अपने ही मुद्दों पर चुनावी बिसात बिछाने की तैयारी
शंकर सिंह भाटिया
उत्तराखंड में चुनी हुई सरकार का मामला कोर्ट में उलझने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की नजर सरकार बनाने की तरफ जरूर है। बावजूद इसके इन दलों की नजर आने वाले चुनावों पर है। उसी की पटकथा लिखने में ये दल जुट गए हैं। चुनाव जीतने के बाद सालों साल जनता पर अपनी मर्जी थोपने वाली पार्टियां जनता के दरबार में माथा टेकने की मुद्रा में खड़ी हैं। इसलिए राजनीतिक दल यात्राएं निकालकर खुद को जनता का सबसे बड़ा हितैशी दिखाने की होड़ में हैं।
उत्तराखंड की राजनीति इन दिनो सलीब पर टंगी दिखाई देती है। 27-27 विधायकों के साथ तराजू के कांटे में बराबर खड़ी पार्टियों की निगाहें अगले कुछ महीनों के लिए सरकार बनाने को पीडीएफ के छह विधायकों पर गड़ी हुई है। इस सबके बावजूद आने वाले पांच सालों के लिए बनने वाली सरकार इन पार्टियों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। उसी की पटकथा लिखने के लिए दोनों पार्टियां यात्राएं निकाल रही हैं। गौर से देखें तो यह असली मुद्दों को दरकिनार कर अपने मुद्दों को थोपने की राजनीतिक साजिश से अधिक कुछ नहीं है।
कांग्रेस पार्टी लोकतंत्र बचाने के लिए यात्राएं निकाल रही है। भाजपा पर लोकतंत्र की हत्या करने का आरोप लगा रही है। जगह-जगह कांग्रेस कार्यकर्ताओं के मार्फत भाजपा के नेताओं के पुतले फूंके जा रहे हैं। आने वाले कुछ महीनों के लिए चाहे जो हो, लेकिन चुनाव के मुद्दों की पूरी पृष्ठभूमि तैयार कर ली गई है।
भाजपा कांग्रेस पर अपना ही कुनबा न संभाल पाने का आरोप लगा रही है। वर्तमान राजनीतिक हालातों के लिए कांग्रेस की आपसी फूट को ही जिम्मेदार ठहरा रही है। भाजपा भी इन मुद्दों को लेकर जनता के दरबार में जा रही है। भाजपा भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए यात्राएं निकाल रही है। भाजपा की निगाहें भी आने वाले चुनावों पर है। वह भी अपने तर्क रखकर आने वाले चुनावों के मुद्दों पर फोकस कर रही है।
मतलब यह कि उत्तराखंड की सत्ता की दावेदार दोनों पार्टियों ने आने वाले चुनावों के मुद्दों का प्लेटफार्म सजाने की तैयारी कर ली है। एक बार फिर जनता के मुद्दे सलीब पर ही टंके रह जाएंगे। अपने चिर परिचित अंदाज में दोनों दल अपने निर्थरक मुद्दों पर पूरा चुनाव केंद्रित करने की तैयारी कर चुके हैं।
अन्य राजनीतिक पार्टियां उक्रांद तथा आप भी यात्राएं निकाल रही हैं, लेकिन उनके मुद्दों के साथ जनता का कितना समर्थन जुट पाता है, यह देखने वाली बात होगी। भाजपा-कांग्रेस से इतर अन्य किसी दल के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह होनी चाहिए कि वह इन दलों के सेल्फ स्टेंडर्ड चुनावी मुद्दों की हवा निकालने की कोशिश करे और जनता के मुद्दे सामने लाए।
विदित है कि 16 साल के उत्तराखंड में पहाड़ की दुर्गति किसी से छिपी नहीं है। जर्जर पहाड़, पलायन से खाली होते पहाड़ सभी के सामने हैं, लेकिन विधानसभा के पटल पर इन गंभीर मुद्दों पर कभी गंभीर चर्चा क्यों नहीं होती? ये सवाल इतने गंभीर होने के बावजूद कभी चुनावी मुद्दे क्यों नहीं बन पाते? जिस पहाड़ और पहाड़ी के लिए यह राज्य बनाने की परिकल्पना की गई थी, वह दरकिनार कर दिए गए हैं, उनका वजूद ही समाप्त होने की कगार पर पहुंच गया है। इसके बावजूद वह चुनावी मुद्दे नहीं बनने दिए जाते हैं। भाजपा और कांग्रेस की करतूतें ही चुनावी मुद्दे बन जाएंगे। ऐसा लगता है कि दोनों दल यह सब नूरा कुश्ती जनता को बेवकूफ बनाने के लिए करती हैं। असल मुद्दों की बात होगी तो दोनों के पास कोई जवाब नहीं होगा।
मूल निवासियों को दरकिनार करने के लिए राज्य में स्थायी निवास की व्यवस्था थोपी गई है, जिस वजह से उत्तराखंड के मूल निवासियों की यह दुर्गति हुई है। इसके बावजूद यह मुद्दा चुनावी मुद्दा नहीं बन सकता। राज्य की मौलिक भाषाएं, संस्कृति इस कदर तिरोहित कर दी गई हैं कि यूनेस्को ने इन्हें मृत श्रेणी में रख दिया है। इसके बावजूद अपनी सरकारों ने उन्हें संरक्षित करने, संवारने के लिए इन 16 सालों में कोई कदम नहीं उठाए हैं। यह भी उत्तराखंड का चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बन सकता है?
पहाड़ जर्जर हो रहे हैं, खाली हो रहे हैं। हालात इस कदर खराब होते जा रहे हैं कि आने वाले कुछ सालों में स्थिति हाथ से निकल जाएगी। यह सबकुछ जानकर 2006 में हुए विधानसभा तथा संसदीय सीटों के परिसीमन में पहाड़ों पर एक और चोट की गई। पहाड़ का प्रतिनिधित्व कम कर उन्हें पूरी तरह से बर्बादी की ओर धकेल दिया गया। इसके बाद भी यह चुनावी मुद्दा नहीं बनेगा। 2026 में होने वाले परिसीमन में पहाड़ पर एक और बड़ी चोट पड़ने वाली है, इसके बावजूद यह उत्तराखंड में चुनावी मुद्दा नहीं बन पाएगा।
कांग्रेस के बागी विधायकों के लिए खनन में आने वाले धन के बंटवारे में हिस्सा न मिलना सरकार गिराने का मुद्दा बन सकता है। पहाड़ की दुर्गति उन्हें क्या लेना देना। वह इस जमात से अलग नहीं हैं। यदि उत्तराखंड के इन वास्तविक मुद्दों को कोई दल जनता के मुद्दे बना सके तो यह उत्तराखंड में 16 साल तक राज करने के बाद इस राज्य की दुगर्ति करने वालों को बेनकाब करने वाला होगा। ये हालात उन्हें उत्तराखंड में वैकल्पिक राजनीति का केंद्र बिंदु बना देंगे। लेकिन बड़ा सवाल यह कि क्या भाजपा-कांग्रेस के धन बल और बाहुबल के आगे कोई खड़ा हो पाएगा?
(लेखक उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता अथवा सच्चाई के प्रति सत्ता विमर्श उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)