आरक्षण पर क्या कहता है संविधान व कानून
शंभू भद्रा
सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के लिए 50 फीसदी की सीमा तय कर रखी है और अगर यह आंकड़ा 50 फीसदी को पार करता है तो निश्चित तौर पर मामला ज्यूडिशियल स्क्रूटनी के लिए सुप्रीम कोर्ट के सामने आएगा और फिर स्क्रूटनी में ऐसे फैसले का टिकना थोड़ा मुश्किल होगा। कानून के जानकार और सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट ऑन रिकार्ड रंजन कुमार की मानें तो सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में इंदिरा साहनी जजमेंट जिसे मंडल जजमेंट भी कहा जाता है में व्यवस्था दे रखी है कि सरकार 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दे सकती। सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बेंच ने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि आरक्षण 50 फीसदी की सीमा को लांघ नहीं सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि संविधान के अनुच्छेद-16 (4) कहता है कि पिछड़ेपन का मतलब सामाजिक पिछड़ेपन से है। शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन, सामाजिक पिछड़ेपन के कारण हो सकते हैं लेकिन अनुच्छेद-16 (4) में सामाजिक पिछड़ेपन एक विषय है। संविधान में अनुच्छेद-16 के तहत समानता की बात करते हुए सबको समान अवसर देने की बात है। यह संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर का पार्ट है। अगर 50 फीसदी सीमा पार करते हुए आरक्षण दिया जाता है और इसके लिए संविधान में संशोधन किया जाता है या फिर मामले को 9वीं अनुसूची में रखा जाता है कि उसे ज्यूडिशिल स्क्रूटनी के दायरे से बाहर किया जाए तो भी मामला ज्यूडिशिल स्क्रूटनी के दायरे में होगा।
कोर्ट में कब-कब खारिज हुआ है ऐसा बिल
- अप्रैल, 2016 में गुजरात सरकार ने सामान्य वर्ग में आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की थी। सरकार के इस फैसले के अनुसार 6 लाख रुपये से कम वार्षिक आय वाले परिवारों को इस आरक्षण के अधीन लाने की बात कही गई थी, हालांकि अगस्त 2016 में हाईकोर्ट ने इसे गैरकानूनी और असंवैधानिक बताया था।
- सितंबर 2015 में राजस्थान सरकार ने अनारक्षित वर्ग के आर्थिक पिछड़ों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 14 फीसदी आरक्षण देने का वादा किया था, हालांकि दिसंबर, 2016 में राजस्थान हाईकोर्ट ने इस आरक्षण बिल को रद्द कर दिया था। ऐसा ही हरियाणा में भी हुआ था।
- 1978 में बिहार में पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण देने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने आर्थिक आधार पर सवर्णों को तीन फीसदी आरक्षण दिया था। हालांकि बाद में कोर्ट ने इस व्यवस्था को खत्म कर दिया।
- 1991 में मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू होने के ठीक बाद पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहा राव ने आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया था और 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की थी। जिसे 1992 में कोर्ट ने उसे निरस्त कर दिया था।
दरअसल 9वीं अनुसूची में रखकर ऐसा कोई कानूनी संशोधन नहीं किया जा सकता जो संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर को डैमेज करता हो। केशवानंद भारती से संबंधित वाद में सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की संवैधानिक बेंच ने कहा था कि संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर के साथ छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता। अगर 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण दिया जाता है तो जाहिर तौर पर संविधान के अनुच्छेद में दी गई व्यवस्था के विपरीत होगा, क्योंकि इसमें प्रावधान है कि समान अवसर दिए जाएं और इस तरह से देखा जाए तो मौलिक अधिकार के प्रावधान प्रभावित होंगे और वह बेसिक स्ट्रक्चर का पार्ट है।
अदालत ने व्यवस्था दे रखी है कि 9वीं अनुसूची का सहारा लेकर अवैध कानून को प्रोटेक्ट नहीं किया जा सकता। अगर कोई कानून संवैधानिक दायरे से बाहर होगा तो उसे 9वीं अनुसूची के दायरे में रखकर प्रोटेक्ट नहीं किया जा सकता। ऐसा कोई संवैधानिक संशोधन नहीं टिक पाएगा जो बेसिक स्ट्रक्चर से छेड़छाड़ करता हो क्योंकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही व्यवस्था दे चुकी है। सवर्ण आरक्षण बिल अगर पास हो भी जाता है तो भी उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकेगी और मौजूदा कानूनी व्यवस्था में उसका टिकना मुश्किल है।
आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था अभी संविधान में नहीं है। इसलिए सरकार को आरक्षण लागू करने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा। संविधान के अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 में बदलाव करना पड़ेगा। दोनों अनुच्छेद में बदलाव के बाद ही आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का रास्ता साफ हो पाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह आलेख उनके फेसबुक वॉल से साभार प्रकाशित किया गया है।)