न्यू इंडिया के सपने की हकीकत
प्रवीण कुमार
2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने जो वायदे देश की जनता से किए थे, अगर उसे भी पूरा करने में सरकार सफल रही तो खुद-ब-खुद नया भारत यानी न्यू इंडिया बन जाएगा। एक सुरक्षित, समृद्ध और मजबूत राष्ट्र बनाने का लक्ष्य नया नहीं है। सभी सरकारें सबके लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, बिजली, स्वास्थ्य आदि मुहैया कराने पर जोर देती है और फिर हर प्रधानमंत्री ने अतीत में किसानों की आय बढ़ाने, युवाओं को रोजगार देने, भ्रष्टाचार और आतंकवाद से मुक्ति दिलाने, सामाजिक सद्भाव और सीमा सुरक्षा मजबूत करने का वादा किया है। फर्क सिर्फ इतना है कि अन्य प्रधानमंत्रियों के मुकाबले नरेंद्र मोदी लोगों को यह यकीन दिलाने में कामयाब दिख रहे हैं कि न्यू इंडिया का यह विजन उनकी पहुंच में है और यदि लोग उनके साथ मिलकर मतलब 2019 में उनकी सरकार को दोबारा चुनते हैं तो 2022 में इस लक्ष्य को पाना आसान होगा।
न्यू इंडिया मतलब नया भारत। एक ऐसा भारत जहां कोई गरीब नहीं हो, कोई भूखा न हो, कोई अनपढ़ न हो, कोई बेरोजगार न हो, सर्वधर्मसम्भाव का मान हो, जय जवान-जय किसान का नारा बुलंद हो। आजादी के इन 70 सालों में एक के बाद एक आने वाली और जाने वाली सरकारें यह तो करती रही हैं। ऐसा भी नहीं है कि आजादी के समय जो भारत हमें मिली थी, जिस रूप में मिली थी उससे कहीं बेहतर भारत में आज हम रह रहे हैं, लेकिन कहते हैं कि बदलाव हमेशा अपने साथ कुछ विकृतियां भी लाती हैं और यही ध्यान रखने की होती है किसी भी सरकार और देशवासियों के लिए कि बदलाव को स्वीकार कर सामूहिक प्रतिबद्धता के साथ विकृतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ें। यहीं आकर सब गड़बड़ हो जाती है। एक ओर जनता जहां अपनी सामूहिकता और प्रतिबद्धता को भूल जाती है और सरकार अपनी सत्ता को बचाने के लिए वोट बैंक की राजनीति में उलझ जाती है, अपनी प्रतिबद्धता को आगे के लिए टाल देती है।
इसे समझने के लिए इस कहानी को याद करना होगा। बात 1965 की है जब एक अमरिकी अखबार को दिए इंटरव्यू में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अमेरिका द्वारा वियतनाम में चलाए गए युद्ध को आक्रामक कार्य बताया था। शास्त्री जी की यह टिप्पणी तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन को नागवार गुजरी थी कि एक भूखा राष्ट्र अमेरिका को आक्रमणकारी कैसे कह सकता है? गुस्से में अमेरिका ने भारत को खाद्यान्न निर्यात पर पाबन्दी लगा दी। भारत की मुश्किलें बढ़ गईं। इस दौरान एक समय ऐसा आ गया था जब देश में मात्र सात दिनों का खाद्य भंडारण बाकी रह गया था। बढ़ते खाद्य संकट को देखते हुए शास्त्री जी ने देशवासियों से सोमवार को उपवास रखने की अपील की थी। साथ ही देश में खाद्य आत्म-निर्भरता लाने में किसानों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को समझाते हुए उन्होंने 'जय जवान जय किसान' का लोकप्रिय नारा उद्घोषित किया था। देश की जनता शास्त्री जी के एक आह्वान पर मुट्ठी बांध ली थी और हरित क्रांति तथा श्वेत क्रांति के रास्ते हमारा देश खाद्य व दुग्ध उत्पादन में इतना आत्मनिर्भर हो गया कि भारत खाद्यान्न का निर्यात करने लगा।
