें नए सिरे से लिखने की चर्चा हो रही है। हो सकता है आगे चलकर अमरीका, रूस, इराक और लीबिया की तरह भारत में भी पुराने बुतों को गिराया जाने लगेगा तो इसे हम क्या कहेंगे? यह कुछ और नहीं, सिर्फ और सिर्फ दूसरे खयालातों के प्रति असहिष्णुता, सच को बर्दाश्त न कर पाने की कसमसाहट या फिर जैसा अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा, 'यह इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश है।'