तो ये होती है जनता की सामूहिकता और सरकार की प्रतिबद्धता। आज देश की हालत यह है कि खेत में किसान अपनी जान देने को मजबूर हैं तो सरहद पर जवान आतंकवादियों के हाथों मर रहे हैं। किसान और जवान का इस तरह से मरना किसी भी राष्ट्र की सेहत के लिए बहुत ही खराब स्थिति होती है। अगर किसान नहीं बचे तो देश की 125 करोड़ जनता का पेट कौन भरेगा? सरहद की सुरक्षा में तैनात जवान अगर इसी तरह से आतंकियों के हाथों मरते रहे तो जब चीन या पाकिस्तान हमले कर देगा तो कौन लड़ेगा देश के लिए? और फिर इस हालात में न्यू इंडिया तो बनेगा लेकिन वह कैसा न्यू इंडिया बनेगा इसकी कल्पना से भी रूह कांप जाती है। इसलिए सरकार को यह तय करना होगा कि जिस नए भारत का सपना आजादी के वीर सपूतों ने देखा था उस सपने को साकार करने के लिए, एक नया भारत बनाने के लिए किसान और जवान दोनों की ताकत को बढ़ाना होगा। रोटी, कपड़ा और मकान के बाद शिक्षा का अधिकार, रोजगार की गारंटी, बेहतर स्वास्थ्य सेवा, महिलाओं की सुरक्षा, जातीय संघर्ष को जड़ से मिटाना और सामाजिक सद्भाव ये ऐसे बुनियादी मसले हैं जिसको मजबूती देकर हम एक नए भारत का निर्माण कर सकते हैं। अगर सरकार ऐसा कर सकी तो बाकी की समस्याएं मसलन महंगाई, गरीबी, भ्रष्टाचार, बिचौलिया संस्कृति आदि खुद-ब-खुद सुसाइड कर लेंगे।
लेकिन, राजनीतिक दलों पर पैनी नजर रखने वाली संस्था एडीआर ने कॉरपोरेट फंडिग के जो तथ्य देश के सामने रखे हैं वह इन्हीं राजनीतिक दलों में से बनी सरकार पर सवालिया निशान लगाती है कि क्या ये 'नया भारत' बनाएंगे? रिपोर्ट के मुताबिक, 2014 के आम चुनाव में राजनीतिक दलों को जितना पैसा कॉरपोरेट फंडिंग से मिला उतना पैसा उससे पहले के 10 साल में नहीं मिला। एडीआर के मुताबिक, 2004 से 2013 के बीच कॉरपोरेट ने 460 करोड़ 83 लाख रुपये राजनीतिक दलों को फंडिंग किया। वहीं 2013 से 2015 के बीच कॉरपोरेट ने 797 करोड़ 79 लाख रुपये राजनीतिक दलों को फंडिंग किया। ध्यान रखिएगा कि ये आंकडे सिर्फ राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के हैं। यानी भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस पार्टी, एनसीपी और वामपंथी दलो को दिये गये फंड। एडीआर की इस रिपोर्ट से ही ये सच भी निकला है कि 80 फीसदी से ज्यादा कॉरपोरेट फंडिंग भाजपा को मिल रही है। अप्रैल 2012 से अप्रैल 2016 के बीच 956 करोड़ 77 लाख रुपये की कॉरपोरेट फंडिग हुई। इसमें से 705 करोड़ 81 लाख रुपये भाजपा के पास गये। 198 करोड़ 16 लाख रुपये कांग्रेस के पास गये।
यहां जिस पार्टी की सरकार 'न्यू इंडिया' की बात कर रही है उसी पार्टी को सबसे ज्यादा कॉरपोरेट चंदा मिल रहा है तो मेरा सवाल यह कि अगर कॉरपोरेट से इतना चंदा लेकर धन और बल की ताकत पर चुनाव जीतने का खेल जो राजनीतिक दल कर रही है उसकी कीमत भी तो सरकार को इन कॉरपोरेट घरानों को चुकानी होगी। क्योंकि ये कॉरपोरेट घराने चंदा समाजसेवा और जनकल्याण की नीतियों के लिए तो नहीं देते हैं। वो चंदा सिर्फ इसलिए देते हैं क्योंकि जब उस पार्टी की सरकार बनती है तो उससे अपने माफिक नीतियां बनवाकर अत्यधिक मुनाफा कमा सकें। लोकतंत्र में जब चुनाव होते हैं तो मतदाता यह देखता है कि कौन सा राजनीतिक दल और उसका नेता जनहित और देशहित में बेहतर साबित हो सकता है। कहने का मतलब यह कि चुनाव में हार और जीत का आधार उसका काम होता है। लेकिन बदलते भारत में जब चुनाव धनबल की ताकत से लड़ा जाने लगे तो तय मानिए कि देश उल्टी दिशा में चलने लगा है। चुनाव में जीत या हार अगर कॉरपोरेट तय करने लगे तो समझिए देश का विनाश तय है, वक्त जो भी लगे। फिर ये कहने में कोई गुरेज नहीं कि इस हालात में 'न्यू इंडिया' का सपना तो कभी पूरा नहीं होने वाला।